संता-बंता और आने वाला बड़ा भूकम्प
by Piyoosh Rautela Dec 22, 2022
संता – भाई आजकल कुछ ज्यादा भूकम्प नहीं आ रहे हैं क्या?
बंता – यह भी तो हो सकता है कि भूकम्प तो उतने ही आ रहे हो, पर संवेदनशील उपकरणों व मीडिया के कारण हमें पता ज्यादा चल रहा हो?
संता – क्या मतलब?
बंता – अन्य आपदाओं का तो भाई पता नहीं, पर दुनिया भर के भूकम्प के आकड़े तो यही बताते हैं कि इनके आने कि आवृति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुवा हैं।
पहले भी एक साल में औसतन उतने ही भूकम्प आते थे, जितने कि अब आ रहे हैं।
संता – पर भाई, 1991 के पहले और बाद के आकड़े भी तो देखो ना?
बंता – यह कुछ-कुछ 2004 की हिंद महासागर सूनामी की ही तरह हैं।
उससे पहले किसी को कोई अन्दाजा नहीं था कि हमारा देश भी सूनामी से प्रभावित हो सकता हैं, पर उसके बाद किये गये शोध व अध्ययन के आधार पर आज हमें पता हैं कि हमारा क्षेत्र पहले भी सूनामी से प्रभावित हुवा था।
साथ ही हमने सूनामी के प्रति उच्च घातकता वाले क्षेत्रों का चिन्हांकन भी कर लिया हैं। फिर आज हम हिंद महासागर क्षेत्र में आये भूकम्प के कारण सम्भावित सूनामी की चेतावनी दे सकने में भी सक्षम हो गये हैं।
संता – तुम्हारा मतलब कि यहाँ भूकम्प 1991 से पहले भी आते रहे हैं।
बंता – सच कहो तो लम्बे समय के बाद आना ही भूकम्प से जुड़ी सबसे बड़ी परेशानी हैं – लोगो को याद ही नहीं होता हैं कि उनके क्षेत्र में पहले भी भूकम्प आ चुका हैं, और वह भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र में रहते हैं।
ज्यादातर स्थितियों में यही भूकम्प सुरक्षा सम्बन्धित पक्षों की उपेक्षा का एक बड़ा कारण हैं।
संता – लम्बे समय के बाद आता हैं, वो तो ठीक हैं, पर 20 अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प से पहले का कोई भूकम्प कम से कम मुझे तो याद नहीं हैं।
उसके बाद के कहो तो मैं सारे के सारे गिना सकता हूँ;
और उसके बाद
अभी हाल 25 अप्रैल 2015 को गोरखा
तो 12 मई 2015 को ढोलखा भूकम्प।
बंता – वैसे यह तो मानना पड़ेगा कि पीछे आये भूकम्पों के बारे में तुम्हे काफी अच्छी जानकारी हैं।
अब वो दूसरी बात हैं कि ज्यादातर लोगो की तरह तुम्हे भी 1991 से पहले आये भूकम्पों के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं हैं।
वैसे भूकम्प तो पहले भी आये ही होंगे, और फिर 1 सितम्बर 1803 के गढ़वाल भूकम्प के बारे में कुछ न कुछ तो तुम भी जानते ही होंगे?
संता – 1803 का गढ़वाल भूकम्प?
बंता – चौक क्यों रहे हो?
1 सितम्बर 1803 को यहाँ गढ़वाल क्षेत्र में काफी बड़ा भूकम्प आया था, और उस भूकम्प में यहाँ गढ़वाल तो छोड़ो दूर दिल्ली, लखनऊ, आगरा, व अलीगढ़ तक नुकसान हुवा था।
संता – तो बीच के रूड़की, मुज़फ्फरनगर, मेरठ आदि अन्य जगहों का क्या?
जब दिल्ली में नुकसान हुवा था, तो फिर बीच की इन सब और दूसरी जगहो में भी तो नुकसान हुवा होगा?
बंता – अब आपदा में हुवे नुकसान का लेखा-जोखा रखने के कोई परम्परा तो थी नहीं हमारे यहाँ।
सो जहाँ-जहाँ पर उस समय अंग्रेज थे, उन्होंने जो नुकसान का ब्यौरा लिखा हैं, वही हमें पता हैं।
जैसा तुम कह रहे हो नुकसान तो बाकी जगहों में भी हुवा होगा, पर उसकी हमारे पास कोई जानकारी नहीं हैं।
संता – तो क्या गढ़वाल क्षेत्र में हुवे नुकसान का ब्यौरा भी अंग्रेजो ने ही तैयार किया था?
