ट्रैफिक जाम – क्या है समाधान? क्यों न स्कूलों की छुट्टी का टाइम बदला जाए?
–दिनेश शास्त्री–
हिमालयी नगरों में जम्मू कश्मीर के श्रीनगर और नेपाल के काठमांडू के बाद सबसे बड़ा शहर देहरादून “स्मार्ट” बनने के बाद कराह रहा है। स्मार्ट सिटी का लोकलुभावन सपना तो अच्छा है लेकिन जमीनी हकीकत शर्मिंदा करने वाली है। स्मार्ट सिटी के तमाम पहलू हैं लेकिन आज बात करेंगे सिर्फ यातायात व्यवस्था की। जबसे दून को स्मार्ट सिटी में शामिल किया गया, तब से सबसे ज्यादा क्रूरता अगर किसी के साथ हुई है तो वे हैं स्कूली बच्चे। सुबह सवेरे तो काम चल जाता है लेकिन जैसे – जैसे दिन चढ़ता है और स्कूलों में छुट्टी का समय होता है, स्मार्ट दून अक्सर जाम के झाम में फंस कर रह जाता है। ऐसे दिन वर्षभर में गिनती के होते हैं, जब किसी दिन दोपहर में जाम न लगता हो।
आप भी इस बात से वाकिफ हैं कि बीते 22 वर्षों में शहर का जिस तेजी से विस्तार हुआ, मुख्य सड़कों के स्वरूप में ज्यादा बदलाव नहीं आया है जबकि वाहनों की संख्या अप्रत्याशित रूप से कई गुना बढ़ी है। सच यह है कि सड़कों पर अब इतनी जगह बाकी नहीं रह गई है कि इतनी बड़ी संख्या में वाहनों का भार वहन कर सके। इस बात की पुष्टि उन हालिया रिपोर्ट से भी होती है, जिनका निष्कर्ष है कि देहरादून की सड़कों पर पृथक राज्य गठन के बाद सड़कों पर पांच गुना ज्यादा वाहन हो गए हैं। ट्रैफिक का दबाव लगातार बढ़ने से ही जाम की समस्या भी विकराल हुई है। कारण यह है कि शहर को स्मार्ट बनाने की बात तो हुई लेकिन सड़कों की चौड़ाई और लंबाई पहले जैसी ही है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय दून की सड़कों की क्षमता
प्रति मिनट 30 वाहन है लेकिन मौजूदा स्थिति चौकाने वाली है। यहां इस समय 30 के बजाय 160 वाहन प्रति मिनट सड़कों पर हैं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शहर किस ओर जा रहा है। आप हैरान होंगे कि अकेले देहरादून में ही 10 लाख से ज्यादा वाहन पंजीकृत हैं। इनमें से आधे भी सड़क पर हों तो अंजाम आपके सामने है।
हम बात कर रहे हैं, इस जाम से जूझने वाले बच्चों की। कमोबेश सभी स्कूल एक ही समय खुलते और एक साथ ही छुट्टी होती है। स्मार्ट सिटी कब विकसित होगी, इसे न आप जानते हैं और न ही कार्यदाई संस्था गारंटी देने की स्थिति में हैं। तो फिर समस्या का समाधान क्या है? वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की इस बात से असहमति का कोई कारण नहीं है कि स्कूलों की छुट्टी का समय इस तरह तय किया जाए कि बच्चों को कोई दिक्कत न हो। वे मानते हैं कि जाम के कारण बच्चे तो परेशान होते ही हैं, अभिभावक भी कम परेशान नहीं होते। स्कूल बस आने के इंतजार में अभिभावक खासकर माताएं सड़क पर रहती हैं और स्कूल वाहन के देर से आने के कारण वे तब तक दुश्चिंताओं से घिरी रहती हैं, जब तक बच्चा पहुंच नहीं जाता। यह कोई कम बड़ी चिंता नहीं है। दोपहर के समय अपने बच्चों के इंतजार में ड्रॉप प्वाइंट पर खड़ी महिलाओं अथवा अभिभावकों से बात कर यह बात समझी जा सकती है।
