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जौनसार -बावर, जहां आज भी स्याणाओं की हुकूमत चलती है

       –जयसिंह रावत

महाभारत काल से लेकर 21वीं सदी तक दुनियां कहां से कहां पहुंच गयी, मगर उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के गिरी वार और गिरि पार का एक जनजातीय क्षेत्र ऐसा भी है जो कि अपनी अनूठी संस्कृति के कारण हजारों सालों के अन्तराल के बावजूद हमें अपने अतीत की झलक दिखाता है। यद्यपि त्रिस्तरीय पंचायती राज के चलन में होने के कारण इस क्षेत्र में भी देश के अन्य भागों की तरह लोकतांत्रिक तरीके से गठित ग्राम पंचायतें संचालित होती हैं, फिर भी लोगों की अपनी संस्कृति के प्रति अटूट आस्था के चलते यहां आज भी स्याणाचारी प्रथा पंचायती राज से अधिक प्रभावी है। यहां अन्य पंचायत चुनावों में धन बल या बाहुबल का प्रयोग न होकर क्षेत्रवासियों और स्याणाओं (ग्राम प्रमुख) की सहमति से ग्राम प्रधान चुने जाते हैं। इन स्याणा पदधारियों को सीधे महासू देवता का प्रतिनिधि माना जाता है, इसलिये उनके आदेश या फैसले की अवहेलना का मतलब देवता का अनादर माना जाता है। विशिष्ट संस्कृति के चलते जौनसार बावर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट की धारा 91 के तहत (एक्सक्लूडेड और पार्शियली एक्सक्लूडेड एरियाज) एक्सक्लूडेड क्षेत्र रहा। बेहतर होता अगर परम्परागत स्याणा पंचायतों का ही लोकतंत्रीकरण कर इन्हीं को मान्यता दे दी जाती।

हिमाचल और उत्तराखण्ड की बीचोंबीच अनूठी संस्कृति

यह विशिष्ट क्षेत्र हिमाचल और उत्तराखण्ड दो जुड़वा प्रदेशों के बीच स्थित है जिसमें  टिहरी जिले का जौनपुर, उत्तरकाशी का रवांईं, देहरादून का जौनसार बावर तथा हिमाचल का एक बड़ा भू-भाग शामिल है। सिरमौर जिले का सम्पूर्ण हाटी क्षेत्र, ट्रांसगिरि (गिरिपार), जुब्बल, चौपाल (शिमला जिले का एक बड़ा भू-भाग) तथा पुराना महासू क्षेत्र (रामपुर बुशहर) तथा किन्नौर तक का क्षेत्र इसी संस्कृति के अन्तर्गत आता है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में सभी प्रकार के सामाजिक संस्कार, रीति-नीति, खानपान, वेशभूषा, मानबिन्दु (देवी-देवता, पूजा स्थल) सभी प्रकार के त्यौहार तथा पूर्वज भी समान है। इन लोगों ने इसी एक ही जीवन शैली के आधार पर संस्कृति तथा संस्कार विकसित किए हैं। लेकिन इन में से केवल देहरादून जिले के जौनसार बावर को ही अनुसूचित जनजाति क्षेत्र का संवैधानिक दर्जा मिला हुआ है।

आजादी के बाद पंचायती राज आया मगर स्याणाचारी नहीं गयी

यद्यपि उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम 1947 और उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के तहत परंपरागत ग्राम मुखियाओं के थोकदार, पदान, सयाणा, कमीण और चौंतरू जैसे परंपरागत पदों की वैधता समाप्त हो गयी थी। लेकिन जौनसार बावर में नवीन पंचायती राज लागू होने के बावजूद स्याणाचारी के नाम से आज भी वही परम्परागत प्रशासन चल रहा है। इस व्यवस्था में विभिन्न स्तरों के स्याणे ग्राम समाज की परम्परागत व्यवस्थाओं के संचालन के साथ ही दीवानी और छोटे-मोटे अपराध के मामलों को भी निपटा लेते हैं। समाज उनको महासू देवता का प्रतिनिधि मानकर उनके आदेशों का सम्मान करता है। देखा जाय तो यह व्यवस्था जौनसारियों के सर्वोच्च ईस्ट देव महासू महाराज के नाम से चलती है। इसमें महासू महाराज का प्रतिनिधि बजीर होता है जिसका मुख्यालय हनोल स्थित महासू धाम में है। बजीर के अधीन चार चाैंतरू होते है। जिनमें लखवाड़, मुदान, नगऊ और उत्पाल्टा शामिल हैं। इनके अधीन सम्पूर्ण जौनसार बावर के 39 खत स्याणे और उनके अधीन खाग स्याणे होते हैं। खाग स्याणे के अधीन ग्राम स्याणे होते हैं। जौनसार बावर में लगभग 365 राजस्व गांव हैं जिनके इतने ही ग्राम स्याणे हैं। कुछ गांवों का एक खाग स्याणा माना जाता है।

