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भारत छोड़ो आन्दोलन को लेकर टिहरी की राजशाही भी हो गयी थी चौकन्नी


-जयसिंह रावत
क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा छेड़े गये ’भारत छोड़ो आन्दोलन’ या ’अगस्त क्रान्ति’, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की अन्तिम सबसे बड़ी निर्णायक लड़ाई थी, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। 9 अगस्त 1942 से शुरू हुये इस जनांदोलन में लाखों भारतवासियों ने भाग लिया। देश में भावी राजनीतिक और संवैधानिक परिवर्तनों को अवश्यंभावी मानकर राष्ट्रीय नेता देश की भावी सत्ता और देशी रियासतों के सम्बन्धों को लेकर भी काफी सजग हो गये थे। वैसे भी कांग्रेस कैबिनेट मिशन के उस प्रस्ताव को ठुकरा चुकी थी जिसमें कहा गया था कि देशी रियासतों ने अपनी जो सर्वोपरिता (पैरामौंटसी) ब्रिटिश सम्राट को सौंपी थी वह ब्रिटिश शासन समाप्त होते ही देशी रियासतों के शासकों को वापस मिल जायेगी। कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के विपरीत जवाहरलाल नेहरू पहले ही स्पष्ट कर चुके थे कि देशी राज्यों के भाग्य का फैसला वहां के शासक नहीं बल्कि प्रजा करेगी। यही नहीं नेहरू ने साफ शब्दों में चेतावनी दे दी थी कि किसी राष्ट्र द्वारा भारत की इन रियासतों से सीधे सम्बन्ध स्थापित किया जाना शत्रुतापूर्ण कार्यवाही मानी जायेगी। इसलिये पहली बार कांग्रेस ने राष्ट्रीय आन्दोलन के निर्णायक मोड़ पर ’भारत छोड़ो आन्दोलन’ या ’सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ का आह्वान ब्रिटिश भारत के साथ ही देशी रियासतों की प्रजा के लिये भी किया था।


हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग अगस्त क्रांति के विरुद्ध थे

भारत छोड़ो आन्दोलन का मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने विरोध किया था। कम्युनिस्ट भी सोबियत संघ के कारण आन्दोलन से बाहर रहे। जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इस आन्दोलन के विरोध में थे। भले ही जवाहरलाल नेहरू ने पहली अन्तरिम सरकार में उन्हें मंत्री बनाया था। हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग की तरह, यह मानती थी कि हिंदू और मुसलमान दो अलग और विरोधी राष्ट्र हैं। हिंदू महासभा हिंदुओं के लिए हिंदी बोलने वाला देश चाहती थी। जबकि मुस्लिम लीग उर्दू भाषी मुसलमानों का देश चाहती थी। मुस्लिम लीग ने 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित केया था लेकिन उससे तीन साल पहले 1937 में दमोदर सावरकर ने अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के सत्र के दौरान अपने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दुओं के लिये अलग राष्ट्र का विचार रख दिया था।

टिहरी के बाहर पढ़ने गये युवा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय थे

यद्यपि इस आन्दोलन का असर टिहरी राज्य में उत्साहवर्धक तो नहीं रहा, मगर फिर भी इसे पूर्णतः बेअसर नहीं कहा जा सकता है। इस आन्दोलन ने देश में युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। उन्हीं आन्दोलनकारियों में टिहरी का छात्र परिपूर्णानन्द भी था जो कि पहले बनारस में और फिर मेरठ में पुलिस द्वारा पकड़ा गया। इसी तरह टिहरीवासी क्रांतिकारी इन्द्रसिंह भी राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल था। उस क्रांतिकारी की भी हमारे इतिहासकारों ने ढूंड खोज करने की कभी कोशिश नहीं की। वास्तव में टिहरी निवासी जो लोग लाहौर, दिल्ली और बम्बई आदि नगरों में पढ़ने या रोजगार के लिये जाते थे वे न केवल जागरूक हो कर बल्कि राष्ट्रीय स्वाधीनता की भावना से ओतप्रोत हो कर लौटते थे। चूंकि 1919 एवं 1935 के अधिनियमों के तहत ब्रिटिश इंडिया के नागरिकों को कुछ राजनीतिक अधिकार मिलने के साथ ही प्रशासन में उनके प्रतिनिधित्व की शुरुआत हो गयी थी, इसलिये टिहरी से बाहर घूम कर आने वाले ये जागरूक युवा भी राज्य की प्रजा के लिये इसी तरह के अधिकारों की कामना लेकर टिहरी लौटते थे। वही जागरूक लोग आन्दोलन की चिन्गारियों अपने साथ लेकर आते थे। उन्हीं युवाओं में एक श्रीदेव सुमन भी थे।


राजदरबार ब्रिटिश शासन के अधीन था

जब देशभर में भारत छोड़ो आन्दोलन भड़क उठा था तो टिहरी का राजदरबार भी अंग्रेजों के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने के लिये इस आन्दोलन के दौरान पूरी तरह सतर्क हो गया था। उसका खुफिया तंत्र खास कर ब्रिटिश गढ़वाल और देहरादून से लगे हुये राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में चौंकसी कर रहा था। राजशाही यह साबित करना चाहती थी कि जिस तरह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम का असर पहाड़ों में और खास कर टिहरी राज्य में नहीं हुआ उसी तरह यह आन्दोलन भी टिहरी में बेअसर हो गया। लेकिन आजादी की चाह लोगों के दिलोदिमाग में कहां खामोश रहने वाली थी!