बंता – एकदम ठीक समझा तुमने।
भूकम्प के बाद 1807-08 में कैप्टन एफ. वी. रैपर ने गंगा के स्त्रोत की तलाश में हरिद्वार से गंगोत्री तक का दौरा किया था।
भ्रमण से सम्बन्धित आख्या में इस भूकम्प में क्षतिग्रस्त अवसंरचनाओं का विवरण भी मिलता हैं।
कैप्टन रैपर ने श्रीनगर में राजा के महल के साथ ही अधिकांश दो मंजिला पत्थर से बने भवनों के क्षतिग्रस्त होने के बारे में लिखा हैं।
1803 के भूकम्प में हुयी क्षति को उनके द्वारा उत्तरकाशी में सर्वाधिक बताया गया हैं और उन्होंने वहाँ पर 200 – 300 व्यक्तियों के मारे जाने का भी जिक्र किया हैं।
संता – तो और जगहों के बारे में भी इस प्रकार के दस्तावेज है क्या?
बंता – इसी तरह लन्दन से 1806 में प्रकाशित 1804 के Asiatic Annual Register में मथुरा में कई पक्के भवनों के साथ-साथ ग्यारहवीं शताब्दी की मुख्य मस्जिद के क्षतिग्रस्त होने, जमीन में दरारें पड़ने व पानी निकलने तथा एक महिला नूरुल निसा बल्गाम के मारे जाने का उल्लेख मिलता हैं।
ऐसे ही कुछ जगहों पर इस भूकम्प से मन्दिरों के क्षतिग्रस्त होने के उल्लेख के साथ ही गढ़वाल भूकम्प के बाद कुछ मन्दिरों की मरम्मत से जुड़े अभिलेख भी मिलते हैं। सो माना जाता हैं कि इन मन्दिरों को भी गढ़वाल भूकम्प से क्षति हुयी होगी।
संता – मन्दिरों से जुड़े अभिलेख – इनमे तो अंग्रेजो का कोई हाथ नहीं होना चाहिये। इन्हें तो यह तो मरम्मत के लिये दान देने वालो से सम्बन्धित होने चाहिये?
बंता – वैसे तो कैप्टन रैपर ने भी कुछ मन्दिरो के क्षतिग्रस्त होने के बारे में लिखा हैं, पर ज्यादातर मन्दिरो को हुयी क्षति के बारे में हम दानदाताओं के शिलालेखों व मन्दिर से जुड़े अन्य अभिलेखों से ही जानते हैं।
संता – वैसे परिमाण क्या था इस भूकम्प का?
बंता – अब उस समय परिमाण के आंकलन के लिये उपकरण तो थे नहीं।
सो भूकम्प के प्रभावों का जो उपलब्ध विवरण हैं, उसी के आधार पर तैयार किये गये गढ़वाल भूकम्प के Isoseismal Map से ही इस भूकम्प के अभिकेन्द्र व परिमाण के बारे में कयास लगाये जाते हैं। अभिकेन्द्र उत्तरकाशी व श्रीनगर के पास और परिमाण रिक्टर स्केल पर 7.5 व 8.0 के बीच माना जाता हैं।
संता – और 1803 से पहले के भूकम्प?
बंता – 6 जून 1505 को आगरा में भूकम्प के झटके महसूस किये जाने का उल्लेख बाबरनामा व अकबरनामा दोनों ही में मिलता हैं। साथ ही मृगनयनी में 1505 में आये भूकम्प से धौलपुर, ग्वालियर व माण्डू में संरचनाओं के क्षति होने का जिक्र हैं।
पर 1505 के इस भूकम्प से दिल्ली में क्षति होने के कोई अभिलेख नहीं मिलते हैं। सो इस भूकम्प के अभिकेन्द्र को ले कर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं – कुछ तिब्बत में तो कुछ काबुल में मानते हैं।
संता – तो तुम्हारा कहना हैं कि 1803 के बाद सीधे 1991?
बंता – मेरे कहने का मतलब हैं कि 1803 के बाद से यहाँ कोई बड़ा भूकम्प नहीं आया हैं।
संता – तो क्या उत्तरकाशी और चमोली भूकम्प बड़े नहीं थे?
बंता – बड़े का मतलब, ऐसा भूकम्प जिसका परिमाण रिक्टर स्केल पर 8.0 के आसपास हो।
संता – उससे क्या फर्क पड़ता हैं?
