अत्यधिक दोहन से संकटापन्न जड़ी-बूटी संसार,कैंसर नाशक थुनेर भी संकट में
–जयसिंह रावत
जड़ी का मतलब वनस्पपति के जमीन के अंदर का हिस्सा और बूटी का मतलब जमीन से ऊपर का हिस्सा जिसमें तना, पत्तियां, फल एवं फूल शामिल होते हैं। प्रकृति के नियमानुसार पादपों या वनस्पतियों और जीवधारियों का अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ होता है। मनुष्य भी प्रकृति की ही एक रचना है, अतः उसका अस्तित्व भी बिना वनस्पति के संभव नहीं है। जहां तक जड़ी-बूटी का सवाल है तो इनका इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता के विकास का है। चाहे मैसोपोटोमियां की सभ्यता हो या यूनान की या फिर मिश्र और सिंधु घाटी की! सभी प्राचीनतम् सभ्यताओं द्वारा वनस्पतियों को औषधि के श्रोत के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। यूनान की सभ्यता में विलो नाम के वृक्ष की छाल का दर्द निवारक औषधि के रूप में उपयोग का उल्लेख प्राचीनतम् ग्रन्थों में मिलता है। आज भी प्रकृति के सबसे करीब रहने वाली जनजातियों में उनकी परम्परागत चिकित्सा व्यवस्था में जड़ी बूटियों की अहं भूमिका होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की नब्बे के दशक में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की 80 प्रतिशत आबादी प्रथमिक चिकित्सा के लिये वनस्पतियों पर आधारित पारम्परिक औषधियों पर निर्भर थी।
रामायण में भी संजीवनी बूटी का उल्लेख
भारत में तो अनादि काल से ही वनस्पतियों तथा उनसे प्राप्त पदार्थों का उपयोग इलाज के लिये होता रहा है। रामायण में लक्ष्मण के मूर्छित होने पर हिमालय से प्राप्त संजीवनी बूटी से उनके इलाज का उल्लेख इस बात का सबूत है कि कि ईसा से भी छटी या सातवीं शताब्दी पूर्व त्रेता युग में भी जीवन रक्षा के लिये जड़ी बूटियों का उपयोग किया जाता था। भारत में बीमारियों के उपचार के लिये वनस्पतियों के उपयोग का उल्लेख सबसे पहले ऋगवेद में मिलता है। ऋगवेद के बाद वनोषधियों का उल्लेख चरक तथा सुश्रुत संहिताओं में मिलता है, जिनका श्रृजन भी ईसा पूर्व में हुआ था।
विपरीत परिस्थितियों के पादपों में औषधीय तत्व
रॉयल बॉटेनिकल गार्डन की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुमान अनुसार इस धरती पर लगभग 3.91 लाख पादप प्रजातियां हैं जिनमें 94 प्रतिशत पुष्पीय पौधे हैं। पादपों की इतनी प्रजातियां पृथ्वी के विभिन्न जलवायु और भौगोलिक क्षेत्रों में उगती और जीवित रहती हैं। इनमें से कुछ प्रजातियां अत्यन्त ठण्ड और कुछ अत्यन्त गर्म क्षेत्रों में पायी जाती है जहां सामान्य प्रजातियों के जीवित रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दरअसल इन विकटतम् परिस्थितियों का प्राकृतिक दबाव इन पादप प्रजातियों पर पड़ता है। इस दबाव को सहन करने और उसके अनुकूल बन जाने के लिये उन पादपों में आत्मरक्षा की विधियां विकसित हो जाती हैं और ये विधियों अनके प्रकार के विशिष्ट रसायनों के रूप में होती हैं। ये रसायन औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं और इनके ज्ञान से ही रोग निवारक दवाओं का निर्माण किया जाता है। यही विशिष्टता विकट जलवायु संबंधी परिस्थितियों में जीवित रहने वाले जीवों में भी होती है।
जड़ी बूटियों का भण्डार है हिमालय
