ब्लॉग

उत्तराखंड का अभागा भूकानून – वादा था कठोर कानून का , मगर जो थोड़ी सी जान बची थी उसे भी निकाल लिया

जयसिंह रावत

भारतीय जनता पार्टी ने जनाक्रोश को भांपते हुये त्रिवेन्द्र सरकार की गलतियों को सुधार कर उत्तराखण्ड के लिये नया सख्त भूकानून बनाने का वायदा गत विधानसभा चुनाव में किया था। इससे पहले जनता के रुख को देखते हुये नये भूकानून का मजमून बनाने के लिये पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद धामी सरकार ने राज्य की बचीखुची जमीनें बचाने और पहाड़ से जनसाख्यकी अक्षुण रखने के लिये कठोर कानून तो बनाया नहीं अलबत्ता पिछली सरकार से जमीनें हड़पवाने के लिये जो कसर बची थी वह भी विधानसभा के नवीनतम बजट सत्र में पूरी कर ली। हैरानी का विषय तो यह है कि जनता को बरगलाने के लिये नये भूकानून का ड्राफ्ट तैयार करने वाली सुभाष कुमार कमेटी अब भी अस्तित्व में है। जब उस कमेटी ने कोई काम ही नहीं करना था या उसकी सिफारिशों की आवश्यकता ही नहीं थी तो उसका गठन क्यों किया गया।

देखिए :-उपधारा 143 क में कहा गया था कि:- राज्य सरकार अथवा जिलाधिकारी जैसी भी स्थिति हो, के द्वारा भूमि क्रय करने की दी गयी अनुमति की शर्तों का पालन न करने पर अथवा किन्हीं शर्तों का उल्लंघन करने पर अथवा जिस प्रयोजन हेतु भूमि क्रय की गयी है उससे अन्यथा प्रयोग करने पर भूमि का अन्तरण शून्य होगा एवं धारा 167 के परिणाम उत्पन्न हो जायेंगे। document collection – Jay Singh Rawat

धारा 143 क में जमीन बिकी जमीन जब्त करने का भी प्रावधान था

उत्तराखण्ड विधानसभा के 14 से 17 जून तक चले बजट सत्र में राज्य सरकार ने उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) में एक बार फिर संशोधन कर भूमि उपयोग परिवर्तन संबंधी धारा 143 में नयी धाराएं जोड़ने के सथ ही त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2018 में औद्योगिक प्रयोजन के नाम से जोड़ी गयी उपधारा क और ख को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही अब भूमि उपयोग बदलने की वह बंदिश समाप्त हो गयी जिसमें कहा गया था कि जिस उद्देश्य  से जमीन ली गयी है अगर उस उद्देश्य के अनुरूप भूमि का उपयोग नहीं किया गया तो जमीन छीन ली जायेगी। यह प्रावधान इसलिये था ताकि सौदागर उद्योग के नाम पर सस्ती या रियायती जमीन खरीद कर उसे ऊंचे दामों पर न बेच सकें।

इस नए संशोधित अधिनियम में उप धारा 143 क को हटा कर नयी उपधाराएँ जोड़ दी गयी जो कि पूर्व शर्तों से क्रेता को मुक्त कर जमीन बेचने और कृषि भूमि को अकृषि बनाने की छूट देती हैं। collection- jay singh rawat

उद्योग के नाम पर ली गयी जमीन को बेचने का अधिकार दे दिया 

धारा 143 में नवीनतम संशोधन के बाद रियायतों का फायदा उठा कर औने पौने दामों पर जमीनें खरीदने वाले उद्योगपति और भूमि व्यवसायी अब उन्हीं जमीनों को ऊंचे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमाने के लिये स्वतंत्र हो गये। यही नहीं भविष्य में भी भूमि सौदागर उद्योगों के नाम पर लोगों की जमीनें खरीद कर भारी मुनाफा कमा सकेंगे। त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल में भूकानून को लेकर भड़के जनाक्रोश को शांत करने के लिये सरकार और सत्ताधारी दल ने दावा किया था कि अगर जमीन खरीदने वाला उस जमीन का अन्यत्र उपयोग करेगा तो उससे जमीन छीन ली जायेगी। अब सरकार ने कानून बदल कर स्वयं ही मनमानी का रास्ता खोल दिया।

बेरोकटोक खरीद फरोख्त के लिये आखिरी रोड़ा भी हटा दिया

दरअसल भाजपा की पिछली त्रिवेन्द्र सरकार ने औद्योगिक विकास के लिये उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) में 2018 में संशोधन किया था तो राज्य की जमीनें खुर्दबुर्द कराने के अरोपों से बचने के लिये इस संशोधित अधिनियम की धारा 143 में क और ख उप धाराएं जोड़़ दी गयीं थीं। उपधारा 143 क में कहा गया था कि:-
’’परन्तु यह कि राज्य सरकार अथवा जिलाािकारी जैसी भी थिति हो, के द्वारा भूमि क्रय करने की दी गयी अनुमति की शर्तों का पालन न करने पर अथवा किन्हीं शर्तों का उल्लंघन करने पर अथवा जिस प्रयोजन हेतु भूमि क्रय की गयी है उससे अन्यथा प्रयोग करने पर भूमि का अन्तरण शून्य होगा एवं धारा 167 के परिणाम उत्पन्न हो जायेंगे।’’

