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हम लोगों का पंथ निरपेक्ष संविधान, हम सब का रखवाला

A constitution is the aggregate of fundamental principles or established precedents that constitute the legal basis of a polity, organization, or other type of entity, and commonly determines how that entity is to be governed.


-जयसिंह रावत
एक सम्प्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य भारत के संविधान को लागू हुये 71 साल पूरे हो गये। लेकिन आज भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की व्यवस्था को संचालित करने वाला यह विश्व का सबसे बड़ा संवैधानिक लिखित दस्तावेज प्रासंगिक तो अवश्य है लेकिन इसमें ’हम’ भारत के लोगों के लिये दी गयी कुछ गारंटियां अवश्य ही ढीली पड़ गयी हैं, जिन्हें दुबारा कसने की जरूरत है। यद्यपि हमारी सजग न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में हस्तक्षेप अवश्य करती है, मगर यह हस्तक्षेप तब हो पाता है जबकि हनन हो चुका होता है। यह हस्तक्षेप भी केवल सजग और सम्पन्न नागरिकों के मामलों में ही हो पाता है। जबकि आम आदमी अपने अधिकारों के हनन को अपनी नियति मान लेता है। स्वयं अदालतें भी काम के अत्यधिक बोझ के चलते समय से न्याय नहीं दे पातीं, जिस कारण न्यायार्थी न्याय से वंचित हो जाता है। हमारे संविधान को सबसे बड़ा खतरा साम्प्रदायिक सोच के कारण उत्पन्न हो गया है। देश वासियों (हम लोग/वी द पीपुल ऑफ इंडिया) के बहुमत की सत्ता के बजाय धार्मिक बहुमत की सत्ता के लिये उकसाया जा रहा है। लेकिन हमारा संविधान है कि जिसके लिये हर एक हिन्दुस्तानी एक समान है।

प्रस्तावना में निहित है संविधान की आत्मा

संविधान के निर्माताओं का अंतिम उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य और समतामूलक समाज का निर्माण करना था, जिसमें भारत के उन लोगों के उद्देश्य और आकांक्षाएं शामिल थीं जिन्होंने देश की आजादी की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। इन्हीं उदे्ेश्यों की प्राप्ति के लिये संविधान सभा द्वारा 114 बैठकों के बाद इसका प्रारंभिक ड्राफ्ट तैयार हुआ और उसे डा0 भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने 2 साल 11 महीने तथा 18 दिन में अंतिम रूप दिया गया। लेकिन उस समय 465 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियों तथा 22 भागों (बाद में बदलाव) में विस्तारित यह संविधान इतना लम्बा था कि इसकी आत्मा में समाहित इसके मूल तत्व आसानी से नजर नहीं आते थे। इसलिये इसमें अमेरिका की तर्ज पर कुल 73 शब्दों की संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना तैयार की गयी जिसमें संविधान का सार दिया गया। सर्व विदित ही है कि संविधान को 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत कर लिया गया और फिर 26 जनवरी 1950 को यह लागू भी हो गया।

सर्वशक्तिमान संविधान की शक्तियों की श्रोत जनता

हमारे संविधान की उद्देशिका में पहली बात यह स्पष्ट है कि संविधान की सभी शक्तियांे का श्रोत भारत के लोग ही हैं और प्रस्तावना इस बात की घोषणा करती है कि भारत एक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र राष्ट्र है और भले ही राजनीतिक शक्तियां बदलती रहें और संविधान के ही अनुच्छेद 368 के तहत विधायिका समय की मांग के अनुसार संविधान में संशोधन करती रहें मगर संविधान के मूल तत्वों या उसकी आत्मा के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं कर सकता। इसके साथ ही हमारा संविधान सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करता है तथा राष्ट्र की एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा देता है।

अनुच्छेद 32 के तहत न्यायपालिका का संरक्षण

अब सवाल उठता है कि ‘‘हम भारत के लोगों’’ को संविधान में जो चार प्रमुख गारण्टियां दी गयी हैं वे किस हद तक सुलभ हो रही हैं। इन गारण्टियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका अनुच्छेद 32 के तहत निभाने का प्रयास करती तो है मगर न्यायपालिका के प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक उसे कार्यपालिका और विधायिका का पूरा सहयोग नहीं मिलता। कई बार तो सहयोग मिलना तो रहा दूर टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। चूंकि कार्यपालिका का गठन विधायिका के बहुमत से होता है, इसलिये विधायिका पर उसी का प्रभाव होता है और कार्यपालिका अदालत के हस्तक्षेप के बावजूद कानून बना कर न्यायपालिका के हस्तक्षेप को रोक देती है। न्यायपालिका को कानून बनाने का नहीं बल्कि कानून और संविधान की व्याख्या का ही अधिकार है।

न्याय की गारण्टी तो है मगर न्याय कहां?