आपसी झगड़े निपटाते हैं पारम्परिक स्याणा

इस पारम्परिक व्यवस्था में दो लोगों में आपसी विवाद, उधारी या लेन-देन, मारपीट, झगड़ा-फसाद, हार-हुडावा ( महिला हरण विवाह), सीमा विवाद, खीत (छूट/तलाक) भूलवश या जानबूझ कर किए गए कोई अपराध, यहां तक की हत्या तक के विवाद सुलझाने के लिए भी एक न्यायिक व्यवस्था विकसित थी। जो उपरोक्तानुसार ग्राम स्याणा, ख़ाग स्याणा तथा ख़त स्याणा के नेतृत्व में पंचों के माध्यम से मजबूती से संचालित थी, जो कि काफी हद तक अब भी चल रही है। इसमें ग्राम मुखिया के पास शिकायत (नालिस) के रूप में 1 रूपया देकर सुलभ और सस्ता तथा शीघ्रता से न्याय मिल जाता है। सीमा सम्बन्धी बड़े विवाद, लेन-देन के बड़े मसले, छूट (ख़ीत) आदि के बड़े विषय भी ग्रामों एवं ख़तों के बीच में सुलझाए जाने के उदाहरण हैं, यहां तक की हत्या तक के विवाद भी ख़तों की पंचायत में सुलझाए जाते रहे हैं।

स्याणाचारी को अंग्रजों ने भी दी मान्यता

खलंगा के युद्ध में गोरखों को मार भगाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1815 में सतलज से लेकर काली नदी तक ग्राम मुखियाओं के परम्परागत अधिकार बहाल कर दिये थे, जिनमें राजस्व की वसूली और ग्राम तथा खत स्तर के झगड़ों/विवादों को निपटाने तथा भूमि व्यवस्था भी शामिल थी। जौनसार बावर के लिये उस समय ऐसी ही व्यवस्था थी जिसका अलग से उल्लेख किया गया है। बाद में गंभीर अपराधों की सुनवाई और अपील के लिये अंग्रेज अफसरों की नियुक्ति की व्यवस्था के लिये अन्य रेगुलेशन लाये गये। ए. रॉस द्वारा 1851 में तैयार किये गये और जे.सी. रॉबर्टसन द्वारा सयाणाओं की सहमति से संशोधित कराये गये दस्तूर-उल-अमल में स्याणाओं के अधिकार और कर्तव्यों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। जौनसार-बावर की परम्पराओं पर आधारित उस कस्टमरी कानूनी दस्तावेज की धारा 8 में कहा गया है कि सम्पूर्ण जौनसार परगना में 35 खत हैं और प्रत्येक खत में कई गांव शामिल हैं। प्रत्येक खत का प्रमुख स्याणा होता है। उक्त धारा में स्याणाओं की जिम्मेदारियां तय की गयी है।

राजस्व वसूली के साथ न्याय भी करते थे स्याणा

स्याणा की जिम्मेदारी जमींदारों को सन्तुष्ट रखना, परम्परानुसार उनसे सरकारी देय वसूलना, राजस्व आदि देयों की रकम तय करना, आपसी झगड़ों को निपटाना, रायतों के हितों को सुनिश्वित करना तथा सरकार के आदेशों का पालन करना शामिल है। उपधारा-20 में मवेशियों या बकरियों की चोरी के मामलों को निपटाने की प्रकृया दी गयी है। ग्राम सतर पर मामला न निपटने पर कचहरी में केस रेफर करने की बात कही गयी है। उपधारा 21 में कहा गया है कि स्याणा की पंचायत हत्या जैसे गंभीर अपराधों की सुनवाई नहीं कर सकती। ऐसे मामले जिला अधिकारी के न्यायाधिकार में होंगे।

