आखिर क्यों होती है बंगाल की खाड़ी में सर्वाधिक बारिश ?
चित्र : औसत मौसमी मानसून (जेजेएएस) वर्षा ( मिमी / दिन ) (क) वर्तमान समय (सीआरयू अवलोकन, 1986-2015 ईपू (सीई) और (ख , ग़ घ , च) पिछली सदी के लिए मॉडल सिमुलेशन (सीईएसएम 2, 1550-1850) सीई और एचएडीसीएम 3, 900–1300 सीई) और मिड-होलोसीन (एमआरआई- सीजीसीएम 3 , 4050–3950 बीपी यानी 2100–2000 बीसीई और सीईएसएम 2, 6000–5300 बीपी अर्थात 4050–3350 ईपू. (बीसीई)।
Regions surrounding the northern Bay of Bengal (BoB) received higher precipitation than the other parts of India for the last 10200 years, says a new study that traced the dynamics of Indian Summer Monsoon Rainfall (ISMR) over the 10000 years – a period which witnessed the development and fall of numerous ancient civilizations around the world, many of which were associated with climate instability. The study can help understand long-term trends of climate change impacts on the ecosystems and may help mitigate future climate extremities.
––uttarakhandhimalaya.in —
बंगाल की उत्तरी खाड़ी (बे ऑफ़ बंगाल – बीओबी) के आस-पास के क्षेत्रों में पिछले 10200 वर्षों से भारत के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक वर्षा हुई है। ऐसे एक नए अध्ययन में बताया गया है कि 10000 वर्षों में भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (आईएसएमआर) की गतिशीलता की जानकारी मिली है – यह एक ऐसी अवधि जिसने विश्वभर में कई प्राचीन सभ्यताओं का विकास और पतन देखा है तथा जिनमें से कई दृष्टांत जलवायु अस्थिरता से जुड़े हुए थे। यह अध्ययन पारिस्थितिक तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के दीर्घकालिक रुझानों को समझने में मदद कर सकता है और भविष्य में जलवायु की प्रतिकूल चरम सीमाओं को कम करने में मदद कर सकता है।
भारतीय कृषि भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (इंडियन समर मानसून रेनफाल–आईएसएमआर) पर बहुत अधिक निर्भर है। बंगाल बेसिन अथवा ‘बंगाल क्षेत्र’ आईएसएम की बंगाल की खाड़ी (बीओबी) शाखा के प्रक्षेपवक्र (ट्रेजेक्टरी) पर स्थित होने के कारण भारत का ग्रीष्मकालीन मानसून अपनी शक्ति में परिवर्तन के प्रति बहुत संवेदनशील है। यहां तक कि आईएसएम की ताकत में न्यूनतम बदलाव से ही क्षेत्र की कृषि आधारित सामाजिक आर्थिक स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। हालांकि, इस क्षेत्र में पिछले आईएसएम परिवर्तनशीलता के लिए कोई व्यवस्थित दीर्घकालिक रिकॉर्ड (उपकरण अवधि की सीमा से परे) उपलब्ध नहीं था।
बीएसआईपी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त संस्थान-बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पेलियोसाइंसेस–बीएसआईपी) ने पहली बार, इस क्षेत्र से आईएसएम परिवर्तनशीलता के इतिहास को जैविक (बायोटिक) और अजैविक (एबायोटिक) दोनों स्थानापन्नों (प्रॉक्सी) का उपयोग करके पुनर्निर्माण किया है जो इसके उपकरणीय अभिलेखों (इंस्ट्रूमेंटल रिकॉर्ड) (19 वीं शताब्दी से पहले अभिलिखित लिए गए आंकड़ों) से पहले का है। बंगाल क्षेत्र के पिछले 