जोशीमठ ही नहीं उत्तराखण्ड के सेकड़ों गांव और दर्जनों शहर खतरे में
-जयसिंह रावत
भारत-चीन सीमा के निकट देश के अंतिम शहर जोशीमठ की बरबादी ने न केवल उत्तराखण्ड सरकार और इसके निवासियों को अपितु भारत की सरकार और करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों को चिन्ता में डाला हुआ है। चिन्ता हो भी क्यों नहीं ? यह कोई मामूली शहर न हो कर आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित भारतवर्ष की चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से एक होने के साथ ही सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यहीं से हमारी सेना, पैरा मिलिट्री और प्रशासन द्वारा चीन की ओर से निरन्तर घुसपैठ की कोशिशों पर नजर रखी जाती है। यहीं से बदरीनाथ और हेमकुण्ड साहिब यात्रा भी नियंत्रित की जाती है। लेकिन बड़ी चिन्ता का विषय यह है कि जोशीमठ अकेला शहर नहीं जो कि खतरे में हो। राज्य के लगभग 465 गांव अब तक भूस्खलन के खतरे में माने गये हैं। चारों हिमालयी धाम और मसूरी तथा नैनीताल भी खतरे की जद में माने गये है।
कई नगर और 465 गांव खतरे में
सन् 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद राज्य सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वे में 395 गांव खतरे में पाये गये थे जिनमें से 73 अत्यन्त संवेदनशील थे। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण 7 जून 2021 को जारी विज्ञप्ति के अनुसार 2012 से लेकर 2021 के बीच, सरकार ने 465 संवेदनशील गांवों की पहचान की है, जहां से परिवारों को स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। इस अवधि के दौरान, केवल 44 गांवों में 1,101 परिवारों को स्थानांतरित कर दिया गया। राज्य आपदा प्रबंधन केन्द्र के सर्वेक्षणों में मसूरी और नैनीताल भी खतरे की जद में हैं। नैनीताल में सन् 1880 में आये भूसक्षलन में 151 लोग मारे गये थे।
खोखला कर दिया पहाड़ परियोजनाओं ने
हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के लिये प्रकृति के साथ अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप भी खतरे का कारण है। चारधाम आल वेदर रोड के निर्माण के समय इसरो द्वारा तैयार लैंड स्लाइड जोनेशन एटलस की अनदेखी किये जाने से दर्जनों सुसप्त भूस्खलन पुनः सक्रिय होने लगे हैं। ऋषिकेश- कर्णप्रयाग रेल की सुरंगों के निर्माण में भारी विस्फोटों के कारण कई बस्तियां खतरे में पड़ गयी। बिजली पररियोजनाएं तो पहले से ही पहाड़ों को खोखला कर रही थी। कर्णप्रयाग रेल लाइन की सुरंग के निर्माण से टिहरी का अटाली गांव, चमोली का सारी गांव और रुद्रप्रयाग के मरोड़ा गांव पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इस परियोजना के विस्फोटों ने श्रीनगर शहर के कुछ कस्बों को भी हिला कर रख दिया। उत्तरकाशी में 1991 के भूकम्प के बाद कई गांव संवेदनशील हो गये। जिला प्रशासन में 26 गांवों को संवेदनशील घोषित किया है। गंगोत्र मार्ग पर स्थित भटवाड़ी कस्बा भी जोशीमठ की तरह खिसक रहा है। इसी तरह मस्तड़ी गांव में मकानों पर दरारें आयी हुयी है।
बैंकुण्ठ धाम भी सुरक्षित नहीं
अपने ही बोझ तले धंसते जा रहे जोशीमठ से मात्र 46 किमी की दूरी पर स्थित बदरीनाथ इन दिनों उसके मास्टर प्लान के लिये चर्चा में रहा है। इस मास्टर प्लान को ही हिन्दुओं के इस सर्वोच्च धाम की मौलिकता के साथ ही नैसर्गिकता से छेड़छाड़ माना जा रहा है। यहां हर चौथे या पांचवे साल भारी क्षति पहुंचाने वाले हिमखण्ड स्खलन का इतिहास रहा है। सन् 1978 में वहां दोनों पर्वतों से इतना बड़ा एवलांच आया जिसने पुराना बाजार लगभग आधा तबाह कर दिया और खुलार बांक की ओर से आने वाले एवलांच ने बस अड्डा क्षेत्र में भवनों को तहस नहस कर दिया था। बदरीनाथ को एवलांच के साथ ही अलकनंदा के कटाव से भी खतरा है। बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुयी थी, इसके खुलने पर नदी का जल स्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। मंदिर के ठीक नीचे करीब 50 मीटर की दूरी पर तप्त कुंड के ब्लॉक भी अलकनंदा के तेज बहाव से खोखले होने से तप्त कुंड को खतरा उत्पन्न हो गया है। मंदिर के पीछे बनी सुरक्षा दीवार टूटने से नारायणी नाले और इंद्रधारा के समीप बहने वाले नाले में भी भारी मात्र में अक्सर मलबा इकट्ठा हो जाता है। इससे बदरीनाथ मंदिर और नारायणपुरी (मंदिर क्षेत्र) को खतरा रहता है। इससे पहले 1974 में भी बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट ने भी बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करने का प्रयास किया था। लेकिन चण्डी प्रसाद भट्ट और ब्लाक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत के नेतृत्व में स्थानीय लोगों के विरोध के कारण धाम की पौराणिकता से छेड़छाड़ रुक गयी।