सामाजिक सरोकारों के लिए समर्पित संस्था धाद के संस्थापक लोकेश नवानी भी इसी तरह की राय रखते हैं। वस्तुत बेकसूर बच्चों को व्यवस्था की नाकामी का दंड देने का कोई औचित्य भी नहीं है। श्री नवानी कहते हैं कि स्कूलों के खुलने और अवकाश के समय में बदलाव के लिए प्रशासन और शिक्षा विभाग को पहल करनी होगी। ट्रैफिक कंट्रोल के लिए सिर्फ पुलिस की जिम्मेदारी नहीं माना जाना चाहिए। इसमें खुद शिक्षा विभाग को आगे आकर बच्चों की समस्या को एड्रेस करना होगा।
एसडीसी फाउंडेशन के प्रमुख अनूप नौटियाल भी कहते हैं कि समस्या का तात्कालिक समाधान तो यही है कि शहर के तमाम स्कूलों को क्लस्टर में बांट कर उनके अवकाश का समय अलग – अलग निर्धारित किया जाए, जब तक कि परिवहन का व्यवस्थित सिस्टम तैयार नहीं हो जाता। कमोबेश इसी तरह कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मीडिया प्रभारी राजीव महर्षि सुझाव देते हुए कहते हैं कि यदि सीबीएसई, आईसीएसई और उत्तराखंड बोर्ड से संबद्ध स्कूलों के अवकाश का समय अलग अलग तय किया जाए तो समस्या का समाधान हो सकता है। वे मानते हैं कि यह समस्या का स्थाई समाधान नहीं है लेकिन फिलहाल कुछ समय के लिए बच्चों को राहत तो दिलाई जा सकती है।
अनूप नौटियाल कहते हैं कि पीक आवर्स और फेस्टिव सीजन में जाम रोजाना की समस्या आम हो गई है और इसे इसके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता।
एक बात और आमतौर पर जाम के लिए ट्रैफिक पुलिस की अव्यवस्था को दोषी मान लिया जाता है लेकिन वास्तव में जाम का मूल कारण वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या है। बीते पांच वर्षो के दौरान देहरादून में वाहनों की संख्या दो गुनी बढ़ी है, जबकि सड़कों की लंबाई और चौड़ाई यथावत ही है।
इसमें दो राय नहीं है कि ज्यादातर स्कूल शहर के मध्यवर्ती भाग में ही है। बाहरी इलाकों में भी स्कूल हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। नतीजा यह है कि शहर में ही समस्या सबसे ज्यादा विकट है। स्मार्ट सिटी प्रोजक्ट में देहरादून को शामिल किए जाने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि बुनियादी सुविधाओं के मामले में इस शहर के दिन बहुरेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं, बल्कि निर्माण और विकास के नाम पर गड्ढे ज्यादा खुद गए। देहरादून के डीएम को ही आमतौर पर स्मार्ट सिटी का सीईओ बनाया जाता है। नया डीएम चार्ज संभालने के बाद शुरुआत में सक्रियता दिखाते हैं लेकिन कालांतर में उनकी बढ़ती व्यस्तता शिथिलता का सबब बनती रही है।
देखना यह है कि यातायात की अव्यवस्था के रूप में रोज जो जख्म लोगों को मिल रहे हैं, उनका इलाज कब तक होगा। इस भंवर पर आप भी नजर रखिए। हो सकता है कल के दिन मेट्रो का सपना साकार हो और उससे लोग अपने निजी वाहनों का प्रयोग कम कर लें, यह सब भविष्य के गर्भ में है। आप और हम कामना ही कर सकते हैं कि देहरादून सचमुच स्मार्ट बन जाए और जो सपना दिखाया गया है, वह धरातल पर उतर आए।