10.2 केए समयावधि (10,200 वर्ष) के जलीय (हाइड्रो) -जलवायु इतिहास में पैलियोजियोग्राफी, पेलियोक्लिमेटोलॉजी, पैलेओकोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित वैज्ञानिकों की एक टीम बताती है कि इस क्षेत्र द्वारा 10.2 – 5.6 केए के दौरान एक भारी आईएसएमआर देखा गया था। यह आईएसएम 4.3 केए से घट गया। परन्तु आईएसएम 3.7 और 2.1केए कालखंड के बीच फिर से मजबूत हो गया जिसके बाद यह कुछ समय के लिए यह एक शुष्क (ड्रायर) मोड में चला गया। आईएसएम ने 0.2–0.1 केए के दौरान अपनी क्षमता वापस पा ली। कमजोर चरणों में से, लगभग 4.3 केए का कमजोर होना सबसे गंभीर था और उसका पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
वैज्ञानिकों ने बंगाल बेसिन के उत्तरी भाग से एक सूखी झील के तल से तलछट के नमूने एकत्र किए और तलछटी अनुक्रम के आयु-गहराई मॉडल के निर्माण और विभिन्न पुरा-जलवायु संबंधी मापदंडों को मापने के लिए मानक तकनीकों का पालन किया गया। उन्होंने इस अध्ययन के परिणामों को मान्य करने के लिए अलग-अलग समय अवधि के लिए पैलियो मॉडलिंग प्रयोगों से कुछ पैलियो-मॉडल परिणाम (आउटपुट) के साथ प्रॉक्सी-आधारित परिणामों की तुलना की। संख्यात्मक मॉडल ने जलवायु परिवर्तन के स्थानिक-अस्थायी आयामों में अंतर्दृष्टि प्रदान की और विशिष्ट सीमा स्थितियों के अंतर्गत विभिन्न जलवायु घटकों के बीच गतिशील संबंधों का विश्लेषण करने में सहायक बना। इन डेटासेट को मिलाकर फिर उन्होंने बंगाल क्षेत्र में होलोसीन आईएसएम परिवर्तनशीलता के समय, क्षेत्रीय सुसंगतता और कारणों की जांच की।
उन्होंने बंगाल बेसिन के भारतीय भाग में मानसून की परिवर्तनशीलता को प्रभावित करने वाले चालकों की खोज की और पाया कि जहां एक ओर आईएसएम वर्षा में सहस्राब्दी-पैमाने पर आए बदलाव को बड़े पैमाने पर अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (इन्टर ट्रॉपिकल कन्वर्जेन्स जोन – आईटीसीजेड- वह क्षेत्र जहां उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व व्यापारिक हवाएं अभिसरित होती हैं) के सौर अलगाव और गतिशीलता में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।), वहीँ सौ वर्ष के पैमाने पर बदलाव सामूहिक रूप से उत्तरी अटलांटिक दोलन (ओससिलेशन), एल नीनो दक्षिणी दोलन (ओससिलेशन) और हिंद महासागर द्विध्रुव (डाइपोल) जैसी घटनाओं से शुरू हो सकते हैं।
बंगाल बेसिन के भारतीय हिस्से में मानसूनी परिवर्तनशीलता पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वैज्ञानिकों ने जैविक बायोटिक (पादप अभिलेखों (फाइटोलिथ्स), सकल प्राथमिक उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी– एनपीपीएस ) और स्थिर कार्बन समस्थानिक (स्टेबल कार्बन आइसोटोप)] तथा अजैविक (पर्यावरणीय चुंबकीय पैरामीटर (एनवार्नमेंटल मैग्नेटिक पैरामीटर्स) और कण आकार (ग्रेन साईंज) डेटा वाले दोनों स्थानापन्न (प्रॉक्सी) डेटा को पिछले हाइड्रोक्लाईमैटिक परिवर्तनों के पारिस्थितिकी तंत्र की प्रतिक्रिया को समझने के लिए जोड़ा। उन्होंने अनुमान लगाया कि झील पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन भारतीय ग्रीष्मकालीन वर्षा (आईएसएम) से अत्यधिक प्रभावित थे।