सेलुलर जेल – बलिदान का मूर्त रूप : Cellular Jail – An Embodiment of Sacrifice
The idea was revived in the wake of the First War of Indian Independence (1857) which the British chose to call the ‘Sepoy Mutiny’. To deport and imprison the so-called mutineers, deserters, and rebels, the far-off Andamans was chosen. On 10th March 1858, the first batch of 200 ‘grievous political offenders’ touched the shores of Chatham Island within Port Blair harbor in South Andaman. The second batch was of 216 from the Punjab province. As on 16th June 1858, the settlement position was – Total received-773, Died in Hospital-64, Escaped and not recaptured-140, Suicide-1, Hanged after recapture-87, Left-481. By 28th September 1858 about 1,330 prisoners had landed. Between 1858 and 1860, about 2,000-4,000 freedom fighters had been deported to Andamans from different parts of India. Sadly, many of them perished under the most agonizing living and working conditions. Neither of those who escaped into the jungle could escape death. Later, criminal convicts were also sent there for penal servitude. A century later, on 15th August 1957, a Martyrs’ Column was dedicated in Port Blair to commemorate those heroes who died unsung and unknown
–एस. बालाकृष्णन
श्री बाबू राम हरि पंजाब के गुरदासपुर जिले के कादियां के रहने वाले थे और ‘स्वराज्य’ के संपादक थे। उन्हें अपने तीन संपादकीयों को ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा ‘राजद्रोह’ करार दिये जाने के कारण अंडमान की सेलुलर जेल में 21 वर्ष की कैद हुई थी। इस तरह भारत की आजादी का ख्वाब संजोने वाले लोगों को ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा ऐसे ही बेरहमी से कुचला गया था। भयानक सेलुलर जेल, बलिदान की ऐसी ही एक वेदी थी। कालकोठरी की सजा के लिए इस विशेष तरह की कोठरियों के इंतजाम वाली (इसलिए इसे सेलुलर जेल का नाम दिया गया) इस जेल का नाम भारत की आजादी के संघर्ष के साथ अमिट रूप से जुड़ा हुआ है।
भारतीय बेस्टिल
- सुभाष चन्द्र बोस ने उचित रूप से ही इस जेल को ‘भारतीय बेस्टिल’ कहकर पुकारा था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, अंडमान पर जापानियों द्वारा जीत हासिल किए जाने के बाद 8 नवंबर, 1943 को जारी वक्तव्य में नेताजी ने कहा था, ‘‘जिस तरह फ्रांस की क्रांति के दौरान सबसे पहले पेरिस के बेस्टिल के किले को मुक्त कराकर वहां बंद राजनीतिक कैदियों की रिहाई कराई गई थी, उसी तरह भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान अंडमान को भी, जहां भारतीय कैदी यातनाएं भोग रहे हैं, सबसे पहले मुक्त कराया जाना चाहिए।’’ (हालांकि, बाद में सहयोगी देशों ने इस द्वीप पर दोबारा कब्जा जमा लिया था।)
कैदियों की बस्तियां
ब्रिटिश उपनिवेश भारत और बर्मा में संगीन अपराधों के लिए दोषी ठहराये गये कैदियों के लिए बैंकोलिन (सर्वप्रथम 1787 में), मल्लका, सिंगापुर, अराकान और तेनास्सेरिम में कैदियों की बस्तियां स्थापित की गईं। अंडमान की जेल इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी और भारतीय सरजमीं पर स्थापित होने वाली अपने किस्म की पहली जेल थी। हालांकि, इससे काफी पहले 1789 में ही पोर्ट कॉर्नवालिस, उत्तरी अंडमान में कैदियों की बस्ती स्थापित की गई थी, लेकिन सात साल बाद उसे खाली कर दिया गया था।
