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चिनार के ये खूबसूरत पेड़ डरा भी रहे है….।

-दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड में चिनार का पेड़ खूब फल फूल रहा है। देहरादून में इस समय दो दर्जन पेड़ बताए जा रहे हैं। दो – एक साल पहले वन विभाग की अनुसन्धान इकाई के प्रयास से रानीखेत में दो सौ पेड़ रोपे गए थे, उनमें से काफी कुछ सलामत बताए जा रहे हैं। इसके अलावा आठ सौ अन्य पौधे भी विभिन्न जगहों पर रोपे गए हैं। टिहरी के ओपन एयर थिएटर के परिसर में भी चिनार का एक पेड़ बीते करीब एक दशक से ज्यादा समय से अपने रंग रूप का दीदार करा रहा है। मसूरी, धनोल्टी, अल्मोड़ा और न जाने कितनी जगहों पर इसे लगाए जाने की योजना है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए यह उपक्रम किया जा रहा है। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन यह खूबसूरत पेड़ अपने साथ एक अदृश्य भय का बीजारोपण भी कर रहा है। वह भय कश्मीर के रक्तरंजित और स्याह अतीत को देख कर उपजा है। अब यह पेड़ उत्तराखण्ड में पैर पसार रहा है। इस कारण कल्पना भर से ही सिहरन सी होने लगती है। ऐसा नहीं है कि कश्मीर से यह सीधा उत्तराखंड आ गया। बीच में हिमाचल प्रदेश भी है और वहाँ भी इसके कुछ दरख्त हैं लेकिन वहां सख्त भू क़ानून के चलते चिनार के साथ लोग नहीं आ पाये। लेकिन उत्तराखण्ड में लचर भू क़ानून ने चिन्ता सहज ही बढ़ा दी है।
जानकार मानते हैं कि कश्मीर में यह पेड़ ईरान से लाया गया था। बेशक यह सच न भी हो लेकिन चिनार की खूबसूरती के साथ जो दंश कश्मीर को बीते चार दशक में मिले वह किसी से छिपा भी तो नहीं है और हाल में रिलीज हुई फिल्म कश्मीर फाइल्स ने इस अज्ञात भय को बढ़ा दिया है। भगवान करे यह आशंका निर्मूल सिद्ध हो। और देखा जाए तो उसमें चिनार का कसूर भी क्या है?
थोड़ा अतीत में चलते हैं। ईरान को पहले पर्सिया कहा जाता था। बाद में वही लोग पारसी कहलाये। पारसी लोग कमोबेश आर्य या उन जैसे ही थे और अग्नि पूजक थे, इस्लामी आक्रमण से किसी तरह बच कर वे भारत आ गए और उसके साथ ही चिनार भी वहां से लुप्त हो गया। फिर चिनार फैला कश्मीर में। दुनिया के लोग कश्मीर की सैर के लिए जाते हैं तो चिनार के बहुरुपियेपन को देख मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यह उसकी खूबसूरती ही तो है लेकिन यह भी याद रखने की बात है कि चिनार के विस्तार के साथ ही कश्मीर से शैव परम्परा को भी आघात पहुंचा जो आज तक रिस रिस कर सामने आता दिख जाता है।
कई बार समय से पहले कुछ लिखना या बोलना जोखिम भरा होता है लेकिन व्यापक जनहित में बोलने का जोखिम लिया जा सकता है और लिया भी जाना चाहिए।
देखा जाए तो चिनार जब आपको आमंत्रित करता है तो वह आपको ईरान नहीं बुलाएगा, क्योंकि उसका वंश ईरान से समाप्त हो चुका है। वह आपको कश्मीर की वादियों में आमंत्रित करेगा। सदियों पहले कश्मीर आए चिनार ने अब यहीं की आबो-हवा में अपना डेरा जमा लिया है। यूं मूल रूप से चिनार ईरान का वाशिंदा था। अपने अस्तित्व की हिफाजत के लिए जिस तरह अन्य सभ्यताओं से लोगों ने हिंदुस्तान में पनाह ली, फले, फूले और यहां का हिस्सा बने, उसी तरह सैकड़ो मीलों दूर ईरान से आकर चिनार कश्मीर की वादियों का सरताज, साक्षी और शोभा बन गया। उसकी कई पीढियां इन घाटियों की जड़ों में रच-बस गई हैं। वह भी कश्मीरीयत की पहचान बन गया है। प्राकृतिक रूप से देखें तो, वादियों की पहचान अब उसी से है। उसकी विशाल देह। कद काठी। उसके खूबसूरत झरते पत्ते। उसकी लंबी उम्र। उसके झरते पके पत्ते जब घाटी की धरती पर बिछ जाते हैं तो लगता है मानों घाटी अग्नि सिंदूर से नहा लिया हो।
यह पेड़ बहार में बड़े हरे गुलदस्ते की तरह दिखता है। पतझड़ में जब सभी पेड़ ठूंठ हो जाते हैं, तब इसके पत्ते लाल सुर्ख होकर आसपास के वातावरण को खूबसूरत बनाते हैं।
चिनार की कई पीढ़ियों ने कश्मीरियत को महसूस किया है। दहशतगर्दी वादी की नियति नहीं है। इसकी नियति शांति और अमन है। इसका शिव है। यहां का शैव है। यहां का सूफी मत है।

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