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विधानसभा का अंतिम सत्र भी गया मगर सौ दिनों में आने वाला लोकायुक्त नहीं आया

सार :–

  • लोकायुक्त है नहीं फिर भी हर साल करोड़ों का खर्च
  • अब लोकायुक्त को ही गैर जरूरी बताने लगे
  • दूसरी बार भी गर्भ में ही मार डाला लोकायुक्त को
  • भाजपा ने कांग्रेस कार्यकाल के लोकायुक्त की भ्रूण हत्या करायी
  • अन्ना हजारे के आन्दोलन दबाव में लोकायुक्त विधेयक पारित किया था
  • मोरारजी आयोग ने की थी लोकपाल/लोकायुक्त गठन की सिफारिश
  • भूकानून में भूल सुधार का वायदा भी रद्दी की टोकरी में

   –जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड की चौथी विधानसभा के अंतिम सत्र का समापन भी हो गया और सभा के सदस्यों की बड़े भावुक माहौल में विदायी भी हो गयी मगर विधानसभा की आल्मारी में बंद भाजपा के सपनों का आदर्श लोकायुक्त बाहर नहीं निकल सका। जबकि भाजपा ने 2017 के चुनाव में सत्ता में आने के 100 दिनों के अंदर एक ऐसा आदर्श लोकायुक्त देने का वायदा किया था जो भ्रष्टाचार का सम्पूर्ण विनाश कर सके। भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टॉलरेंस का दंभ भरने वालों ने पहले तो पिछली विधानसभा द्वारा पारित लोकायुक्त कानून को मार डाला और बाद में अपने ही चुनावी सपनों के लोकायुक्त की भ्रूण हत्या कर डाली। वायदा पूरा करना तो रहा दूर अब कह रहे हैं कि उत्तराखण्ड को लोकायुक्त की जरूरत ही नहीं है। अगर जरूरत नहीं है तो लोकायुक्त कार्यलय पर हर साल क्यों करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं? देखा जाय तो प्रदेश की विदा होने जा रही चौथी विधानसभा लोकायुक्त कानून की हत्या और प्रदेश की जमीनों को लुटवाने वाला कानून बनाने के लिये याद की जाती रहेगी।

The much-talked Lokayukta Act of Uttarakhand is trapped in the almirah of state Vidhan Sabha. The last session of the assembly is over now.

भूकानून में भूल सुधार का वायदा भी रद्दी की टोकरी में

विधानसभा चुनावों से पहले पिछली त्रिवेन्द्र सरकार के कारनामों के कारण मिले अपयश के बोझ को हल्का करने के लिये मौजूदा धामी सरकार ने बहुचर्चित चारधाम देवस्थानम् बोर्ड के कानून का तो विधानसभा के अंतिम सत्र में निरसन करा दिया। लेकिन भूमि कानून में हुयी भयंकर गलतियों में सुधार का वायदा सरकार पूरा नहीं कर पायी। सवाल उठना लाजिमी ही है कि अगर मौजूदा सरकार ने पिछली त्रिवेन्द्र सरकार द्वारा अपने भूव्यवसायी मित्रों के हितों के पोषण के लिये जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम के मामले में की गयी छेड़छाड़ को नहीं सुधारना था तो आखिर उस पर विचार के लिये पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में समिति के गठन की आवश्यकता ही क्या थी। अगर अब विधानसभा के अंतिम सत्र के अवसान के बाद वह समिति कोई रिपोर्ट देती भी है तो उसका औचित्य ही क्या रह जाता है? यही स्थिति लोकायुक्त की भी है।