ब्रिटिश हुक्मरानों ने आजादी के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857), को ‘सिपाहियों की बगावत’ का नाम दिया था और इसी के मद्देनजर कैदियों की बस्ती का विचार पुन: जीवित हो उठा। तथाकथित बागियों, भगोड़ों और विद्रोहियों को निर्वासित और कैद करने के लिए दूर-दराज के इलाके – अंडमान का चयन किया गया। 10 मार्च, 1858 को 200 ‘गंभीर राजनीतिक अपराधियों’ के पहले जत्थे ने दक्षिण अंडमान में पोर्ट ब्लेयर बंदरगाह के अंतर्गत चाथलाम द्वीप के छोर पर कदम रखा। 216 कैदियों का दूसरा जत्था पंजाब सूबे से आया। 16 जून, 1858 तक यहां पहुंचने वाले कैदियों की कुल तादाद 773 हो गई, 64 कैदियों ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था, फरार होने और दोबारा हाथ न आने वाले कैदियों की संख्या 140 थी, एक कैदी ने आत्महत्या की थी, फरार होने के बाद दोबारा पकड़े जाने पर फांसी पर लटकाये गये कैदियों की संख्या 87 थी, यह जगह छोड़ने वाले कैदियों की संख्या 481 थी। 28 सितंबर, 1858 तक यहां करीब 1330 कैदी पहुंच चुके थे। 1858 और 1860 के बीच देश के कोने-कोने से लगभग 2,000-4,000 स्वाधीनता सेनानियों को अंडमान भेजा जा चुका था। दुखद बात यह है कि उनमें से अधिकांश ने जीने की और कार्य करने की बेहद पीड़ादायक परिस्थितियों के कारण दम तोड़ दिया। फरार होकर जंगल की ओर भागने वालों में से कोई भी जीवित न बच सका। बाद में आपराधिक मामलों में दोषी ठहराये गए लोगों को भी कड़ी सजा के लिए यहीं भेजा जाने लगा। एक सदी के बाद, 15 अगस्त, 1957 को पोर्ट ब्लेयर में ‘शहीद स्तम्भ’ प्राण न्यौछावर करने वाले अचर्चित और गुमनाम शहीदों को समर्पित किया गया।
सेलुलर जेल
ब्रिटिश हुक्मरानों को डर था कि राजनीतिक कैदी दूसरे कैदियों के बीच अपने क्रांतिकारी विचारों को फैलाने लगेंगे और उनके समूह के साथ घुलने-मिलने लगेंगे। लिहाजा, उन्होंने एक दूर-दराज के इलाके में कालकोठरियां बनाने का फैसला किया। इस प्रकार 1906 में कुख्यात सेलुलर जेल पूर्ण हो गई, जिसकी कालकोठरियों की संख्या बढ़कर 693 हो गई! जैसे-जैसे स्वाधीनता संग्राम जोर पकड़ने लगा, 1889 में पूना से 80 क्रांतिकारियों को निर्वासित कर यहां भेजा गया। जैसे-जैसे स्वाधीनता संग्राम में उफान आया, 132 लोगों (1909- 1921), उसके बाद (1932-38) में 379 लोगों को यहां भेजा गया। विभिन्न तरह के षडयंत्र के मामलों में शामिल राजनीतिक कैदियों को सेलुलर जेल भेजा गया। इनमें से कुछ मामलों में अलीपुर बम मामला (माणिकटोला षडयंत्र मामले के नाम से भी चर्चित), नासिक षडयंत्र मामला, लाहौर षडयंत्र मामला (गदर पार्टी के क्रांतिकारी), बनारस षडयंत्र मामला, चटगांव शस्त्रशाला मामला, डेका षडयंत्र मामला, अंतर-प्रांतीय षडयंत्र मामला, गया षडयंत्र मामला और बर्मा षडयंत्र मामला आदि शामिल हैं। इनके अलावा, वहाबी विद्रोहियों, मालाबार तट के मोपला प्रदर्शनकारियों, आंध्र के रम्पा क्रांतिकारियों, मणिपुर स्वाधीनता सेनानियों, बर्मा के थावरडी किसानों को भी अंडमान भेजा गया।
जेल में जीवन
