पर्यावरणब्लॉग

जोशीमठ और जोशीमठ के बाद ……………

The situation arising out of the recent landslide in Joshimath is horrifying and again it is going to open old wounds. This squid is associated with the Himalayan regions that this has to face the same crisis year after year. The history of disasters is not new. With the advent of man on the Himalayas about three and a half thousand years ago, he must have had to contend with the sensitive ecology of the Himalayas, its active tectonics, and severe climatic extremes. But a paradoxical aspect of all this is that with the development of human civilization, instead of decreasing the number and size of disasters in the Himalayas, it has increased manifold. No matter how much we ignore it, it is a big question mark on the validity of the prevailing model of development.

–एस पी सती–

जोशीमठ में हालिया भूधंसाव से उत्पन्न स्थिति भयावह है और फिर वही पुराने घाव हरे करने वाली है। हिमालयी क्षेत्रों के साथ ये विद्रूप जुड़ा है कि उनको साल दर साल ऐसे ही संकट का सामना करना पड़ता है। आपदाओं का इतिहास नया नहीं है। लगभग साढ़े तीन हज़ार साल पहले हिमालय पर मानव के पदार्पण के साथ ही उसे हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकी, उसकी सक्रिय विवर्तनिकी और विकट मौसमी चरम स्थितियों से जूझना पड़ा होगा। परंतु इस सब का एक विरोधाभासी पहलू यह भी है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही हिमालय में आपदाओं की संख्या और आकार में कमी के बजाय इसमें कई गुना वृद्धि ही हुई है। चाहे हम जितना भी नज़रअंदाज़ करें परंतु विकास के प्रचलित मॉडल के औचित्य पर यह बड़ा प्रश्नचिन्ह

जोशीमठ में जो हो रहा है उसकी भूमिका पिछली आदनी सदी से भी अधिक समय से बन रही थी। असल में उत्तराखंड सहित हिमालय के क्षेत्रों में पिछले दशकों में जो हो रहा है, वो विकास नहीं वह वृद्धि है, अनियोजित-अनियंत्रित वृद्धि। विकास का तो मानवीय पहलू है, यह वैज्ञानिक और सुनियोजित तौर पर मानव कि जीवन शैली का स्टार उठाने की क्रियाशैली है। यह तो वृद्धि है, बेतरतीव वृद्धि। जोशीमठ के भूस्खलन की समस्या पर गठित मिश्रा समिति की जो रिपोर्ट सन 1976 में सरकार के सुपुर्द की गई थी, उस पर अमल न करके हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। जोशीमठ का सवाल इसलिए बड़ा है क्योंकि यह ऐतिहासिक, पौराणिक और सांस्कृतिक नगर है, यह इसलिए भी बड़ा है क्योंकि यह संकट लगभग चालीस हज़ार लोगों कि जिंदगी, जीवन चरिया और उनके भविष्य पर है। परंतु जोशीमठ ही बर्बाद हो रहा हो, ऐसा नहीं है। जोशीमठ जैसी स्थिति कि जद में उत्तराखंड के कई कस्बे और सैकड़ों गाँव हैं। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिमालय की सैकड़ों बस्तियों में यह संकट मंडरा रहा है। यह भी एक तथ्य है कि सभी पर मंडरा रहे इस संकट के कारण भी कमोवेश एक जैसे हैं।

यह बात अभी सभी को ज्ञात हो गई है कि वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही बता दिया था कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलवे में बसा हुआ कस्बा है। यहाँ भूस्खलन कि घटनाओं का इतिहास बहुत पुराना है। इतिहास में संदर्भ आता है कि सातवी ईस्वी में कत्यूर वंशी राजाओं ने इस नागरी को अपनी राजधानी बनाया था। लेकिन दसवीं सदी में यहाँ भूस्खलन होने के कारण कत्यूरियों ने यहाँ से अपनी राजधानी अन्यत्र विस्थापित कर दी थी। 1939 में स्विस वैज्ञानिक प्रोफ हेम तथा प्रोफेसर गानसर नें भी अपनी पुस्तक सेंट्रल हिमालया में ये लिखा है कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलवे में बसा हुआ है। भूस्खलन कि घटनाओं के बाद तत्कालीन गढ़वाल आयुक्त श्री महेश चन्द्र मिश्रा की एक कमेटी ने 1976 में उत्तर प्रदेश सरकार को एक रिपोर्ट जमा की थी जिसमें  सुझाव दिया गया था कि जोशीमठ में निर्माण कार्यों को बहुत नियंत्रित करने कि आवश्यकता है। इसके अलावा वहाँ मलवे में स्थित बड़े बड़े शिलाखंडों से छेड़ छाड़ न करने की सलाह भी दी गई थी। ब्लास्टीङ्ग्स और पेड़ों के कटान पर पूर्णटह प्रतिबंध की शिफारिश की गई थी। ये सब सुझाव तो ठंडे बस्ते में डाल दिये गए। जोशीमठ में बेहिसाब निर्माण कार्य किए गए, अंधाधुंध छेड़-छाड़ ढलानों पर किए गए। आर्मी और आईटीबीपी का बड़े प्रतिष्ठान स्थापित किए गए। औली नया पर्यटन हब्ब बन गया, वहाँ भी ढलानों पर बहुत छेड़छाड़ की गई। पूरे जोशीमठ में घरेलू जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं की गई। इसके अलावा जो प्रोजेक्ट्स सरकारों ने हालिया सालों में इस क्षेत्र में प्रारम्भ किए हैं और वे निर्माण की प्रक्रिया में हैं, इन अस्थाई ढालों के लिए वे भी अपशगुनी साबित हुये हैं।

