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अप्रैल का महीना जलियांवाला और पेशावर काण्डों का गवाह

-जयसिंह रावत
भारत के इतिहास में अप्रैल का महीना ब्रिटिश राज द्वारा जलियांवाला में हुये नर संहार के लिये काले में पन्नों में दर्ज है तो यही महीना पेशावर में चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके मातहत सैनिकों द्वारा अपने जीवन और नौकरी की परवाह न करते हुये निहत्थे पठानों को बचाने तथा स्वाधीनता आन्दोलन के महायज्ञ में दी गयी आहुति के लिये भी याद रखा जायेगा। भले ही आज पेशावर पाकिस्तान में है मगर गढ़वाली सैनिकों के साहस और जज्बे की मिसाल उस जमीन पर सदैव अक्षुण रहेगी।

अप्रैल महीने की 13 और 23 यादगार तारीखें

प्ंाजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल फ्रांसिस ओ‘ड्वायर और ब्रिगेडियर जनरल (अस्थाई प्रमोशन) रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर द्वारा अमृतसर के स्वर्णमंदिर के निकट स्थित जलियांवाला बाग में किया गया नरसंहार इसी अप्रैल के महीने की 13 तारीख को हुआ था जिसमें सरकारी तौर पर 379 लोगों के मारे जाने और लगभग 1200 के घायल होने की पुष्टि बाद में की गयी मगर स्वतंत्र इतिहासकारों के अनुसार इस क्रूरतम नरसंहार में 500 से अधिक लोग मारे गये, जबकि हजारों अन्य घायल हुये जिनमें लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल फ्रांसिस ओ‘ड्वायर का 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में गोली मार कर वध करने वाला महान क्रांतिकारी उधमसिंह भी शामिल था। सन् 1930 में इसी अप्रैल महीने की 23 तारीख को चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों ने पेशावर में सीमान्त गांधी के नाम से पुकारे जाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल गफ्फार खान के समर्थन में जुटे पठानों पर गोलियां बरसा कर नर संहार करने से साफ इंकार कर दिया था। इस विद्रोह में इन सैनिकों को मृत्यु दण्ड से तो बचा लिया गया मगर विभिन्न जेलों में उन्हें लम्बी सजाएं अवश्य भुगतनी पड़ी।

पटेल कमेटी ने जांच की पेशावर कांड की

23 अप्रैल, 1930 के पेशावर कांड में गोलीबारी के आदेश दने वाला कमांडिंग ऑफिसर जॉर्ज हर्बर्ट एडवर्ड पर्सी हैमंड था जो वहां ब्रिटिश सेना का क्षेत्रीय कमांडर था। उसने निहत्थे आन्दोलनकारी पठानों पर गोलीबारी से इंकार करने के बाद गढ़वालियांे के हथियार छीन कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और गोलियां चलाने के लिये दूसरी टुकड़ी को आदेश दे दिया था। गढ़वाली सैनिकों की गिरफ्तारी के बाद पेशावर शहर तथा थाने के पास गोलीबारी में अनेक लोग अवश्य मरे मगर जलियांवाला नरसंहार की पुनरावृत्ति अवश्य रुक गयी। इस कांड से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को और बढ़ावा मिला। इंडियन नेशनल कांग्रेस द्वारा पेशावर कांड की जांच के लिये गठित वी.जे, पटेल की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 23 अप्रैल 1930 के पेशावर कांड में पुलिस और सेनिक टकड़ी द्वारा फायरिंग की घटनाओं में कम से कम 20 आन्दोलनकारी मारे गये तथा 21 घायल हुये थे। रिपोर्ट में अपुष्ट श्रोतों से मरने वालों की संख्या काफी अधिक बतायी गयी। साथ ही उन्हीं अपुष्ट श्रोतों ने कमेटी को पुलिस द्वारा शवों को गायब करने और घायलों के सामने न आने की बात भी बतायी। जांच कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार गिरफ्तारी के डर से कई घायल आन्दोलनकारी अस्पताल नहीं गये जिस कारण घायलों की सही संख्या का पता नहीं चल सका।

ब्रिटिश राज के दमन के उदाहरण थे दानों कांड

दोनों घटनाएँ ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध कर रहे भारतीय नागरिकों के खिलाफ हिंसक बल का उपयोग करने के उदाहरण थीं। दोनों ही मामलों में निहत्थे नागरिकों को ब्रिटिश सेना द्वारा निशाना बनाया गया। इन दोनों ही घटनाओं में बड़ी संख्या में निहत्थे नागरिक मारे गये या घायल हुए। जलियांवाला बाग हत्याकांड में सैकड़ों लोगों की मौत हुई, जबकि पेशावर कांड में भी कई नागरिक मारे गए और घायल हुए। मगर गढ़वाली सैनिकों के विद्रोह के कारण भारी खून खराबा नहीं हो सका। दोनों घटनाओं से भारतीयों में व्यापक आक्रोश और निंदा हुई, जिससे ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ गया।

दोनों कांडो से राष्ट्रीय आन्दोलन को मिली गति

जलियांवाला बाग नरसंहार पंजाब के अमृतसर में दो राष्ट्रवादी नेताओं, डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी और निर्वासन के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के दौरान हुआ था। जबकि पेशावर कांड पेशावर कांड, जो अब पाकिस्तान में है, ‘फ्रंटियर गांधी‘ के नाम से जाने जाने वाले एक प्रमुख राष्ट्रवादी नेता अब्दुल गफ्फार खान की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान हुआ। जलियांवाला बाग हत्याकांड का नेतृत्व मुख्य रूप से पंजाब के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने किया था, जबकि पेशावर कांड अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व वाले खुदाई खिदमतगार आंदोलन से जुड़ा था, जिसकी उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में मजबूत उपस्थिति थी। (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान)। जलियांवाला बाग हत्याकांड ब्रिटिश अधिकारियों की पंजाब में बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन के दमन के कारण शुरू हुआ था, जबकि पेशावर कांड अब्दुल गफ्फार खान की गिरफ्तारी और खुदाई खिदमतगार आंदोलन को दबाने के ब्रिटिश प्रयासों की प्रतिक्रिया थी।