सेलुलर जेल में जीवन विशेषकर शुरुआती कैदियों के लिए बेहद अमानवीय और बर्बर था। राजनीतिक कैदियों को बहुत कम भोजन और कपड़े दिये जाते थे और उनसे कड़ी मशक्कत कराई जाती थी। ऐसी कठोर मेहनत की आदत न होने के कारण वे अपना रोज के काम का कोटा पूरा नहीं कर पाते थे, जिसके कारण उन्हें गंभीर सजा भुगतनी पड़ती थी। ऐसे व्यवहार का मकसद उन राजनीतिक कैदियों को अपमानित करना और उनकी इच्छा शक्ति को तार-तार करना था। उन्हें कोल्हू पर जोता जाता था, उनसे नारियल छिलवाये जाते थे, नारियल के रेशों की पिसाई कराई थी, रस्सी बनवाई जाती थी, पहाड़ तोड़ने के लिए भेजा जाता था, दलदली जमीन की भरत कराई जाती थी, जंगल साफ कराये जाते थे, सड़कें बिछवाई जाती थी आदि। सबसे भयानक काम ‘मोटे सान की कटाई’ बहुत अधिक अम्लता वाली रामबन घास, ‘रस्सी बनाने की कला’ थी, जिसके बाद लगातार खुजली, खरोंचना और रक्तस्राव जैसे तकलीफें होती थीं!
भूख हड़ताल
जुलाई 1937 में जब भारत के सात सूबों में कांग्रेस मिनिस्ट्रीज का गठन हुआ, तो सेलुलर जेल के राजनीतिक कैदियों को मुख्य भूमि में भेजे जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। जब बार-बार की अपीलों और प्रदर्शनों का कोई नतीजा न निकला तो उनमें से 183 लोग 24 जुलाई, 1937 से, 37 दिन की भूख हड़ताल पर बैठ गये। इससे उनके समर्थन की लहर उठी और मुख्य जेलों में बंद उनके साथियों ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी। देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा और 22 सितंबर 1937 को स्वाधीनता सेनानियों का पहला जत्था अंडमान से रवाना हुआ। आखिरी जत्था भी 18 जनवरी, 1938 तक अंडमान से रवाना हो गया। आपराधिक मामलों के दोषियों की वहां से रवानगी 1946 तक जारी रही, जब कैदियों की इस बस्ती को बंद कर दिया गया।
राष्ट्रीय स्मारक
इस जेल में अनेक करिश्माई हस्तियों को बंदी बनाकर रखा गया। उनमें अन्य लोगों के अलावा सावरकर बंधु, मोतीलाल वर्मा, बाबू राम हरि, पंडित परमानंद, लढ्डा राम, उलास्कर दत्त, बरिन कुमार घोष, भाई परमानंद, इंदु भूषण रॉय, पृथ्वी सिंह आजाद, पुलिन दास, त्रैलोकीनाथ चक्रवर्ती, गुरुमुख सिंह शामिल हैं। यह फेहरिस्त लंबी और विशिष्ट है। सेलुलर जेल में बंद रहे हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के अमूल्य बलिदान की याद और सम्मान में 11 फरवरी, 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई द्वारा इसे राष्ट्रीय स्मारक के रूप में राष्ट्र को समर्पित किया गया। वहां का संग्रहालय और साउंड एंड लाइट शो जेल के कठिन जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं, जहां उन लोगों ने सिर्फ इसलिए कुर्बानियां दी, ताकि हम आजादी और शांति के साथ जी सकें। सेलुलर जेल यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की संभावित सूची में शामिल हैं, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी तुलना में कोई और स्थान नहीं है।
किसी जमाने में भयावह स्थान रही यह सेलुलर जेल, अब एक राष्ट्रीय स्मारक बन चुकी है, जो बलिदान का मूर्त रूप है, एक ऐसा स्थान है, जो हमें याद दिलाता है कि हमें आजादी बड़ी मुश्किलों से मिली है।
लेखक चेन्नई में स्वतंत्र पत्रकार हैं।
इस लेख में व्यक्त किए गये विचार लेखक के निजी विचार हैं।