शर्तों का उल्लंघन करने वाले कलक्टर के अंकुश से हुये मुक्त

उपरोक्त भूकानून की धारा 167 में कलक्टर को अधिकार दिया गया है कि वह अमुक भूमि को राज्य सरकार में निहित कर उसमें उगे पेड़ों, फसल या सम्पति समेत उसका कब्जा ले। इसी उपधारा में स्पष्टीकरण दिया गया है कि ’’इस धारा में उल्लिखित ‘‘औद्योगिक प्रयोजन’ शब्द के अन्तर्गत चिकित्सा, स्वास्थ्य, एवं शैक्षणिक-प्रयोजन भी सम्मिलित हैं।’’ यह स्पष्टीकरण इसलिये दिया गया क्योंकि अस्पताल एवं स्कूल आदि को भी औद्योगिक यूनिट मान लिया गया था और उसी उद्ेश्य से स्कूल और निजी अस्पताल वालों ने जमीनें खरीदी थी। लेकिन व्यवसाय न चल पाने के कारण अब वे जमीनें बेचना चाहते थे।

तर्क यह कि कृषिभूमि को गैर कृषि घोषित करना जरूरी था

पहले से ही कई बार संशोधित जमीदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में संशोधन का कारण बताते हुये इसकी प्रस्तावना में मुख्यमंत्री ने कहा है कि,-‘‘उत्तराखण्ड राज्य में औद्योगिक/विकास को बढ़ावा देने के लिये तथा कृषि भूमि पर ऋण मिलने की कठिनाइयों के दृष्टिगत उद्यमियों/व्यवसायियों के आवेदन पर कृषिभूमि को गैर कृषिभूमि घोषित करना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम,1950) की धारा 143 में संशोधन किया जाना अपरिहार्य है।’’ इससे पहले औद्योगीकरण की आड़ में प्रदेश की बेशकीमती जमीनों को लुटवाने के लिये भूकानून मंे कुछ छेद किये गये थे, मगर कानून की मूल भावना का थोड़ा सा लिहाज करने के लिये कृषि भूमि की बेतहासा खरीद फरोख्त पर एक छोटी सी बंदिश भी रख छोड़ी थी जिसे धामी जी ने पूरी तरह हटा कर अब बची खुची कसर भी पूरी कर दी। अब उद्योग के नाम पर जमीन खरीद कर आप उसका कुछ भी कर सकते हैं या ऊंचे दामों पर बेच भी सकते हैं।

सवाल पहाड़ियों की सांस्कृतिक पहचान का

दरअसल उत्तराखण्ड राज्य की मांग केवल आर्थिक विकास और राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण के लिये ही नहीं बल्कि पहाड़ी क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिये भी की गयी थी। इसीलिये उत्तराखण्ड आन्दोलन में ही अन्य हिमालयी राज्यों की तरह इस क्षेत्र के लिये अनुच्छेद 371 के प्रावधानों की मांग की गयी थी। उत्तराखण्डवासियों को नवम्बर 2000 में नया राज्य तो मिल गया मगर पूर्वोत्तर की तरह विशिष्ट प्रशासन नहीं मिला। उसके बाद पहाड़ के लोगों ने कम से कम हिमाचल प्रदेश के टैनेंसी एण्ड लैण्ड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तरह नये भूकानून की मांग उठाई ताकि तराई की तरह बाहरी लोग आकर पहाड़ियों की जमीनें हड़प कर उन्हें भूमिहीन न बना दें और पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान ही समाप्त न कर लें। जनता की मांग को गंभीरता से लेकर राज्य के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस दिशा में पहल की। लेकिन भूमि सौदागरों ने उस समय भी दखल दी और अध्यादेश के बाद जो अधिनियम बना उसमें धारा 2 जुड़वा दी, जिसमें कहा गया कि अकृषक द्वारा कृषि योग्य जमीन खरीदने पर बंदिश नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं होगी और जब भी जिस नगर निकाय के क्षेत्र में विस्तार होगा, उन विस्तृत क्षेत्रों में भी बंदिशें स्वतः हट जायेंगी। इस धारा का लाभ उठाने के लिये त्रिवेन्द्र सरकार ने सत्ता में आते ही भूमि कानून की धारा 2 की कमियों का लाभ भूमि व्यवसायियों को देने के लिये प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गावों को नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेअर जमीन में खरीद फरोख्त के लिये रास्ता खोल दिया। इस मुहिम के तहत गढ़वाल मण्डल में देहरादून जिले में सर्वाधिक 85 ग्रामों के 20221.294 हैक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को नगर निगम के अतिरिक्त हरबर्टपुर, विकास नगर, ऋषिकेश, डोईवाला शामिल किया गया है।

तिवारी जी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये जरूरी बताया था अंकुश

पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने 2003 में नये भूकानून की प्रस्तावना में कहा था कि उन्हें बड़े पैमाने पर कृषि भूमि की खरीद फरोख्त अकृषि कार्यों और मुनाफाखोरी के लिये किये जाने की शिकायतें मिल रहीं थीं। उनका कहना था कि प्रदेश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को देखते हुये असामाजिक तत्वों द्वारा भी कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय नीति का लाभ उठाया जा सकता है। अतः कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय को नियंत्रित करने और पहाड़वासियों के आर्थिक स्थायित्व तथा विकास के लिये सम्भावनाओं का माहौल बनाये जाने हेतु यह कानून लाया जाना जरूरी है। उत्तराखण्ड में कृषि के लिये केवल 13 प्रतिशत जमीन वर्गीकृत है जिसका एक बड़ा हिस्सा पलायन के कारण उपयोग से बाहर हो गया। राज्य गठन के बाद ही लगभग 1 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य जमीन कृषि से बाहर हो गयी और ऐसी जमीन में या तो इमारतें उग गयीं या फिर जंगल-झाड़ियां दग गयी हैं। अगर इतनी सीमित जमीन भी पहाड़ के लोगों से छीन ली गयी तो उनकी पीढ़ियां ही भूमिहीन हो जायेंगी।

jaysinghrawat@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!