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महेंद्र भट्ट भाजपा के नए कप्तान : हारे को हरि नाम


-दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने सीमांत चमोली जिले से राज्य गठन के बाद पहली बार किसी नेता को प्रदेश की कमान सौंपी है और यह नेता हैं महेंद्र भट्ट। एक बार नंदप्रयाग और एक बार बदरीनाथ सीट से विधायक रह चुके महेंद्र भट्ट को कमान सौंपने से बेशक कुछ लोग चकित हो सकते हैं लेकिन जब खटीमा से चुनाव हार चुके पुष्कर सिंह धामी को भाजपा पुनः मुख्यमंत्री बना सकती है तो महेंद्र भट्ट की ताजपोशी पर भी अचरज नहीं होना चाहिए। बात बेशक दूसरे संदर्भ की हो लेकिन हारे को हरि नाम की कहावत यहां चरितार्थ तो हो ही रही है।

आपको याद होगा इसी साल मार्च में हुए उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में 50 वर्षीय महेंद्र भट्ट को बदरीनाथ विधानसभा सीट से पराजय का सामना करना पड़ा था। हालांकि उनकी पराजय मामूली अंतर से हुई थी, लेकिन लगातार दो बार सत्ता में आ रही पार्टी के ऐतिहासिक चुनाव में उनकी पराजय बहुत लोगों को खली थी, कारण मोदी मैजिक के बावजूद धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बदरीनाथ सीट से चुनाव हार जाना उनके लिए आघात से कम नहीं था। उसकी भरपाई अब पार्टी ने उन्हें प्रदेश की कमान देकर कर दी है।
शैक्षिक दृष्टि से पोस्ट ग्रेजुएट महेंद्र भट्ट का कैरियर बेदाग रहा है। उनके विरुद्ध एक भी आपराधिक मामला दर्ज नहीं है। वे अपनी युवावस्था में उत्तराखंड भारतीय युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं।
हालिया विधानसभा चुनाव में महेंद्र भट्ट को बदरीनाथ विधानसभा सभा सीट से हार का सामना करना पड़ा। उन्हें कांग्रेस के राजेंद्र सिंह भंडारी ने करारी शिकस्त दी।
इस चुनाव में राजेंद्र सिंह भंडारी ने 32661 वोट मिले थे जबकि महेंद्र भट्ट की गाड़ी 30,595 के आंकड़े पर अटक गई थी। इस चुनाव में उन्हें 2,066 वोटों से हार का मुंह देखना पड़ा था। इससे पूर्व 2012 के विधानसभा चुनाव में भी बदरीनाथ सीट से राजेंद्र सिंह भंडारी ने बीजेपी के प्रेमबल्लभ भट्ट को 10 हजार से अधिक वोटों के अंतर से हराया था लेकिन उसके बाद राजेंद्र सिंह भंडारी को 2017 के विधानसभा चुनाव में महेंद्र भट्ट ने हरा दिया था। तब भट्ट को 29676 वोट मिले थे, जबकि राजेंद्र भंडारी को 24042 वोट मिले थे। उन्हें 5634 वोटों से पराजय का सामना करना पड़ा था।
अब बात करें भट्ट की चुनौतियों की। बीते दिनों उन्होंने सीएम से गैरसैंण को जिला बनाने की मांग की थी। गैरसैंण का मुद्दा भाजपा के लिए काफी संवेदनशील है। ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के बावजूद जो पार्टी वहां का रुख करने से कतराती हो, उससे मामले की संवेदनशीलता को समझा जा सकता है जबकि विपक्षी कांग्रेस इस मुद्दे को बराबर तूल देती आ रही है। यह अलग बात है कि जब कांग्रेस सत्ता में रही तो उसने भी गैरसैंण के मुद्दे पर लोगों को बहलाया भर है। मतलब साफ है कि राजनीतिक लाभ के लिए गैरसैंण मुद्दे का फुटबॉल तो बना किंतु पहाड़ की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, भावनाओं और संवेदनाओं को केवल चुनावी लाभ हासिल करने तक ही सीमित रखा गया है। महेंद्र भट्ट चूंकि पर्वतीय परिवेश से हैं तो उन पर गैरसैंण का दबाव तो रहेगा ही। उनके लिए अच्छी बात यह है कि उन्हें कांग्रेस की तरह मेंढकों को तोलना नहीं पड़ेगा। भाजपा की यह विशेषता है कि वह अपने अंतर्विरोधों को बहुत सफाई से सुलझा देती है और यही बात उसे कांग्रेस से अलग करती है। हालांकि पार्टी में नेताओं को देखते हुए यह तय कर पाना कठिन होता है कि कौन कांग्रेसी है और कौन 24 कैरेट का शुद्ध भाजपाई, क्योंकि हाल के वर्षों में भाजपा का जिस तरह से कोंग्रेसीकरण हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं है।
अब बात करें निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक की। हालिया चुनाव का नतीजा आने से पहले करीब एक दर्जन प्रत्याशियों ने आरोप लगाया था कि उनके साथ भितरघात हुआ है और शक की सुई जाहिर तौर पर कौशिक की ओर घूमी थी। बाद में नतीजे आए तो आरोप लगाने वाले ज्यादातर नेता जीत गए तो बात आई गई हो गई लेकिन यह इतना सहज नहीं है, जितना दिखता है। आप कह सकते हैं कि तभी से कौशिक के विरुद्ध माहौल बनना शुरू हो गया था और आज उसकी परिणति हुई है।
साफ तौर पर कहें तो महेंद्र भट्ट की ताजपोशी 2024 के चुनावी समर के मद्देनजर हुई है। यानी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में महेंद्र भट्ट की अग्निपरीक्षा भी होनी है। उनके सामने प्रदेश की पांचों लोकसभा सीटें जीतने की चुनौती है और इसके लिए उन्हें अपनी स्वीकार्यता भी सिद्ध करनी है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका समय आज से ही शुरू हो गया है। देखना यह है कि पूरे डेढ़ साल घर छोड़ कर पार्टी के लिए रात दिन एक करने में महेंद्र भट्ट कितने सफल होते हैं। कांग्रेस की तरह यहां पार्ट टाइम पॉलिटिक्स तो संभव नहीं है। यहां तो 24/7 का मामला है। लिहाजा महेंद्र भट्ट को प्रदेश के फलक पर उभरने का मौका मिला है तो साथ ही 2024 का लक्ष्य भी मिला है और यही उनकी सांगठनिक शक्ति के मूल्यांकन का मौका भी है।

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