परम्परागत स्याणाओं की नियुक्ति और कानून

दस्तूर-उल-अमल की धारा-8 की उपधारा 2 में स्याणाओं की नियुक्ति एवं उत्तराधिकारियों का उल्लेख किया गया है। जिसमें कहा गया है कि पहले से चले आ रहे स्याणा की मृत्यु के बाद उसका जेष्ट पुत्र स्याणा बनेगा। लेकिन उत्तराधिकारी नाबालिग हो या अक्षम हो तो उसके नाम पर उसका भाई उप या नायब स्याणा के रूप में कार्य करेगा। स्याणा चाहे तो अपने जीवनकाल में ही अपने ज्येष्ट पुत्र को स्याणा नियुक्त कर सकता है, लेकिन उसकी जगह काम कर रहा उसका भाई इसमें दावा नहीं कर सकेगा। लेकिन स्याणा चाहे तो वह बिसौटा का एक हिस्सा अपने भाइयों को दे सकेगा। स्याणाचारी बंट नहीं सकती है। कनिष्ट पुत्र स्याणाचारी का दावा नहीं कर सकता। अगर उसका बड़े पुत्र मर जाता है तो उसके अन्य पुत्र स्याणाचारी पर दावा कर सकते हैं। अगर स्याणा निसन्तान हो तो उसकी पत्नी इस पद के लिये दावा नहीं कर सकती। केवल उसके भाई ही पद के हकदार होंगें। उपधारा 4 में कहा गया है कि प्रत्येक खत के अधीन कई स्याणा होते हैं लेकिन उन सभी पर मुख्य स्याणा के आदेश लागू होंगें। अगर स्याणा अपने कर्तव्यों का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर रहा है या पक्षपात और सरकार की हुक्म अदूली करता है तो उसे बर्खास्त किया जायेगा और उसकी जगह दूसरे पात्र या हक हुकूकधारी को नियुक्त किया जायेगा। उपधारा 9 में स्याणा के अधीनस्थ की नियुक्ति, उपधारा 10 में स्याणा को कोर्ट कचहरी आने के लिये कुली रखने, 11 में स्याणा की अनुमति से ही जमींदार को अपनी जमीन बेच सकने का उल्लेख है।

साझा पत्नी और उसके के बच्चों के अधिकार तय

सभी भाइयों की एक साझा पत्नी और उसकी सन्तानों के अधिकारों के बारे में दस्तूर-उल-अमल की धारा की 6 उपधारों में विस्तार से वर्णन किया गया है।दस्तूर उल अमल अनुसूचित जातियों के साथ गंभीर भेदभाव भी करता है। उसके अनुसार केवल ठाकुर या ब्राह्मण ही जमींदार या मौरुषी हो सकता है, जबकि छोटी जातियों को जमीन का मालिक होने का हक नहीं दिया गया है। इस प्रथागत कानून की धारा 4 में भगोड़े मौरुसी या जमींदार का उल्लेख किया गया है। जिसमें कहा गया है कि सयाणा भगोड़े मौरुषी की जमीन को केवल जमींदारों या मौरुषी काश्तकारों में ही बांट सकेगा। अगर उसने निचली जाति के गैर मौरुषी काश्तकारों को जमीन कमाने के लिये बांट दी तो उनको 2 रुपये स्याणा को, 4 रुपये और एक बकरी पंचायत को तथा 2 रुपये गांव समाज को देने होंगे। भगोड़ा 5 साल के अंदर अपनी जमीन पर पुनः कब्जे का दावा कर सकने का प्रावधान भी कानून में है। इस कानून में विवाद या अपराध की स्थिति में देवता के नाम पर शपथ लेकर बयान देने को मान्यता दी गयी है।

जौनसार का अलग प्रशासन

जौनसार बावर में आजादी के बाद तक 1931 के बंगाल रेगुलेशन ग्प् के तहत तहसीलदार को पुलिस के अधिकार प्राप्त थे। चूंकि एक तहसीलदार इतने बड़े क्षेत्र की कानून व्यवस्था नहीं संभाल सकता था, इसलिये जौनसार बावर के लिये टिहरी का जैसा अलग से अधिनियम लाना पड़ा, जिसे “जौनसार-बावर परगना (जिला देहरादून) रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958” कहा गया। यह उत्तर प्रदेश का अधिनियम संख्या 27 सन् 1958 था। वैसे भी भारत सरकार अधिनियम 1935 के आने के बाद बंगाल रेगुलेशन अस्तित्व विहीन हो गया था।

जौनसार में अलग पंचायतीराज की दरकार

पूर्वोत्तर भारत के शेड्यूल-6 के क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर के अलावा सम्पूर्ण भारत में संविधान के 73वें संशोधन के तहत नवीन पंचायती राज चल रहा है। इन से कम जनजाति जनसंख्या वाले क्षेत्रों को शेड्यूल-5 के अधीन अधिसूचित किया गया है जहां पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून 1996 में आया था। इस कानून को आदिवासी-बहुल क्षेत्र में स्व-शासन (ग्राम सभा) को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया था। लेकिन जौनसार बावर एक जनजाति क्षेत्र घोषित होने के बावजूद इसे पंचायती राज के लिये पेसा कानून के अधीन न लाये जाने के कारण लोग सरकारी पंचायतों को गौण और अपनी पंचायतों को प्रमुख मानते हैं।

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