दो दिन में ही उत्तराखंड विधानसभा का सत्र हुआ पूरा: धर्म का कानून तो बना मगर भू कानून और लोकायुक्त लापता
-जयसिंह रावत –
देहरादून, 30 नवम्बर । उत्तराखंड विधानसभा का 29 नवम्बर से शुरू हुआ शीत कालीन सत्र अनुपूरक बजट पारित कर दो ही दिन में संपन्न हो गया। इस सत्र में सरकार ने धर्मान्तरण जैसे अपनी सुविधा और राजनीतिक लाभ वाले विधेयक तो पारित करा दिये मगर लोकायुक्त और भूमि कानून जैसे विधेयक फिर टाल दिये।
बुधवार को विधानसभा अध्यक्ष श्रीमती ऋतू खंडूरी भूषण ने दिन भर की कार्यवाही के बाद शाम को 5440 करोड़ का अनुपूरक बजट पास कराने के बाद विधान सभा की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी।
इस सत्र में सरकार ने विधानसभा से कुल 19 विधेयक पारित कराये जिनमे मुख्य उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक और उत्तराखंड लोक सेवा (महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण) विधेयक भी शामिल है। इनके अलावा उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम 1901 में भी संशोधन हो गया मगर भू कानून में सुधार या नया कानून लाने पर कोई विधेयक नहीं आया। जबकि सरकार बार -बार सशक्त भू कानून लाने के दावे करती रही है।
इस सत्र में सरकार वायदे के अनुसार सशक्त भू कानून तो नहीं लाई अलबत्ता सदन में उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश ज़मींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) ( संशोधन) विधेयक 2022 जो विधान सभा द्वारा 17 जून 2022 को पारित किया गया और, उसको राज्यपाल की अनुमति 22 जुलाई 2022 को मिलने की तथा उक्त विधेयक के अधिनियम बनने की सूचना अवश्य दी गयी। मतलब यह कि प्रदेश की जमीनो की खुली लूट पर थोड़ा बहुत अंकुश लगाने के लिए उपरोक्त अधिनियम की धारा 143 क में जो बंदिशें थीं वे अब समाप्त हो गयीं और उद्योगों के नाम पर धन्ना सेठों और जमीनखोरों ने जो जमीनें खरीदी थीं उनको वे अब महंगे दामों पर बेच सकते हैँ।
पिछली त्रिवेंद्र सरकार ने औद्योगीकरण के नाम पर उत्तराखंड के गरीब कश्तकारों की जमीनें हड़पवाने का रास्ता जरूर खोला और मगर साथ ही धारा 143 में उपधारा क जोड़ कर यह बंदिश अवश्य लगायी थी कि अगर कोई पक्ष उद्योग के जिस प्रयोजन के लिए जमीन लेगा और दो साल के अंदर उद्योग नहीं लगाएगा तो जिला कलेक्टर धारा 168 के तहत वह जमीन छीन कर सरकार के पक्ष में कर देगा। चुंकि वह समयावधी पूरी हो रही थी इसलिए भूखोरों की हिमायती सरकार ने धारा 143 की वह उपधारा क ही हटा दी। यह खुश खबरी इसी सत्र में दी गयी।
सरकार ने धर्मान्तरण कानून को और अधिक कठोर बनाने के लिए भी विधेयक पारित करा दिया, जबकि इसी राजनीतिक उद्देश्य से त्रिवेंद्र सरकार ने 2020 में यह कानून पहले ही बना दिया था। मौजूदा सरकार को अपनी धर्मनिष्ठ छवि को त्रिवेंद्र सरकार से अधिक गहरी साबित करनी थी, इसलिए त्रिवेंद्र सरकार द्वारा बनाये गये कानून को और अधिक कठोर बना दिया गया। सरकार का निशाना लव जेहाद है जबकि राज्य में धर्मान्तरण ईसाई मिश्नरियां कर रही हैँ। अनुसूचित जाति के लोग अछूत का टैग फेंकने और गरिमापूर्ण जीवन के लिए बाबा साहब अम्बेडकर की तरह बौद्ध धर्म अपना रहे हैँ।
भाजपा ने 2017 के चुनाव में सत्ता में आने के 100 दिन के अंदर बेहतरीन लोकायुक्त कानून लाने का वायदा किया था। सौ दिन क्या 5 साल निकलने के बाद दूसरी पारी में भी साल निकल गया, लेकिन उस आदर्श लोकायुक्त का कहीं अता पता नहीं। उत्तराखंड विधान सभा ने संसद द्वारा सर्व सम्मति से पारित जो लोकायुक्त अपनाया था और जिसके आधार पर 2016 में लोकायुक्त के गठन की प्रक्रिया शुरू हुयी थी उसका भी गला घोंट कर मार दिया। इस बीच पिछली सरकार के कार्यकाल में खंडूरी सरकार के कार्यकाल का लोकायुक्त बिल खोद कर निकाला गया मगर उस पर भी दर्जनों संशोधन कराये गये और फिर विधानसभा की आलमारी में बंद कर दिया गया ताकि सुप्रीमकोर्ट दखल न दे सके। कोर्ट ने राज्य सरकार को जब तीन महीने के अंदर लोकायुक्त लाने का आदेश 2019 में दिया था तो तत्कालीन सरकार ने लोकायुक्त का अधूरा विधेयक विधानसभा की आलमारी मे बंद करा दिया था। कोर्ट अब विधानसभा को आदेश तो नहीं दे सकता। लोकायुक्त की बात आती है तो सरकार बिल विचाराधीन कह कर पल्ला झाड़ देती है।
नियमानुसार विधानसभा की साल में कम से कम 60 बैठाकें होनी चाहिए ताकि राज्य की समस्याओं और भविष्य की योजनाओं पर विस्तार से मंथन हो सके। लेकिन अब दो ही दिन में विधान सभा के सत्र निपटाने का रिवाज शुरू हो गया है। ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में तो सरकार और विधायकों को ठंड लगती है लेकिन अब देहरादून में भी ठंड लगने लगी है । भराड़ी सैण में अगर ग्रीष्म काल में भी सरकार को ठंड लगनी है तो उसे ग्रीष्म कालीन राजधानी की घोषणा का क्या मतलब?
विधायक साल में 20 दिन भी विधानसभा में नहीं बैठ रहे हैँ और हर साल उनके वेतन भत्तों और अन्य सुविधाओं मे. वृद्धि हो रही है। दुधारू बिधायक निधि बढ़ती जा रही है। जीवनभर सरकार की सेवा करने वाले कर्मचारियों की पेंशन बंद है और साल में एक महीन से कम विधानसभा में हाजिरी देने वाले विधायक जितनी बार विधायक बनेगे उतनी बार पेंशन के हक़दार हैँ। क्योंकि वे खुद ही मांगने वाले और खुद ही खुद को देने वाले हैँ।