यहाँ यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि जोशीमठ अकेला कस्बा नहीं है जो ध्वस्त होने की कगार पर खड़ा है। पूरे हिमालय में और विशेषकर उत्तराखंड में दर्जनों ऐसे कस्बे हैं जो टाइम बम पर बैठे हैं। उत्तराखंड का केस इसलिए भी विशेष है क्योंकि भूविज्ञानियों के अनुसार सम्पूर्ण हिमालय में उत्तराखंड क्षेत्र ही है जहां आठ से अधिक विराटता के भूकंप आने की सबसे अधिक संभावना है। इसी कारण भूवैज्ञानिक इस क्षेत्र को सेंट्रल सेस्मिक  गैप की संज्ञा देते हैं। और कोढ़ में खाज ये है कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भवन निर्माण में साधारण मानकों का भी पालन नहीं हुआ है। देहरादून हल्द्वानी जैसे इलाकों में भी कमोवेश ऐसी ही स्थिति है। 2015 के निपल भूकंप में यह देखने में आया है कि भूकंप का केंद्र भले ही उत्तर में पहाड़ों में रहा हो, लेकिन अधिकांश विध्वंश तराई क्षेत्रों में हुआ है। मतलब ये तय है कि बड़े भूकंप की दशा में देहारादून कोटद्वार, ऋषिकेश  हल्द्वानी रामनगर, चंपावत आदि शहरों में व्यापक विध्वंश की संभावना है। 26 जनवरी सान 2000 को गुजरात के भुज शहर में जो भूकंप आया थी उसमे बड़ी संख्या में स्कूली छात्र-छात्रा हताहत हुये थे। उत्तराखंड के पहाड़ों में स्कूल कालेज सबसे अधिक संवेदनशील हैं। अधिकांश स्कूल असुरक्षित स्थान पर और घटिया निर्माण के कारण बहुत ही असुरक्षित हैं। लाचार स्वास्थ्य सेवाए, आपदा से निपटने की जानकारी का अभाव, वस्तियों की अनियंत्रित और अनियोजित वृद्धि, उत्तराखंड को कुल मिला कर बहुत असुरक्षित क्षेत्र बनाते हैं।

सैकड़ों ऐसे गाँव हैं जिनके लिए विभिन्न अध्ययनों और सर्वे में सिफ़ारिश की गई है कि इनको तत्काल सुरक्षित स्थानों पर पुनर्वासित किया जाय। हमने अपने अध्ययनों में पाया है कि दर्जनों कस्बे और सैकड़ों गाव भूस्खलन संभावित स्थितियों की जद में हैं। सुदूर पूर में काल से लेकर पश्चिम में कालिंदी(यमुना) तक बीस बाईस नदी घाटियों में कई बस्तियाँ हैं जो प्राकृतिक तौर पर भी और मानवीय क्रिया कलापों से भी भूस्खलन की दृष्टि से संवेदन शील स्थितियों में हैं। पिछले बाईस वर्षों में उत्तराखंड में चालीस-पैतालीस हज़ार किलोमीटर अतिरिक्त सड़कों का निर्माण हुआ है। सड़कों का निर्माण में मानकों की व्यापक अनदेखी होती है। मेरा आंकलन है कि पिछले दो दशक में अकेले सड़कों के निर्माण के कारण ही कमसे कम तीन हज़ार गाव-कस्बे भूस्खलन की विभीषिका के मुहाने पर आ गए होंगे। इसके अलावा ब्क़ांध परियोजना और रेल्वे परियोजना के दुष्परिणाम अलग से होंगे।

कुल मिलाकर उत्तराखंड बेहद अनियोजित विकास के कारण आपूरणीय क्षति के कगार पर खड़ा है। इस बात की भी संभावना नज़र नहीं आती कि जोशीमठ की त्रासदी से सबक लेकर अब सरकारें कुछ बड़े कदम उठाएंगे। जब हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं लिया, 2021 की ऋषिगङ्गा आपदा से कोई सबक नहीं लिया तो जोशीमठ से क्या सबक लेंगे।

( प्रो0 एसपी सती जाने माने भू विज्ञानी एवं  बेसिक तथा सोशियल साइन्स  वानिकी महाविद्यालय रानीचौरी, टिहरी गढ़वाल के विभागाध्यक्ष हैं)

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