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” मणिपुर का पाप”

 

-ओम प्रकाश, लखनऊ

निष्ठाओं के ऋण में डूबी
राजसभा जब मूक हो गयी
सत्ताधीशो! फिर कलयुग में
द्वापर जैसी चूक हो गयी ?

क्योंकर चुप थे सभी पुरोधा
क्या तरकश में तीर नहीं थे ?
वस्त्र हरण होती अबला के
रक्षण को शमशीर नहीं थे

तुम सब द्यूत सभा के हारे
वेबस पाण्डु तनय दिखते हो
लोकतंत्र का स्वाँग रचाते
वोटों की खातिर बिकते हो

आह!बेटियों की लेकर जो
सिंहासन का सुख चाहोगे
द्रुपद सुता का शाप न भूलो
युग-युग तक अपयश पाओगे

मन करता है आग लगा दूँ
राजमहल की कायरता को
उस राजा का मरना अच्छा
बचा न पाये जो दुहिता को

सौ से बार मरा होगा वो
बेबस बाप अभागा मन में
लाज उतारी गयी सुता की
जिसके जीते जी जीवन में

कैसे बने दरिन्दे मानव
कैसी उनकी भूख हो गयी ?
तार तार होती मानवता
उर अन्तर की हूक रो गयी

निष्ठाओं के ऋण में डूबी
राजसभा जब मूक हो गयी
सत्ताधीशो! फिर कलयुग में
द्वापर जैसी चूक हो गयी

( गोविंद प्रसाद बहुगुणा जी के सौजन्य से ओम प्रकाश , लखनऊ की कविता साभार) 

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