मोरारजी आयोग ने की थी लोकपाल/लोकायुक्त गठन की सिफारिश

शासन प्रशासन और सामाजिक जीवन में सुचिता लाने लाने और भ्रष्टाचार के कलंक को धोने का प्रयास सबसे पहले मोरारजी भाई देसाई की अध्यक्षता में 5 जनवरी 1966 को गठित प्रशासनिक सुधार आयोग के गठन के साथ शुरू हुआ था। बाद में इस आयोग के अध्यक्ष के0 हनुमंथैया बने थे। इसी आयोग ने सार्वजनिक जीवन और शासन प्रशासन में सुचिता लाने के लिये लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी। उसके बाद सरकारें आती रहीं जाती रहीं मगर लोकपाल का गठन नहीं हो पाया। आयोग की सिफारिश में लोकपाल/लोकयुक्त बिल पास हो चुका था मगर उसे राज्यसभा में मंजूरी नहीं मिली। बहरहाल महाराष्ट्र पहला राज्य था जिसने 1971 में अपना लोकायुक्त एक्ट पारित किया। उसके बाद कई अन्य राज्यों ने भी अपने लोकायुक्त कानून बना कर इस संस्था का गठन तो किया मगर उनको पूरे अधिकार नहीं दिये जिस कारण इसे बिना नाखून और बिना दांत का शेर माना गया। उत्तर प्रदेश ने 1975 में लोकायुक्त कानून बना कर संस्था का गठन किया। सन् 2000 में उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद उत्तरांचल का गठन हुआ तो नये राज्य ने भी बिना दांत और नाखूनों वाला लोकायुक्त बना दिया जिसके पहले अध्यक्ष एस.एच.ए. रजा बने जो कि 2008 तक इस पद पर रहे।

अन्ना हजारे के आन्दोलन दबाव में लोकायुक्त विधेयक पारित किया था

अन्ना हजारे के आन्दोलन से प्रभावित होकर उत्तराखण्ड में भी भुवनचन्द्र खण्डूड़ी सरकार के कार्यकाल में उत्तराखण्ड विधानसभा में 1 नवम्बर 2011 को प्रदेश का लोकायुक्त विधेयक पूरे पारित किया था जिसे सालभर बाद राष्ट्रपति की मंजूरी तो मिली लेकिन तब तक उत्तराखण्ड में विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी जिसने इस लोकायुक्त कानून को अव्यवहारिक और असंवैधानिक बता कर उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया था। लेकिन उसी दौरान अन्ना हजारे आन्दोलन के दबाव में संसद ने एक आदर्श लोकपाल कानून के साथ ही राज्यों के लिये मॉडल लोकायुक्त भी पारित कर दिया था। विजय बहुगुणा सरकार ने उस कानून को हूबहू अपना कर विधानसभा से पारित तो करा दिया मगर लागू नहीं किया। देश में सबसे पहले उस कानून को उत्तराखण्ड विधानसभा ने अपनाया था। लेकिन भाजपा संसद द्वारा पारित मॉडल की खिलाफत और खण्डूड़ी वाले लोकायुक्त के पक्ष में राजनीतिक माहौल बनाती रही।

भाजपा ने कांग्रेस कार्यकाल के लोकायुक्त की भ्रूण हत्या करायी

बहरहाल कांग्रेस के कार्यकाल में भी राज्य में नेतृत्व बदला और हरीश रावत मुख्यमंत्री बन गये। उन्होंने विलम्ब से सही मगर लोकायुक्त के गठन की प्रकृया शुरू की। संविधान द्वारा तय प्रकृया के तहत सर्च कमेटी का गठन किया गया और उस कमेटी द्वारा तय पैनल पर विधानसभाध्यक्ष, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि ने लोकायुक्त के अध्यक्ष समेत सभी सदस्यों का सर्व सम्मति से चयन कर नये लोकायुक्त बोर्ड के पैनल को अनुमोदन के लिये राजभवन भेज दिया। इस प्रस्ताव का राजभवन जाना ही था कि भाजपा विधायक मुन्ना सिंह चौहान की आपत्ति पर वही प्रतिपक्ष के नेता अजय भट्ट भाजपा प्रतिनिधि मण्डल को लेकर राजभवन जा पहुंचे और अपने ही चयन को गलत बता कर राज्यपाल से लोकायुक्त पैनल पर हस्ताक्षर न करने के लिये दबाव बनाने लगे। हरीश रावत सरकार ने राज्यपाल को चयन समिति द्वारा तय लोकायुक्त बोर्ड के पैनल को दो बार भेजा मगर उन्होंने भाजपा के दबाव में उस पर हस्ताक्षर नहीं किये। उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव आ गये इसलिये हरीश रावत सरकार राजभवन पर दबाव डालने की स्थिति में भी नहीं रह गयी थी। इस प्रकार देखा जाय तो भाजपा ने लगभग बन चुका लोकायुक्त नहीं बनने दिया और उसकी भ्रूणहत्या कर डाली।

