दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से दो वृत चित्र फ़िल्मों ‘ नाइट हॉक्स’ ‘सिटीज ऑफ स्लीप’ का प्रदर्शन
–uttarakhandhimalaya.in —
देहरादून, 8 जुलाई। दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर में शनिवार, 8 जुलाई की शाम को उमा देवी तुनुक द्वारा निर्देशित ‘ नाइट हॉक्स तथा शौनक सेन द्वारा निर्देशित ‘सिटीज़ ऑफ स्लीप’ फिल्में दर्शकों को दिखाई गयीं। फ़िल्म प्रदर्शन के क्रम में विगत एक-दो माह से दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की पहल पर हर पखवाड़े के एक शनिवार को सामाजिक मुद्दों पर आधारित बेहतरीन फिल्म प्रदर्शित की जा रही हैं।
नाइट हॉक्स :
नाइट हॉक्स महानगर में रात के दौरान जीवन की उथल-पुथल को देखता है। उमा तनुकु की एक घंटे से भी कम लंबी यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म, दिल्ली की क्रूर रातों पर वहां के उपनगरों पर एक दृश्य अध्ययन है। एक अत्यधिक बोझ वाला शहर जो आश्रय स्थलों में रहने वाले छोटे बच्चों को बचाने का जोखिम नहीं उठा सकता है। यह उन लोगों पर आधारित फिल्म है जिन्हें भारत के बाजार खुलने के लाभ का मौका दिया गया है। हेल्पेज इंडिया के स्वयंसेवक फुटपाथ पर बेघर लोगों के पास जाते हैं, उन्हें मुफ्त कंबल प्रदान करते हैं और इनके बचपन की दुनिया में कुछ नई आशाओं को जगाने का प्रयास करते हैं। फिल्म के दर्शकों को कुछ न कुछ अनुभव होगा कि इस तरह के वंचित बच्चों का एक बेहतरीन भविष्य बनाया जा सकता है। यह फिल्म पीएसबीटी की सहायता से बनाई गई थी।
सिटीज ऑफ स्लीप :
सिटीज ऑफ स्लीप हमें विद्रोही स्लीपर समुदाय के साथ-साथ दिल्ली के कुख्यात स्लीप माफिया की एक मादक दुनिया में ले जाती है, जहां एक सुरक्षित शयन स्थल हासिल करना अक्सर बड़ी संख्या में लोगों के लिए जीवन और मृत्यु का सवाल बन जाता है। फिल्म दो व्यक्तियों, शकील और रंजीत के जीवन पर आधारित है। शकील, एक बेघर स्लीपर है जो पिछले 7 वर्षों से सब वे, पार्क, बेंच के नीचे, पार्किंग स्थल, परित्यक्त कारों और स्लीप माफिया द्वारा नियंत्रित जगहों में सो रहा होता है। यह फिल्म सुरक्षित शयन स्थल के तलाश में उसके प्रयासों को दर्शाती है जब उस समय दिल्ली में जाड़ों की जबरदस्त बारिश होने लगती है।
रंजीत दिल्ली के लोहा पुल जो कि यमुना नदी के किनारे पर बना एक विशाल दो मंजिला लोहे का पुल है उसमें ं‘स्लीप-सिनेमा‘ समुदाय चलाता है।पुल के नीचे के जमीन की एक पतली पट्टी में झुग्गी-झोपड़ी वाली जगह है, जहां 400 से अधिक बेघर लोग आते हैं और सामान्य कीमत चुकता कर सो जाते हैं। हर मानसून में यमुना नदी में बाढ़ आने से वहां सोने वाले लोगों के लिए खतरा पैदा हो जाता है।
यह फिल्म न केवल शहर, महानगरों के बेघर परिवारों की नींद पर जबरदस्त सामाजिक और राजनीतिक दबाव को देखती है अपितु, नींद का एक दार्शनिक अन्वेषण भी प्रस्तुत करती है।
फिल्म निर्देशकों के बारे में ;
इन फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद लोगों के समक्ष चर्चा भी हुई । इस दौरान उपस्थित लोगों ने फ़िल्म से जुड़े अनेक सवाल जबाब भी किये। इन लघु फ़िल्मों के प्रदर्शन के समय निकोलस हॉफलैण्ड, समदर्शी बड़थ्वाल, हिमांशु आहूजा,सुंदर एस बिष्ट, अजय शर्मा, विनोद सकलानी, अरुण असफल, चन्द्रशेखर तिवारी और फ़िल्म प्रेमी,फ़िल्म जगत से जुड़े कलाकार,रंकर्मी सहित साहित्यकार,युवा पाठक आदि मौजूद रहे।