कभी कभी पीड़ा भी पहुंचाते हैं सरकार के पुरस्कार
— दिनेश शास्त्री —
वर्ष 2023 के पद्म पुरस्कारों की सूची में उत्तराखंड को जगह नहीं मिल पाई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ और इस दृष्टि के इसमें अफसोस का कोई कारण नहीं है लेकिन उत्तराखंड के भावनात्मक रूप से सबल वर्ग को इस बार के पद्म पुरस्कारों की घोषणा से कष्ट जरूर हुआ है
गौरतलब है कि गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर 2023 के पद्म पुरस्कार विजेताओं के नाम घोषित किए गए थे। आपको याद होगा पद्म पुरस्कार तीन श्रेणियों में दिए जाते हैं। पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री। इस वर्ष 106 पद्म पुरस्कार विजेताओं के नामों की घोषणा की गई है। जिसमें छह पद्म विभूषण, नौ पद्म भूषण और 91 पद्मश्री शामिल हैं।
पिछले वर्ष उत्तराखंड के चार लोगों को पद्म पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उनमें जनरल बिपिन रावत को मरणोपरांत पद्म विभूषण तथा माधुरी बड़थ्वाल, बसंती देवी और वंदना कटारिया को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। इस बार भारत सरकार को कोई ऐसा व्यक्तित्व उत्तराखंड से नहीं दिखा जो इन पुरस्कारों के योग्य हो लेकिन एक ऐसे व्यक्तित्व को जरूर अलंकृत करने की घोषणा जरूर हो गई, जिसके कारण लोगों के जख्म गहरे जरूर हो गए हैं।
सूची में वह नाम रामपुर तिराहा के कभी न भरने वाले घावों को रह रह कर कुरेद देता है। पुरस्कार चयन के अपने मानक होते हैं। उन पर कोई सवाल उठाना उचित नहीं होता लेकिन जब देश में बहुत सारे मुद्दे भावनात्मक आधार पर तय होते हैं तो तब जरूर समाज के संवेदनशील लोगों को पीड़ा पहुंचती है। पद्म पुरस्कार पाने वालों की सूची में इस वर्ष 19 महिलाएं भी हैं। इसमें लेखिका सुमन मूर्ति, सुधा कल्याणम और अभिनेत्री रवीना टंडन भी है लेकिन पद्म विभूषण की श्रेणी के सिर्फ और सिर्फ एक नाम ने व्यथित जरूर किया है।
आपके मन में भी यह सवाल जरूर कौंध रहा होगा। बहुत संभव है गहरे जख्मों को वक्त के मरहम के हवाले करने की मनोवृत्ति कुछ लोग अपना लें, लेकिन जिस मातृशक्ति का सत्ता के मद में अपमान हुआ, क्या वह क्षम्य हो सकता है?
मुजफ्फरनगर कांड के जख्मों को राजनीति करने वाले लोग बेशक भुला दें, लेकिन जिन्होंने वह दंश झेला है उनके दिल का हाल भी तो जानना चाहिए।
थोड़ा हट कर बात करें तो एक और पहलू है। केंद्र की राजग सरकार बहुत संभव है सोशल इंजीनियरिंग की नई बिसात बिछाने के लिए इस तरह के निर्णय पर पहुंची हो लेकिन क्या निर्दोष रामभक्तों पर गोलियां बरसा कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाने वाले को आम लोग सिर आंख पर बिठाएंगे? इसका निर्णय होने में अब महज चौदह पंद्रह महीने ही बाकी हैं। कार सेवकों के खून से सड़कें किसने लाल की थी? यह सब जानते हैं। एक वर्ग विशेष का राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए राजनेता किस हद तक उतर सकते हैं, यह इस तरह की घटनाओं से सिद्ध होता रहा है।
कहना न होगा कि इस बार के पद्म पुरस्कारों की घोषणा में सिर्फ और सिर्फ एक नाम का फलितार्थ यह भी हो सकता है कि अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने के बजाय सत्ता प्रतिष्ठान ने कुल्हाड़ी पर ही पैर मार लिया है। हालांकि अब एक वर्ग बोल रहा है कि उस महान नेता का कद पद्म विभूषण देकर छोटा किया गया है, उन्हें तो भारत रत्न दिया जाना चाहिए था। उससे बड़ा कोई और पुरस्कार है नहीं, वरना उसकी ही मांग होती लेकिन जिन लोगों को जिंदगीभर की पीड़ा मिली, उनकी कौन सुनेगा। चाहे वे कार सेवा में मरने वाले हों या रामपुर तिराहा पर अस्मत गंवाने वाले। गोलीकांड में शहीद होने वालों की तो बात ही नहीं हो रही।
निसंदेह उत्तराखंड की आबादी के एक बड़े वर्ग को रामपुर तिराहा की उस काली रात का अहसास नहीं है। आबादी के एक बड़े वर्ग ने रामपुर तिराहा कांड के बाद ही आंख खोली है, इसलिए उन्हें अहसास हो भी नहीं सकता लेकिन जिन्होंने भोगा है, उनके निरंतर रिसते घावों पर मरहम कौन लगाएगा। रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा दिलाने में अपनी पिछली 22 साल की सरकारें नाकाम ही नहीं रही बल्कि बेपरवाह भी रही हैं। यह स्थिति ठीक कश्मीरी पंडितों की पीड़ा की तरह है। यह पहला मौका है जबपद्म पुरस्कार के कारण उत्तराखंडी समाज के जख्म कुछ ज्यादा ही गहरे हो गए हैं।