90 प्रतिशत आयुर्वेद जड़ी बूटियों पर आधारित : जहरीली बूटियां भी बन जाती हैं जीवन रक्षक
–जयसिंह रावत
विश्व में और खासकर यूरोप में प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद लोकप्रिय होती जा रही है। आयुर्वेदिक उपचार रोग के उपचार के बजाय किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य में संतुलन लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। सिद्धान्ततः आयुर्वेद शरीर, मन, आत्मा और इंद्रियों के पूर्ण मिलन के रूप में जीवन की कल्पना करता है और इस अति महत्वपूर्ण प्राचीन चिकित्सा पद्धति की 90 प्रतिशत औषधियां जड़ी बूटियों पर आधारित होती है। जड़ी का मतलब वनस्पपति के जमीन के अंदर का हिस्सा और बूटी का मतलब जमीन से ऊपर का हिस्सा जिसमें तना, पत्तियां, फल एवं फूल शामिल होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की नब्बे के दशक में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की 80 प्रतिशत आबादी प्रथमिक चिकित्सा के लिये वनस्पतियों पर आधारित पारम्परिक औषधियों पर निर्भर थी।
जहरीले पौधों को भी संजीवनी बनता है आयुर्वेद
माना जाता है कि अगर किसी दवा का का गलत उपयोग किया जाय तो वह जहर का काम कर सकती है जबकि जहर का सही विधि से तैयार और सही खुराक के रूप में उपयोग किया जाय तो वह जहर जीवन रक्षक औषधि बन सकता है। आयुर्वेद में इन सब विधियों और जड़ी बूटियों का उल्लेख है। जैसे अकोनाइट या अतीस एक प्रसिद्ध वनौषधि है, जो सामान्यतः विषैले स्वभाव की होती है, किंतु नियमित मात्रा में सेवन करने से इसके औषधीय गुण प्रकट होते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में औषधीय प्रयोजनों के लिए उपयोग किए जाने वाले लगभग 10,000 पौधों में से, केवल 1200 से 1500 को 3000 से अधिक वर्षों में आधिकारिक आयुर्वेदिक फार्माकोपिया में शामिल किया गया है। आयुर्वेदिक फार्माकोपिया का हिस्सा बनने से पहले सभी पौधों का अच्छी तरह से अध्ययन किया जाना चाहिए।
वनस्पतियों के उपयोग का उल्लेख ऋगवेद में
रामायण में लक्ष्मण के मूर्छित होने पर हिमालय से प्राप्त संजीवनी बूटी से उनके इलाज का उल्लेख इस बात का सबूत है कि कि ईसा से भी छटी या सातवीं शताब्दी पूर्व त्रेता युग में भी जीवन रक्षा के लिये जड़ी बूटियों का उपयोग किया जाता था। भारत में बीमारियों के उपचार के लिये वनस्पतियों के उपयोग का उल्लेख सबसे पहले ऋगवेद में मिलता है। ऋगवेद के बाद वनोषधियों का उल्लेख चरक तथा सुश्रुत संहिताओं में मिलता है, जिनका श्रृजन भी ईसा पूर्व में हुआ था।
पौधे विषम परिस्थितियां में धारण करते हैं औषधीय गुण
आयुर्वेदिक पौधों का शरीर पर भोजन या मसालों की तुलना में अधिक प्रभाव पड़ता है। रॉयल बॉटेनिकल गार्डन की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुमान अनुसार इस धरती पर लगभग 3.91 लाख पादप प्रजातियां हैं जिनमें 94 प्रतिशत पुष्पीय पौधे हैं। पादपों की इतनी प्रजातियां पृथ्वी के विभिन्न जलवायु और भौगोलिक क्षेत्रों में उगती और जीवित रहती हैं। इनमें से कुछ प्रजातियां अत्यन्त ठण्ड और कुछ अत्यन्त गर्म क्षेत्रों में पायी जाती है जहां सामान्य प्रजातियों के जीवित रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दरअसल इन विकटतम् परिस्थितियों का प्राकृतिक दबाव इन पादप प्रजातियों पर पड़ता है। इस दबाव को सहन करने और उसके अनुकूल बन जाने के लिये उन पादपों में आत्मरक्षा की विधियां विकसित हो जाती हैं और ये विधियों अनके प्रकार के विशिष्ट रसायनों के रूप में होती हैं। ये रसायन औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं और इनके ज्ञान से ही रोग निवारक दवाओं का निर्माण किया जाता है। यही विशिष्टता विकट जलवायु संबंधी परिस्थितियों में जीवित रहने वाले जीवों में भी होती है।
