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आजादी का अमृत महोत्सव : अतीत के सिंहावलोकन के साथ भविष्य की आकांक्षाएं

दिनेश शास्त्री
देश में एक बड़ी पीढ़ी मेरी ही तरह है, जिसे आजादी की रजत जयंती, स्वर्ण जयंती और आज अमृत महोत्सव का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला है। युवाओं की बात करें तो ज्यादातर या तो आजादी की स्वर्ण जयंती के साक्षी बने हैं लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव की यादों के हमराही आज तमाम लोग हैं। इस महोत्सव को राजनीति के चश्मे से देखने की कतई जरूरत नहीं है। यह तो परम सौभाग्य का उत्सव है जिसका साक्षी बनने का अवसर तमाम लोगों को मिल रहा है और कल वे नई पीढ़ी के साथ अपने अनुभवों को साझा करेंगे। कम से कम जो आज आंख खोल रहे हैं, उन्हें आज के अनुभव का विवरण उन्हीं से तो मिलेगा।
पहाड़ की पगडंडियों का वो दौर जब 1972 में आजादी की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही थी, तब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। आजादी के संघर्ष की कहानियां सुनी जरूर थी, हमारे प्रधानाध्यापक स्व. इंद्र सिंह नेगी जी ने प्रत्येक बच्चे को कागज की दस दस झंडियां दी थी। उन्हें पिन से कमीज पर लगा कर स्कूल आना होता था। एक तरह से ये छोटी सी झंडियां थी, जो एक तरह से चेतना का विस्तार करने का माध्यम था। लेकिन उस दौर में दो लोगों को तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी द्वारा प्रदत्त ताम्रपत्र देखने का मौका मिला था। वैसे तो चमोली जिले से सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानी थे लेकिन एक स्व. शेर सिंह शाह और दूसरे स्व. रामप्रसाद बहुगुणा। इन दो लोगों के हाथों ताम्रपत्र देख देश के प्रति समर्पण की भावना का अहसास हुआ था।
आज की तरह तब अगर संचार माध्यमों का व्यापक फलक होता या सोशल मीडिया की दमदार मौजूदगी होती तो बात जन जन तक पहुंचती लेकिन उन सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों सेनानियों को हालात ने गुमनामी के भंवर में धकेल दिया। हर इलाके से लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा पहाड़ियों की हजारों की नफरी तो आजाद हिंद फौज में ही थी। साधनहीन होने के बावजूद इन पहाड़ों से हजारों लोगों ने अपनी राष्ट्रीयता की भावना का समय समय पर न सिर्फ प्रमाण दिया बल्कि नेतृत्व भी किया था। आज उनमें से हम कितने लोगों को जानते हैं। नई पीढ़ी ने तो ज्यादातर के नाम भी नहीं सुने होंगे। कसूर उनका भी नहीं है। जब हमारी सरकार ने ही स्कूलों के पाठ्यक्रम में उनको जगह नहीं दी तो उन्हें बताता भी कौन? इस तरह के सवाल आज इस बहाने उठने स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहने के दौरान बेशक यह संभव न रहा हो लेकिन आज क्या किसी ने हाथ बांध रखे हैं?
अतीत के सिंहावलोकन के साथ भविष्य की अपेक्षाएं भी जुड़ी होती हैं। पहाड़ की पगडंडियों से उतरने के बाद जब आजादी की स्वर्ण जयंती का मौका आया तो खुद को मैदान यानी दिल्ली की सपाट लेकिन बेदर्द राहों पर पाया। 1997 का वर्ष था। तब केंद्र में इंद्रजीत गुप्त गृह मंत्री थे। वही स्वर्ण जयंती समारोह का ताना बाना बुन रहे थे और देश उसका साक्षी बना। तब समारोह तो बड़े पैमाने पर हुए जरूर लेकिन आज की तरह ग्लैमर तब नहीं था। निजी क्षेत्र ने शायद पहली बार तब खुद को आजादी के जश्न के साथ जोड़ा था लेकिन इस हद तक नहीं कि हर हाथ में तिरंगा हो, हर घर में तिरंगा हो।
आज पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा है। बीते एक वर्ष से विविध कार्यक्रम जारी हैं। संचार माध्यमों और सरकार के स्तर पर इसे आंदोलन का सा रूप मिल गया है। खास बात यह कि दिल्ली और दूसरे शहरों में प्रवास के बाद आज अपने राज्य में वापसी पर आजादी के जश्न का यह तीसरा पड़ाव सामने है। इस नाते उम्मीदें भी ज्यादा हो चली हैं। स्कूल ही क्यों महाविद्यालयों में भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के जीवन वृत्त को शामिल किया जाए, गुमनामी में खो चुके नायकों का वास्तव में स्मरण किया जाए, यह अपेक्षा तो मेरी तरह आपकी भी होगी ही।
बहरहाल आजादी के जश्न में शामिल होने का यह तीसरा पडाव है, जिसे हम सब अपने सामने देख रहे हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और बाड़मेर से पूर्वोत्तर तक हर जगह तिरंगा है, हर घर तिरंगा है, हर मन में तिरंगा है। यानी तिरंगा और सिर्फ तिरंगा। राष्ट्रीय स्वाभिमान का यह पर्व पहली बार इस स्तर पर मनाया जाना अपने आप में बड़ी परिघटना है। आजादी के शताब्दी वर्ष तक हममें से कितने लोग होंगे, कोई नहीं जानता किंतु इतना तो तय है कि तब आज से अधिक भव्यता होगी और तब का भारत कुछ और होगा। आज लोगों के मन में आजादी की रक्षा के प्रति जो ज्वार सा उमड़ता दिख रहा है, वह उस भरोसे का संकेत तो है ही।
आशा की जानी चाहिए कि आने वाला कल आज से ज्यादा सुखद, भव्य और समृद्ध होगा। अपेक्षा यह भी है कि आने वाली पीढ़ी को उन सेनानियों के जीवन से परिचित जरूर किया जाए, जिन्होंने मां भारती को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी और जो जिंदा रहे उन्होंने आजादी के बाद नवनिर्माण में भी भागीदारी की, बेशक उनके सपनों के भारत के बनने में आज भी कसर रह गई हो, किंतु उन्होंने प्रयास तो किया ही है।

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