जैव विविधता से सम्पन्न 17 मेगा बायोडाइवर्सिटी नेशन्स में भारत का भी नाम आता है जहां जैव विविधता की दृष्टि से तीन हॉट स्पॉट्स चिह्नित किये गये हैं। इसीलिये भारत वर्ष को औषधीय महत्व की जड़ी-बूटियों का भण्डार माना जाता है। भारत में भी विषम जलवायु परिस्थितयों के कारण हिमालय को जड़ी बूटियों की खान माना जाता है। यहीं वह द्रोणागिरी पर्वत है जिसके बारे में सनातन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि हनुमान आकर लक्ष्मण का जीवन बचाने के लिये संजीवनी बूटी ले गये थे। यह द्रोणागिरी पर्वत विश्वविख्यात फूलों की घाटी के ही निकट है। इन क्षेत्रों में पायी जाने वाली औधधियां न केवल आयुर्वेद एवं यूनानी दवाओं के रूप में प्रयुक्त की जाती है अपितु फर्मास्यूटिकल, सौन्दर्य प्रसाधन, खाद्य रंग दत्र एवं अन्य उद्योगों में भी प्रयुक्त की जाती हैं।
अत्यधिक दोहन से संकटापन्न जड़ी-बूटी संसार
विश्व में जड़ी-बूटियों की उपयोगिता के प्रति जागरूकता बढ़ने के कारण इनका विश्व व्यापार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में जड़ी बूटियों का कारोबार 120 अरब अमरीकी डालर तक पहुंच गया है। हालांकि भारत के पास इतना बड़ा खजाना होने के बावजूद चीन आदि देश इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ चुक हैं। भारत में इन भेषजों का कारोबार 4.2 अरब रुपये तक अनुमानित है। घरेलू एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में जड़ी बूटियों की मांग इस कदर बढ़ जाने के कारण जन वनस्पतियों पर मानव दबाव अत्यधिक बढ़ जाने से कई औषधीय पादप प्रजातियां संकटापन्न स्थिति में पहुंच गई हैं और कुछ तो अब नजर भी नहीं आती हैं।
कैंसर नाशक थुनेर भी संकट में
हिमालय पर पाया जाने वाला थुनेर पौधा केंसर के इलाज के काम आ रहा है, इसलिये अत्यधिक दोहन के कारण उसका अस्तित्व संकट में है। सालम पंजा या डक्टाइलोराइजा हथजीरिया भी एक बहुत ही कीमती जड़़ी है। उसकी जड़ को ही उठा कर लेजाया जायेगा तो फिर रिजनेरेशन कैसे होगा? इसी प्रकार एकोनिटम बाल्फोरी जिसे मीठा जहर कहा जाता है एक जीवन रक्षक औषधि ही है। उसका भी भारी दोहन हो रहा है। कुटकी (पिक्रोराइजा) और वन ककड़ी (पोडोफाइलम हेक्साण्ड्रम) भी संकट में आ गये है। आजकल लोग कीड़ा जड़ी याने कि यार्शागम्बू का बेतहासा दोहन हो रहा है। इस जड़ी का उपयोग यौनवर्धक औषधि के रूप में किया जाता है। अत्यधिक दोहन के कारण हिमालय पर जिन औषधीय प्रजातियों का अस्तित्व संकट में आ गया है उनमें मीठा जहर, अतीस, सालमपंजा, निरबिसी,नील कंठ, जटामासी, वन ककड़ी, कुट, थुनेर, कालाजीरा, शजमूल, पदारा, कुटकी,सलाम मिश्री, सर्पगन्धा, डोलू की प्रजाति, ब्रह्मकमल, पत्थरचटा, काली मूसली, निशोध, ममीरा,एवं जंगली प्याज आदि शामिल हैं।
जड़ी-बूटियां बचाने के लिये कृषिकरण जरूरी
वनोषधियों पर बढ़ते दबाव को कम करने के लिये जरूरी है कि उनका कृषिकरण किया जाय। पहाड़ी राज्यों में इस दिशा में कदम उठाये तो जा रहे हैं, मगर वे काफी नहीं है। जड़ी-बूटियों के क्षेत्र में अभी तक ऐसे प्रयास नहीं हुये कि इसको रोजगार से जोड़ा जाना जरूरी है। स्थानीय लोगांे को हिमालय में उगती इन जड़ी-बूटियों से कुछ विशेष फायदा नहीं हो रहा है। अगर हम इसको उत्पादन से जोडंे़ और लोग इसको खेतों में उगायें तो रोजगार के बड़े व्यापक नये अवसर पैदा हो सकते हैं। जड़ी बूड़ी उत्पादन के लिये सबसे महत्वपूर्ण जो बात है वो ये कि आपके पास लगाने के लिये पौध होनी चाहिये जो आज भी नहीं है। इसी लिये कृषक इनको वहुत अच्छे उत्पादन के स्तर पर नहीं ले जा पा रहे है।