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धार्मिक बयानबाजी पर सुप्रीम कोर्ट

अजय दीक्षित
सर्वोच्च अदालत में एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की थी कि नफरती भाषण और बयानबाजी दिए जा रहे हैं, क्योंकि राज्य नपुंसक हैं। राज्य शक्तिहीन हैं। राज्य वक्त पर कार्रवाई नहीं करते। ऐसे नफरती बोल उसी क्षण रुक सकते हैं, जब राजनीति और धर्म को अलग-अलग कर दिया जाए। जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना ने सवाल उठाया है कि आखिर हमें ऐसा राज्य क्यों चाहिए, जब सब कुछ नफरती हो रहा है?’ हालांकि न्यायाधीश की ‘नपुंसक’ वाली उपमा अतिरेकपूर्ण है। कमोबेश लोकतांत्रिक नहीं है। वह राज्य को कमज़ोर, अक्षम, अप्रभावी, अनिर्णायक आदि कुछ भी कह सकते थे, लेकिन ‘नपुंसक’ के मायने हैं कि परोक्ष रूप से देश की जनता जिम्मेदार है, क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही अपनी सरकार चुनती है। नफरती बयानबाजी दो पक्षों के बीच अधिक है। एक लगातार ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने को लोगों को उकसा रहा है। लाखों की भीड़ जुटाई जा रही है। दूसरा पक्ष ऐसा है, जो ‘सरकलम’ तक करने को उन्मादित है। सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि समुदायों की ओर से नफरत के बोल अपवाद ही हो सकते हैं। हाल ही में रामनवमी के दिन जुलूस पर कई राज्यों में पथराव किया गया, हिंसा और आगजनी तक की गई। ऐसा बार- बार होता है, क्योंकि इनके मूल में ‘नफरत’ है। न्यायिक पीठ के सामने भारत सरकार के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केन्द्र सरकार नहीं, केरल सरकार खामोश है। मई, 2022 में पीएफआई ने एक रैली के दौरान आह्नान किए कि हिंदुओं और ईसाइयों के नरसंहार कर दो। बेशक आज इस संगठन पर भारत सरकार की पाबंदी है, लेकिन ऐसे भडकाऊ और हत्यारे बयान आज भी फिजाओं में हैं।

द्रमुक पार्टी के एक प्रवक्ता का बयान भी उद्धृत किया गया, जिसमें कहा गया था कि यदि तुम्हें समानता चाहिए, तो सारे ब्राह्मणों की हत्या कर दो।’ संदर्भ पेरियार का था। दरअसल ये नफरत ही नहीं, हिंसा और हत्या की पराकाष्ठा के बयान हैं। ऐसे बयानों पर अदालतों ने कभी स्वत: संज्ञान नहीं लिया, यह एक बेहद गंभीर सवाल है। अरस्तु चाणक्य से लेकर डॉ. राममनोहर लोहिया तक ने माना है कि धर्म और राजनीति परस्पर पूरक हैं, लिहाजा दोनों को अलग करना नफरती सियासत का कोई समाधान नहीं है। ‘राम मंदिर’ के मुद्दे पर जो माहौल बना, उसके मद्देनजर राजनीति दो फाड़ हो गई साम्प्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष। ऐसी राजनीति 1989 के बाद से आज तक जारी है। ‘नफरती सियासत’ का आगाज नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से हुआ, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष और मुस्लिमवादी दल आज भी उन्हें 2002 के गोधरा सांप्रदायिक दंगों का ‘खलनायक’ मानते हैं। हिन्दू- मुसलमान के दोफाड़ पर हमने कई सांप्रदायिक दंगों की बर्बरता भी देखी है, लेकिन राज्य ‘नपुंसक’ इसलिए करार दिये जा सकते हैं, क्योंकि नफरती बयानों में धर्म का पुट भी होता है।

इस संदर्भ में दिसम्बर, 2021 में हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म संसद’ याद आती है। उसके दौरान इस्लाम और मुसलमान को ही निशाना बनाया। कुछ साधु-संतों ने कहा कि हिन्दू या तो मरने के लिए तैयार रहें अथवा मारने के लिए।’ हथियार धारण करने तक के आह्वान किए गए। दूसरी तरफ कुछ आतंकवादी चेहरों ने हिन्दुओं के ‘सरकलम’ तक कर दिए और धमकियां अब भी जारी हैं। ओवैसी, मदनी, रज़ा, बर्क सरीखे मुस्लिम नेताओं और मौलाना मुल्लाओं ने ‘हिन्दूवाद’ की राजनीति के ‘तल्ख और भडक़ाऊ’ जवाब दिए हैं। चूंकि सरकारें कोई दंडात्मक या कारगर कार्रवाई नही कर पातीं, लिहाजा न्यायाधीश ने राज्य को ‘नपुंसक’ ही करार दे दिया है । भारत में मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल, राम राज्य परिषद और हिन्दू महासभा आदि ऐसे राजनीतिक दल आज भी सक्रिय हैं, बाकायदा चुनाव लड़ते हैं, आयोग में पंजीकृत हैं, जो पूर्णत: धर्म और सांप्रदायिकता के विघटनकारी आधार पर खड़े हैं । हालांकि 1976 में संविधान में 42वां संशोधन पारित कर भारत को ‘पंथनिरपेक्ष’ राज्य घोषित किया गया। फिर भी धर्म आधारित दल मौजूद हैं। पंजाब और नागालैंड में धर्म के आधार पर विभाजन हुआ ।

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