बंता – अब ऐसा है कि परिमाण नापने वाला यह रिक्टर स्केल ना लघुगड़कीय या logarthimic हैं।
भूकम्प के सन्दर्भ में देखे तो परिमाण में एक इकाई कि वृद्धि होने पर तरंगो का आयाम 10 गुना और अवमुक्त हुयी ऊर्जा का परिमाण लगभग 33 गुना बढ़ जाता हैं।
संता – मतलब कि 8.0 परिमाण के भूकम्प में 6.0 परिमाण के भूकम्प की अपेक्षा 1000 गुना ज्यादा ऊर्जा अवमुक्त होती हैं।
बंता – रिक्टर स्केल का सच जानने के बाद, तुम उत्तरकाशी और चमोली भूकम्पों से तुलना कर के गढ़वाल भूकम्प की ताकत को अच्छे से समझ सकते हो।
संता – उत्तरकाशी का परिमाण था 6.8। तो 7.5 – 8.0 परिमाण के गढ़वाल भूकम्प में उत्तरकाशी भूकम्प की तुलना में 16 से 64 गुना अधिक ऊर्जा अवमुक्त हुयी होगी।
बंता – और चमोली भूकम्प का परिमाण था मात्र 6.4। ऐसे में गढ़वाल भूकम्प में चमोली भूकम्प की तुलना में 64 से 256 गुना अधिक ऊर्जा अवमुक्त हुयी होगी।
संता – तब तो सच में काफी बड़ा था गढ़वाल भूकम्प; तभी तो दिल्ली – आगरा तक नुकसान हुवा था।
बंता – वही तो मैं कह रहा था कि हमारे क्षेत्र में 1803 के बाद से कोई भी बड़ा भूकम्प नहीं आया हैं।
हमारे पूर्व में 15 जनवरी 1934 को बिहार – नेपाल सीमा, पर तो उसके बाद अभी हाल 25 अप्रैल 2015 को गोरखा में तो 12 मई 2015 को ढोलखा में इस तरह के बड़े भूकम्प आ चुके हैं।
इसी तरह हमारे पश्चिम में भी 4 अप्रैल 1904 को कांगड़ा में इसी तरह का बड़ा भूकम्प आ चुका हैं।
संता – फिर बीच में हम क्यों छूट गये?
बंता – यहाँ अभी इस तरह का बड़ा भूकम्प आना बाकी जो हैं?
और तभी तो इस क्षेत्र को वैज्ञानिक Seismic Gap Zone कहते हैं।
संता – अब ये Seismic Gap Zone क्या बला हैं?
बंता – ऐसा क्षेत्र जहाँ लम्बे समय से tectonic गतिविधियों के कारण निरन्तरता में जमा हो रही ऊर्जा का निस्तारण नहीं हुवा हैं और ऐसे क्षेत्रों में निकट भविष्य में भूकम्प आने की प्रबल सम्भावना हैं।
संता- भाई डरा क्यों रहे हो?
बंता – डरा नहीं रहा हूँ, सच बता रहा हूँ ताकि तुम उस भूकम्प का सामना करने के लिये तैयार रहो।
संता- अब भूकम्प की क्या तैयारी करनी हैं?
बंता – भाई भूकम्प सच में किसी को नहीं मारता – सारे के सारे लोग संरचनाओं के क्षतिग्रस्त व ध्वस्त होने के कारण ही घायल होते हैं या फिर मारे जाते हैं।
संता – ऐसे में यदि संरचनाये क्षतिग्रस्त या ध्वस्त ही ना हो, तो भूकम्प में कोई मानव या अन्य क्षति हो ही नहीं।
बंता – इसीलिये तो कहता हूँ कि भविष्य में बनने वाली सभी संरचनाओं में भूकम्प सुरक्षित निर्माण तकनीक का उपयोग किया जाये और साथ ही पहले से बनी संरचनाओं को धीरे-धीरे सुदृढ़ीकरण के द्वारा भूकम्प सुरक्षित बनाया जाये।
और साथ ही हर किसी को पता हो कि भूकम्प सुरक्षा के लिए क्या करना हैं, क्या नहीं करना हैं।
संता – अगर चेतावनी भी मिल जाये तो?
बंता – वो तो मैं भूल ही गया था।
वैसे तो भूकम्प की चेतावनी नहीं दी जा सकती है पर भूकम्प आ जाने के बाद व झटके महसूस होने से कुछ पहले चेतावनी मिल पाना सम्भव हैं और यह चेतावनी भूकम्प में उत्पन्न होने वाली तरंगो की गति के अन्तर के आधार पर दी जाती हैं।
संता – देता कौन हैं यह चेतावनी?
बंता – उत्तराखण्ड राज्य के द्वारा इस प्रकार की चेतावनी के लिये एक तंत्र स्थापित किया गया हैं और साथ ही चेतावनी पाने के लिये
( This Santa Banta debate on Earth quake is borrowed from Risk Prevention Mitigation and Management Forum with Thanks- Editor)