दूसरी बार भी गर्भ में ही मार डाला लोकायुक्त को

विधानसभा के 2017 के चुनाव में भाजपा ने वायदा किया था कि सत्ता में आने के 100 दिन के अंदर उसकी सरकार खण्डूड़ी के कार्यकाल वाले लोकायुक्त का गठन कर लेगी । चुनाव में भाजपा को 57 सीटों का प्रचण्ड बहुमत मिला और त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में सरकार का गठन भी हो गया तो सरकार 100 दिन वाली बात से कन्नी काटने लगी। लेकिन लोकलाज और विपक्ष के दबाव में उसे उसकी पसंद के लोकायुक्त के विधेयक को विधानसभा में पेश करना ही पड़ा। चूंकि प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार के लिये विधेयक पारित कराना बायें हाथ का खेल था, मगर उसकी नीयत साफ नहीं थी, इसलिये विपक्ष द्वारा मांग किये बिना ही सरकार ने स्वयं ही विधेयक को प्रवर समिति के सुपर्द कर दिया। समिति ने समय से अपनी रिपोर्ट भी दे दी मगर त्रिवेन्द्र सरकार ने विधेयक पारित नहीं कराया जबकि 57 विधायकों के के प्रचण्ड बहुमत के बल पर कोई भी विधेयक पास कराना उसके बांये हाथ का काम था। उसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने 3 माह के अंदर लोकायुक्त का गठन करने का आदेश दिया था। कोर्ट के आदेश से बचने के लिये सरकार ने विधेयक विधानसभा के ठण्डे बस्ते में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट सरकार को आदेश तो दे सकता है मगर विधानसभा को कोई आदेश नहीं दे सकता। भाजपा के सपनों का वह आदर्श लोकायुक्त अब भी विधानसभा की आल्मारी में बंद है। अब तो विधानसभा के अंतिम सत्र का भी अवसान हो गया। इस तरह भाजपा ने लोकायुक्त को दो बार मार डाला। इसका जवाब चुनाव में भाजपा को ही देना होगा कि आखिर भाजपा लोकायुक्त से इतना डर क्यों गयी?

अब लोकायुक्त को ही गैर जरूरी बताने लगे

भाजपा ने खण्डूड़ी के लोकायुक्त के नाम पर राजनीति की रोटियां तो खूब सेंकी मगर जब उसे अपनाने की बारी आयी तो उससे भी दगा कर गयी। खण्डूड़ी का लोकायुक्त जब बिन मांगे ही प्रकाश पन्त की अध्यक्षता वाली और भाजपा के बहुमत वाली प्रवर समिति को गया तो  उसने उस विधेयक की कुल 63 धाराओं में से 42 धाराआंे मेें संशोधन की सिफारिश कर डाली। इसमें से 7 धाराओं को हटाने की सिफारिश भी थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट 15 जून 2017 को विधानसभा मेें प्रस्तुत की लेकिन प्रवर समिति की रिपोर्ट आने के बाद भी भाजपा सरकार ने विधेयक को पारित नहीं कराया। हैरानी का विषय तो यह है कि जो भाजपा प्रदेश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिये सत्ता में आने के 100 दिन के अंदर खण्डूड़ी वाला लोकायुक्त गठित करने का वायदा कर सत्ता में आयी थी वह लोकायुक्त को ही गैर जरूरी बताने लगी। अब भाजपा नेताओं का तर्क है कि जब उनकी सरकार में भ्रष्टाचार हुआ ही नहीं ंतो फिर लोकायुक्त की क्या जरूरत है। जबकि प्रदेश मे ंपहली बार हाइकोर्ट को भाजपा के कार्यकाल में एक मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआइ जांच के आदेश देने पड़े।

लोकायुक्त है नहीं फिर भी हर साल करोड़ों का खर्च 

उत्तराखण्ड में लोकायुक्त का पद रिक्त होने के बाद वित्तीय वर्ष 2013-14 से सितम्बर 2020 तक लोकायुक्त कार्यालय पर 13 करोड़ 38 लाख 89 हजार 303 रूपयेे की धनराशि खर्च हो चुकी है। इसमें 2013-14 में 162.05 लाख, 2014-15 में 145.12 लाख, 2015-16 में 113.52 लाख, 2016-17 में 176.89 लाख, 2017-18 में 188.89 लाख, 2018-19 में 213.46 लाख वर्ष 2019-20 में 209.51 लाख तथा 2020-21 में सितम्बर 2020 तक 110.02 लाख की धनराशियां शामिल है।

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