टिहरी ने इन्द्रसिंह और पैन्यूली जैसे क्रांतिकारी दिये

हालांकि टिहरी के क्रांतिकारी इन्द्र सिंह अपनी गतिविधियों के कारण काफी पहले ही देश की विभिन्न जेलों की यात्राएं कर चुके थे। फिर भी अगर भारत छोड़ो आन्दोलन की बात की जाय तो टिहरी में इस आन्दोलन के तहत पहली गिरफ्तारी श्रीदेव सुमन की ही थी। टिहरी से बाहर बनारस और मेरठ में परिपूर्णानन्द पैन्यूली नाम का छात्र क्रातिकारी गतिविधियों में लिप्त हो चुका था। भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो श्रीदेव सुमन को टिहरी आते समय 29 अगस्त, 1942 को देवप्रयाग में ही गिरफ्तार कर लिया गया। उसी दिन प्रजामण्डल के नेता प्रो0 भगवती प्रसाद पांथरी, शिव प्रसाद पैन्यूली और रघुवीर प्रसाद पैन्यूली को भी गिरफ्तार किया गया। बाद में मसूरी में आनन्द शरण रतूड़ी, श्यामचन्द सिंह नेगी और शंकरदत्त डोभाल को भी गिरफ्तार कर देहरादून जेल भेज दिया गया। उस समय वहां लगभग पचास लोग जेल गये होंगे और इस तरह वहां पहली बार राजनीतिक बंदियों का जेल में प्रवेश शुरू हुआ।

रियासतों के लिये ब्रिटिश राज से संबन्ध तोड़ना आसान नहीं था

भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होते ही ’देशी राज्य लोक परिषद’ ने देशी रियासतों से अपील की थी कि वे औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध तोड़ दें। लेकिन टिहरी जैसी अधिकांश रियासतों के लिये ब्रिटिश सरकार से संबन्ध तोड़ना इतना आसान नहीं था। इधर प्रजामण्डल ने अपने 25-26 अगस्त 1942 की बैठक में रियासत में एक उत्तरदायी शासन की स्थापना और बराबेगार, प्रभुसेवा और पोण्टोटी जैसे करों को समाप्त करने की मांग उठा कर ’भारत छोड़ो आन्दोलन’ का स्वदेशी संस्करण शुरू कर दिया।


मुनि की रेती के आन्दोलनकारी जो गुमनाम हो गये

’भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान देहरादून जिले के ऋषिकेश नगर से जुड़े मुनी-की-रेती में “करो या मरो” के नारे वाले भड़काऊ पर्चों के बंटने से टिहरी राजशाही की पुलिस और उसके खुफिया तंत्र की नींद हराम हो गयी थी। पुलिस ने जब मामले की तह तक जाने का प्रयास किया तो उसे पता चला कि चन्दोला और लक्ष्मण सिंह नाम के दो दुकानदार आजादी के आन्दोलन के पर्चे बांट रहे हैं। इसकी गोपनीय रिपोर्ट टिहरी के पुलिस अधीक्षक सरदार बहादुर ने 7 सितम्बर 1942 को राज्य के चीफ सेक्रेटरी को भेजी और इन दोनों की तत्काल गिरफ्तारी की अनुमति राज्य प्रशासन से मांगी। अपनी रिपोर्ट के साथ पुलिस अधीक्षक ने वह भड़काऊ पर्चा भी भेजा जिसमें “आजादी या मौत” दोनों में से एक का चयन करने के लिये देशवासियों को ललकारा गया था। कुल 17 सूत्रीय इस पर्चे में देशवासियों के लिये स्वयं को आजाद मानने, हड़तालें करने, साम्प्रदायिक विवादों से दूर रहने, लगान न देने, छूआछूत को भगाने और आजादी के आगे आने वाले हर कानून को ठुकराने का आह्वान किया गया था। अपनी रिपोर्ट में इस पुलिस मुखिया ने लिखा कि चन्दोला और लक्ष्मण सिंह द्वारा ये अति आपत्तिजनक पर्च बड़े पैमाने पर बांटे जा रहे हैं जो कि सभी दुकानदारों को बांटे जा चुके हैं। यह कांग्रेस का सुनियोजित कार्यक्रम लग रहा है। रिपोर्ट में कहा गया कि इतने आपत्तिजनक पर्चे आज तक इस क्षेत्र में कभी नहीं बांटे गये थे। इसलिये आगे स्थिति नियंत्रण से बाहर न हो जाय इसलिये इन दोनों को तत्काल गिरफ्तार किये जाने की जरूरत है। बहुत सम्भव है कि इन्होंने कुछ लोगों को पर्चे बांटने के लिये टिहरी भी भेज दिया हो। टिहरी राज्य को कोई हानि न हो, इसलिये यह कार्यवाही करने का सही समय है। अंग्रेजों के प्रति अपनी बफादारी साबित करने के लिये राजदरबार ने चन्दोला और लक्ष्मण सिंह को गिरफ्तार कर लिया। हैरानी का विषय यह है कि भारत छोड़ो आन्दोलन के इन दो वीर सिपाहियों के कारनामों से टिहरी शासन की गोपनीय फाइल ( राज्य अभिलेखागार: क्रम संख्या 34, फाइल संख्या-एफ, केस संख्या -7 मिसलीनियस कान्फीडेंशियल रिपोटर््स) भरी पड़ी है। इन दोनों पर मुकदमा भी चला मगर इनके नाम गुनामी में खो गये।
( यह आलेख लेखक जयसिंह रावत की पुस्तक ‘‘ टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’’ से लिया गया है। पुस्तक के प्रकाशक – कीर्ति नवानी, विन्सर पब्लिशिंग कं0 डिस्पेंसरी रोड, देहरादून हैं। )

 

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