पेशावर कांड 1857 के बाद का सैन्य विद्रोह

पेशावर काण्ड सन् 1857 के बाद भारतीय सेनिकों का यह पहला विद्रोह था। मगर विद्रोह भी ऐसा कि किसी पर बंदूक उठा कर नहीं बल्कि बंदूक झुका कर। इस घटना से सारे देश में आजादी के आन्दोलन को नयी स्फूर्ति मिली। मोती लाल नेहरू के आवाहन पर देश के प्रमुख नगरों में ‘‘गढ़वाली दिवस’’ मनाया गया। इस काण्ड में चन्द्रसिंह एवं अन्य गढ़वाली सैनिकों को मृत्युदण्ड भी मिल सकता था, लेकिन बैरिस्टर मुकन्दीलाल की जबरदस्त पैरवी से उन्हें फांसी की सजा नहीं हुयी, मगर सारी उम्र कालापानी की सजा अवश्य मिली। दरअसल 23 अप्रैल, 1930 को हजारों लोग ब्रिटिश हुकूमत की ज्यादतियों के विरोध स्वरूप पेशावर में पुलिस स्टेशन के सामने किस्सा खानी बाजार में एकत्र हुए थे। उस स्थिति में भीड़ को तितर-बितर करने के असफल प्रयासों के बाद ब्रिटिश कप्तान ने गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी को भीड़ पर गोलियां चलाने का आदेश दिया ता फायरिंग का आदेश सुनते ही हवलदार चन्द्र सिंह ने जोर से आवाज देकर अपनी टुकड़ी को गोलीबारी न करने करने का आदेश दे दिया। उन्होंने अपनी टुकड़ी को पहले ही निर्देश दे दिये थे कि किसी भी कीमत पर निर्दोष लोगों पर गोली न चलायी जाये। इस नाफरमानी के बाद चन्द्रसिंह गढ़वाली के साथ ही पूरी टुकड़ी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। पेशावर कांड के बाद, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को 11 साल तक कई जेलों में बंद रखा गया और 1941 में रिहा कर दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद, वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए।

नेताजी को मिली गढ़वालियों से प्रेरणा

माना जाता है कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने इन्हीं गढ़वाली सेनिकों से प्रेरणा लेकर आजाद हिन्द फौज का गठन किया था और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गढ़वाली सेनिकों और अफसरों को उनके देश प्रेम और बलिदान के लिये सहर्ष तत्पर रहने की भावना से प्रभावित हो कर उन्हें आजाद हिन्द फौज में महत्वपूर्ण पदों पर रखा। नेताजी की आइएनए में ढाइ हजार से ज्यादा गढ़वाली सैनिक थे।

Neglected descendants of the great freedom fighter and hero of Peshawar episode in apathetic conditions.

 

इन बहादुर सैनिकों को हुयी सजा, जिनका नामलेवा कोई नहीं

हवलदार मेजर चन्द्र सिंह के अलावा हवलदार नारायण सिंह गुसाईं, नायक जीत सिंह रावत, नायक भोला सिंह बुटोला, नायक केशर सिंह रावत, नायक हरक सिंह धपोला, लांस नायक महेन्द्र सिंह, लांस नायक भीमसिंह बिष्ट, लांस नायक रतन सिंह नेगी, लांस नायक आनन्द सिंह रावत, लांस नायक आलम सिंह फरस्वाण, लांस नायक भवान सिंह रावत, लांस नायक उमराव सिंह रावत, लांस नायक हुकम सिंह कठैत, और लांस नायक जीतसिंह बिष्ट को लम्बी सजायंे हुयीं। इनके अलावा पाती राम भण्डारी, पान सिंह दानू, रामसिंह दानू, हरक सिंह रावत, लछमसिंह रावत, माधोसिंह गुसाईं चन्द्र सिंह रावत, जगत सिंह नेगी, ज्ञानसिंह भण्डारी, शेरसिंह भण्डारी, मानसिंह कुंवर, बचन सिंह नेगी, रूपचन्द सिंह रावत, श्रीचन्द सिंह सुनार, गुमान सिंह नेगी, माधोसिंह नेगी, शेरसिंह महर, बुद्धिसिंह असवाल, जूरासंध सिंह रमोला, रायसिंह नेगी, किशन सिंह रावत, दौलत सिंह रावत, करम सिंह रौतेला, डबल सिंह रावत, हरकसिंह नेगी, रतन सिंह नेगी, हुक्म सिंह सुनार, श्यामसिंह सुनार, सरोप सिंह नेगी, मदनसिंह नेगी, प्रताप सिंह रावत, खेमसिंह गुसाईं एवं रामचन्द्र सिंह चौधरी को कोटमार्शल द्वारा सेना की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। इनके अलावा त्रिलोक सिंह रावत, जैसिंह बिष्ट, गोरिया सिंह रावत, गोविन्द सिंह बिष्ट, दौलत सिंह नेगी, प्रताप सिंह नेगी और रामशरण बडोला को सेना से डिस्चार्ज किया गया।

 

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