जड़ी बूटियों का खजाना है हिमालय
उत्तराखण्ड प्राकृतिक वनस्पतियों का खजाना है। चरक संहिता में इस क्षेत्र को वानस्पतिक बगीचा और हिमालय को हिमवंत औषधं भूमिनाम कहा गया है। राज्य में लगभग 500 प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इनमें से कई पौधों को स्थानीय लोग सब्जी या चटनी के रूप में खाने, तेल निकालने, जूस पीने तथा औषधियाँ (जैसे किल्मोड़ा को पीलिया में, घोड़चक को अतिसार में, मरोड़फली को सर्पविष और चिरायता को ज्वर उतारने में) के रूप में प्रयोग करते रहे हैं। ये पौधे राज्य के आय के प्रमुख स्रोत हैं। इनसे अनेकों प्रकार की आयुर्वेदिक, यूनानी, तिब्बती, एलोपैथिक एवं होमियोपैथिक आदि औषधियाँ, सौन्दर्य प्रसाधन, खाद्य पदार्थ तथा रंग आदि बनाये जाते हैं। यहीं वह द्रोणागिरी पर्वत है जिसके बारे में सनातन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि हनुमान आकर लक्ष्मण का जीवन बचाने के लिये संजीवनी बूटी ले गये थे। यह द्रोणागिरी पर्वत विश्वविख्यात फूलों की घाटी के ही निकट है।
खतरे में जीवन रक्षक जड़ी बूटियां
विश्व में जड़ी-बूटियों की उपयोगिता के प्रति जागरूकता बढ़ने के कारण इनका विश्व व्यापार निरन्तर बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में जड़ी बूटियों का कारोबार 120 अरब अमरीकी डालर तक पहुंच गया है। हालांकि भारत के पास इतना बड़ा खजाना होने के बावजूद चीन आदि देश इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ चुक हैं। भारत में इन भेषजों का कारोबार 4.2 अरब रुपये तक अनुमानित है। घरेलू एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में जड़ी बूटियों की मांग इस कदर बढ़ जाने के कारण जन वनस्पतियों पर मानव दबाव अत्यधिक बढ़ जाने से कई औषधीय पादप प्रजातियां संकटापन्न स्थिति में पहुंच गई हैं और कुछ तो अब नजर भी नहीं आती हैं।
कैंसर नाशक थुनेर अत्यधिक दोहन से संकटग्रस्त
हिमालय पर पाया जाने वाला थुनेर पौधा केंसर के इलाज के काम आ रहा है, इसलिये अत्यधिक दोहन के कारण उसका अस्तित्व संकट में है। सालम पंजा या डक्टाइलोराइजा हथजीरिया भी एक बहुत ही कीमती जड़़ी है। उसकी जड़ को ही उठा कर लेजाया जायेगा तो फिर रिजनेरेशन कैसे होगा? इसी प्रकार एकोनिटम बाल्फोरी जिसे मीठा जहर कहा जाता है एक जीवन रक्षक औषधि ही है। उसका भी भारी दोहन हो रहा है। कुटकी (पिक्रोराइजा) और वन ककड़ी (पोडोफाइलम हेक्साण्ड्रम) भी संकट में आ गये है। आजकल लोग कीड़ा जड़ी याने कि यार्शागम्बू का बेतहासा दोहन हो रहा है। इस जड़ी का उपयोग यौनवर्धक औषधि के रूप में किया जाता है। अत्यधिक दोहन के कारण हिमालय पर जिन औषधीय प्रजातियों का अस्तित्व संकट में आ गया है उनमें मीठा जहर, अतीस, सालमपंजा, निरबिसी,नील कंठ, जटामासी, वन ककड़ी, कुट, थुनेर, कालाजीरा, शजमूल, पदारा, कुटकी,सलाम मिश्री, सर्पगन्धा, डोलू की प्रजाति, ब्रह्मकमल, पत्थरचटा, काली मूसली, निशोध, ममीरा,एवं जंगली प्याज आदि शामिल हैं। वनोषधियों पर बढ़ते दबाव को कम करने के लिये जरूरी है कि उनका कृषिकरण किया जाय। पहाड़ी राज्यों में इस दिशा में कदम उठाये तो जा रहे हैं, मगर वे काफी नहीं है।