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शब्दयात्री-81 भद्र से भौंड़े तक

-सुशील उपाध्याय
भाषा में नए शब्दों के गठन, पुराने शब्दों के प्रयोगबाह्य होने और शब्दों के नए अर्थ ग्रहण करने का सिलसिला लगातार जारी रहता है। यह क्रम विद्वानों और कम पढ़े-लिखे लोगों, दोनों के बीच समान रूप से चलता है। वैसे, अर्थ-परिवर्तन, उसके कारणों, परिवर्तन की दिशाओं और संभावनाओं पर भाषा विज्ञान में विस्तार से विचार किया गया है। हिंदी के संदर्भ में अनेक ऐसे शब्द सामने आते हैं, जिनका अब पुराने अर्थों से कोई संबंध नहीं रह गया है या फिर उनके पुराने अर्थ को देख-सुनकर यह यकीन करना मुश्किल होता है कि ये अर्थ इसी शब्द का है। किसी भी शब्द और उसके अर्थ का संबंध यादृच्छिक यानि काल्पनिक ही होता है। जहां तक किसी शब्द का अर्थ ग्रहण करने की बात है तो यह मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त भाषा-व्यवहार से ही होता है। यहाँ तक कि अनपढ़ व्यक्ति भी भाषा का प्रयोग व्यवहार से ही सीखता है। अर्थ-बोध का दूसरा साधन शब्दकोश है, लेकिन यह प्रबुद्ध वर्ग तक सीमित है इसलिए सैंकड़ों साल पुराने शब्द-अर्थ शब्दकोश में तो रह जाते, लेकिन आम व्यवहार से बाहर हो जाते हैं।
किसी शब्द के अर्थ में परिवर्तन को तीन प्रकार से देखा जाता है। पहला, जब कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- प्रवीण उसे कहते थे जो अच्छी तरह वीणा बजाता हो, लेकिन अब इसका अर्थ किसी भी कार्य में दक्ष व्यक्ति के रूप में निर्धारित है। यही स्थिति कुशल और कर्पट (कपड़ा) शब्द की है। अर्थ-संकोच उपर्युक्त का विपरीत है यानी पहले विस्तृत अर्थ में प्रयोग हुआ करता था और अब किसी सीमित अर्थ के लिए प्रयोग किया जाने लगा है। सर्प और मृग  ऐसे उदाहरण हैं जो भाषा विज्ञान की हर किताब में दिखाई देते हैं। सृप का अर्थ था सरकने या रेंगने वाला, लेकिन अब यह केवल सांप के अर्थ में प्रयोग होता है। इसी तरह मृग का मूल अर्थ पशु है इसलिए शेर को मृगराज कहा गया, लेकिन अब मृग का अर्थ केवल हिरण रह गया है। साहस और बलात्कार शब्द के मौजूदा अर्थ भी उपर्युक्त श्रेणी में ही आते हैं। भाषा वैज्ञानिक शब्दों में इन्हें क्रमशः अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष कहते हैं। अर्थापकर्ष का एक उदाहरण आकाशवाणी शब्द भी है। पुराणों में इसका अर्थ ईश्वरीय वाणी के रूप में है, जबकि वर्तमान में इसे सरकारी रेडियो के तौर पर जानने लगे हैं। इस तरह देख सकते हैं कि इस शब्द का अर्थ निम्न कोटि में परिवर्तित हुआ है।
अर्थ में परिवर्तन की तीसरी श्रेणी को अर्थादेश कहते हैं। इसमें कोई शब्द अपने मूल अर्थ से पूरी तरह भिन्न अर्थ में स्वीकार किया जाने लगता है। हम सभी अथ-इति, आरंभ-समापन जैसे शब्दों को जानते हैं, लेकिन उपक्रम-उपसंहार को लेकर भ्रम पैदा हो जाएगा। आज उपक्रम का अर्थ है, एक विशेष श्रेणी की सरकारी संस्था। जैसे, ओएनजीसी भारत सरकार का उपक्रम है, लेकिन इसका मूल अर्थ है आरंभ। वैसे, उपसंहार का अर्थ भले ही समापन हो, लेकिन इसकी ध्वनि नष्ट करने की ओर ज्यादा इशारा करती है।
भाषा के विकास के संदर्भ में इस बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि व्याकरण के पास हर बात का जवाब या हर समस्या का समाधान नहीं है। भाषा के सामान्य व्यवहार में अक्सर ऐसी संख्याओं का प्रयोग किया जाता है, जिनसे गहरे अर्थ निकलते हैं। मसलन, वो आदमी दो नंबरी है, उसकी चार सौ बीसी को सभी जानते हैं। इसी प्रकार बुरे व्यक्ति के लिए दस नंबरी का प्रयोग किया जाता है। और किसी की शक्ल पर बारह बजे हों तो ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती। इन उदाहरणों को संख्यावाची शब्दों में अर्थ विस्तार की प्रवृत्ति के रूप में देख सकते हैं। कई बार शब्दों के तद्भव रूप भी मूल अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं। जैसे -श्रेष्ठ (महान या श्रद्धेय) का तद्भव सेठ बना और यही सेठ अब व्यापारी-कारोबारी के अर्थ में परिवर्तित हो गया। संस्कृत के भद्र की हिंदी में और भी अधिक दुर्गति हुई। यह नकारात्मक अर्थ की ओर चला गया। भद्र शब्द ने भद्दे या भौंड़े तक की यात्रा कर ली।
ऐसा नहीं है कि हमेशा अर्थ ही बदलते हैं। कई बार शब्दों का रूप भी बदल जाता है, लेकिन अर्थ ज्यों के त्यों रहते हैं। दोपहर, दोपहरी, एकमुश्त, एकतरफा, एकतारा, एकबारगी, एकलौता, छोटपन, ऊंचाई, ऊपरला आदि शब्दों की वर्तनी गलत है, लेकिन इनके अर्थ वही हैं जो दुपहर, दुपहरी, इकतरफा, इकमुश्त, इकतारा, इकलौता, छुटपन उंचाई और उपरला के थे। अक्सर शब्द और अर्थ परिवर्तन की गति इतनी तेज होती है कि सही को गलत और गलत के सही होने का भ्रम होने लगता  है।
जारी…

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