सुरक्षा उपायों ने असुरक्षित कर दिया केदारनाथ
जोशीमठ की ही तरह केदारनाथ भी जोशीमठ की तरह ग्लेशियर और भूस्खलन के भारी मलबे के ऊपर स्थापित है। गत वर्ष सितम्बर में वहां बार-बार एवलांच आने की झाटनाओं के बाद राज्य सरकार ने अक्टूबर में राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के निदेशक डा0 पियुष रौतेला के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ कमेटी के माध्यम से वस्तुस्थिति का जायजा लिया तो कमेटी ने केदारनाथ को ऐवलांच के खतरे से तो सुरक्षित माना मगर चोराबाड़ी तथा एक अन्य ग्लेशियर द्वारा लाये गये अस्थिर और सक्रिय आउटवाश (मलबे) में स्थित इस धाम में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की। कमेटी ने इस धाम के दोनों ओर बह रही मंदाकिनी और सरस्वती के द्वारा हो रहे कटाव का भी उल्लेख किया था। इससे पूर्व भूगर्व सर्वेक्षण विभाग ने भी रामबाड़ा से ऊपर किसी भी तरह के भारी निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। लेकिन केदारनाथ आपदा के बाद सुरक्षा के नाम पर वहां पहले ही भारी भरकम निर्माण हो चुका था।
गंगोत्री भी खतरे में
भागीरथी के उद्गम क्षेत्र में स्थित गंगा नदी का गंगोत्री मंदिर के लिये भैंरोझाप नाला खतरा बना हुआ है। समुद्रतल से 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर का निर्माण उत्तराखण्ड को जीतने वाले नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने 19वीं सदी में किया था। भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत ने अपनी एक रिपोर्ट में गंगोत्री मंदिर के पूर्व की ओर स्थित भैरांेझाप नाले को मंदिर के अस्तित्व के लिये खतरा बताया था। मार्च 2002 के तीसरे सप्ताह में नाले के रास्ते हिमखण्डों एवं बोल्डरों के गिरने से मंदिर परिसर का पूर्वी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। यह नाला नीचे की ओर संकरा होने के साथ ही इसका ढलान अत्यधिक है। इसलिये ऊपर से गिरा बोल्डर मंदिर परिसर में तबाही मचा सकता है।
गंगोत्री को 97 वर्ग किमी संवेदनशील
इसरो द्वारा देश के चोटी के वैज्ञानिक संस्थानों की मदद से तैयार किये गये लैण्ड स्लाइड जोनेशन एटलस के अनुसार गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग कि.मी. इलाका भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है जिसमें से 14 वर्ग कि.मी. का इलाका अति संवेदनशील है। गोमुख का भी 68 वर्ग कि.मी. क्षेत्र संवेदनशील बताया गया है।
यमुनोत्री को कालिन्दी पर्वत से खतरा
यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री मंदिर के सिरहाने खड़े कालिंदी पर्वत से वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से मंदिर परिसर के कई निर्माण क्षतिग्रस्त हुए तथा छह लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2007 में यमुनोत्री से आगे सप्तऋषि कुंड की ओर यमुना पर झील बनने से तबाही का खतरा मंडराया जो किसी तरह टल गया। वर्ष 2010 से तो हर साल यमुना में उफान आने से मंदिर के निचले हिस्से में कटाव शुरू हो गया है। कालिन्दी पर्वत यमुनोत्री मन्दिर के लिये स्थाई खतरा बन गया है। सन् 2001 में यमुना नदी में बाढ़ आने से मंदिर का कुछ भाग बह गया था।
लैण्ड स्लाइड जोनेशन एटलस की कर दी अनदेखी
पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर कैबिनेट सचिव की पहल पर इसरो ने सन् 2000 में वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान, भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, भौतिकी प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी उपग्रह संस्थान आदि कुछ वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग से हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के आसपास के क्षेत्रों का लैण्ड स्लाइड जोनेशन एटलस तैयार किया था। उसके बाद इसरो ने ऋषिकेश से बद्रीनथ, ऋषिकेश से गंगोत्री, रुद्रप्रयाग से केदारनाथ और टनकपुर से माल्पा ट्रैक को आधार मान कर जोखिम वाले क्षेत्र चिन्हित कर दूसरा नक्शा तैयार किया था। इसी प्रकार संस्थान ने उत्तराखण्ड की अलकनन्दा घाटी का भी अलग से अध्ययन किया था।