संविधान में हमें न्याय की गारण्टी अवश्य दी है, लेकिन आम आदमी को संविधान लागू होने के 73 साल बाद भी यह गारण्टी आसानी से हासिल नहीं हो पाती। न्याय को तीन विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है; सामाजिक न्याय, राजनीतिक न्याय एवं आर्थिक न्याय। सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव-मानव के बीच जाति, वर्ण के आधार पर भेदभाव न माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हांे। अदालतों पर वादों के बोझ के कारण न्यायार्थी को न्याय पाने में लम्बा समय लग जाता है और विलंबित न्याय का मतलब न्याय से वंचित होना ही है। आम आदमी के लिये न्याय बहुत महंगा होने के कारण वह अक्सर न्याय से वंचित हो जाता है। जबकि साधन सम्पन्न और ऊंची पहुंच वाले लोग आसानी से न्याय पा भी लेते हैं और महंगे वकील रख कर मुकदमों की दिशा पलट भी लेते हैं। सलमान खान को चुटकी में बेल मिल जाती है जबकि गरीब बिना सजा पाये ही सालों तक जेलों में सड़ता रहता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार दंगों के मामले में केवल 29 प्रतिशत को ही सजा हो पाती है। इसी प्रकार बलात्कार के मामलों में 29 प्रतिशत और हत्या के मामलों में केवल 41 प्रतिशत को सजा हो पाती है। इसका मतलब साफ है! कुल 59 प्रतिशत हत्या के मामलों में न्याय नहीं मिलता। इसी प्रकार 71 प्रतिशत बलात्कर के मामलों में भी न्याय नहीं मिल पाता।

समानता की गारण्टी पंहुच वाले वर्ग की बन्धक

भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की क्षमता प्रदान करती हैं जिसका अभिप्राय है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करना। सवाल उठता है कि क्या सचमुच समाज के गरीब, पिछड़ों और दलितों को हर क्षेत्र में समानता हासिल है? प्रगति के अवसरांे ंपर मुट्ठीभर लोग कुण्डली मारे बैठे हैं। समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धान्त प्रभावी है। तरक्की और आजीविका के अवसर ऊंची पहुंच वालों या उन अवसरों को खरीदने में सक्षम लोगों के लिये सुरक्षित हो गये हैं। गरीब का बेटा चाहे कितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो, उसकी प्रतिभा पहुंच वाले के नालायक बेटे के समक्ष बौनी है।

बन्धुत्व भी रिस्क पर, राजद्रोह की तलवार आजादी पर

प्रस्तावना में बंन्धुत्व का भी उल्लेख किया गया है ताकि हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता मजबूत बनी रहे। इसमें पहली बात व्यक्ति का सम्मान और दूसरी देश की एकता और अखंडता। मौलिक कर्तव्य में भी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। सुप्रीम कोर्ट एकानेक बार कह चुका है कि आइपीसी की धारा 124-ए का खुले आम दुरुपयोग हो रहा है। इससे देश में सरकार के विरोध को राजद्रोह मान कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है। जबकि यह कानून अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशवादी शासन को बचाने के लिये बनाया था। इस कानून को समाप्त करने पर विचार तक नहीं हो रहा है।

हम भारत के लोग का अभिप्राय एक धर्म से नहीं

प्रस्तावना सविधान की शुरुआत है और इस शुरुआत की शुरुआत भी ’’हम भारत के लोग’’ से होती है। हम शब्द का अभिप्राय किसी एक धर्म या जाति से नहीं बल्कि इस देश में निवास करने वाले हर एक धर्मावलम्बी और जाति से है। संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) जोड़े गए। हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है। लेकिन राजनीतिक सत्ता को धर्म, जाति, क्षेत्र  और भाषा के नाम पर जिस तरह प्रभावित किया जा रहा है, उससे हमारे संविधान की मूल भावना को चोट पहुंच रही है। अगर विकास के मुद्दों के बजाय धर्म, जाति, क्षेत्र  और भाषा  के नाम पर वोट मांगे जायेंगे और उसी आधार पर ही सरकारें बनेंगीं तो संविधान में उल्लिखित शब्द ‘धर्म निरपेक्ष’ का कोई मतलब नहीं रह जायेगा।

समाजवादी शब्द भी हो रहा धुंधला

इस भावना के प्रबल होते जाने से अल्पसंख्यक स्वयं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानने को मजबूर हो रहे हैं। जबकि हमारे शासन विधान की धर्मरिपेक्षता और समानता के कारण ही हमारी विश्व में प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता है। इसी प्रकार संविधान में उल्लिखित समाजवाद का शब्द भी दांव पर है। समाजवादी शब्द का आशय यह है कि ‘ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनों, पूँजी, जमीन, संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य हो। पूंजीपतियों पर निरन्तर बढ़ती जा रही निर्भरता भी संविधान के कुछ मूल तत्वों से भटकाने का ही संकेत है। उत्पादन में जोखिम, भूमि और पूंजी के समान ही श्रम का महत्व होता है। लेकिन श्रम शक्ति को सम्मान देने के बजाय पूंजी का गुलाम बनाया जा रहा है।

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