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अन्तरिक्ष में लम्बी छलांग : साकार हुआ 62 साल पुराना सपना


-जयसिंह रावत
चन्द्रयान-3 का पृथ्वी से 3.84 लाख किमी की दूरी तय कर चांद पर उतरना एक इतिहास रचना तथा अन्तरिक्ष के अनगिनत रहस्यों की खोज की दिशा में एक अति महत्वपूर्ण कदम है। इस महान उपलब्धि के लिये चन्द्रयान प्रोजेक्ट के वैज्ञानिक, इसरो और अनुसांगिक संगठन तो बधाई के पात्र हैं ही लेकिन अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचे जाने के उल्लास में हमें स्वप्नदृष्ट्वा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान के जनक डा0 ए0 विक्रम साराभाई को नहीं भूलना चाहिये। भले ही चन्द्रयान प्रोजैट 2019 में शुरू हुआ हो मगर अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने और वहां उड़ने की परिकल्पना भारत ने 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इन्कोस्पार) की स्थापना के साथ ही कर ली थी, जो आज चांद पर उतर कर साकार हुयी है। आज अमेरिका के नासा और रूस के रॉस्कोसमॉस की बराबरी करने जा रहे इसरो की मातृ संस्था राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति ही है। इस ऐतिहासिक मौके पर हमें सतीश धवन और डा0 ए पी जे अब्दुल कलाम और विक्रम साराभाई से लेकर डा0 एस. सोमनाथ के पूर्ववर्ती इसरो निदेशकों और उनकी टीमों के सदस्यों को भी नहीं भूलना चाहिये।


नेहरू और  साराभाई का सपना  साकार

भारत का आजादी के बाद 76 सालों में बैलगाड़ी युग से अंतरिक्ष में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करना वास्तव में एक महान उपलब्धि है। दरअसल भारत ने आजादी मिलने के बाद पहले दशक में ही अन्तरिक्ष और चांद सितारों के बारे में कल्पना की उड़ानें भरनी तब शुरू कर दीं थी जब भारत के मित्र सोबियत संघ ने 4 अक्टूबर 1957 को पृथ्वी का पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 प्रक्षेपित किया। सोबियत संघ के इस कदम से उत्साहित प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रॉकेट विज्ञान में भारत जैसे भौगोलिक रूप से विशाल और विकासशील देश के लिए इसके बहुत सारे उपयोगों की अवश्यकता समझी। उन्होंने विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के महत्व को पहचाना। नेहरू ने 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के दायरे में रखा। परमाणु अनुसंधान विभाग की स्थापना के बाद अनुभवी परमाणु वैज्ञानिक होमी जे0 भाभा को इसका नेतृत्व सौंपा गया। भाभा ने फरवरी 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इन्कोस्पार) की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष उस जमाने के विख्यात वैज्ञानिक विक्रम साराभाई बनाये गये। साराभाई के नेतृत्व में देश का अंतरिक्ष अनुसंधान शुरू हुआ जिसका मुख्य दायित्व भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को तैयार करना था। अंतरिक्ष अनुसंधान से संबंधित परमाणु ऊर्जा विभाग की जिम्मेदारियां तब अंतरिक्ष अनुसंधान समिति द्वारा संभाली गईं। फरबरी में समिति ने कार्य शुरू किया तो 8 महीने बाद अक्टूबर में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत पराजित हो गया। इस पराजय का भारत को बहुत बड़ा झटका अवश्य लगा मगर उसने अपने हौसले गिरने नहीं दिये और प्रगति के बढ़ते कदमों के साथ ही भारत ने पहली बार 21 नवंबर 1963 को केरल में मछली पकड़ने वाले क्षेत्र थुंबा से अमेरिकी निर्मित दो-चरण वाला साउंडिंग रॉकेट (पहला रॉकेट) ‘नाइक-अपाचे’ का प्रक्षेपण कर अंतरिक्ष में अपना पहला दमदार कदम रख ही लिया।

जब बैलगाड़ी में ढो कर ले गये थे रॉकेट

हमारे विज्ञानियों की असाधारण प्रतिभा और भारत के दृढ़ संकल्प का ही नतीजा है कि जो भारत आज अन्तरिक्ष के क्षेत्र में कई अन्य देशों की मदद कर रहा है और बाकायदा उसका अन्तरिक्ष उद्योग भी शुरू हो चुका है, उसके पास 1963 में अपने पहले प्रक्षेपण के वक्त केवल हौसले और कुछ जुझारू वैज्ञानिक ही थे। उस समय चूंकि तिरुअनंतपुरम के बाहरी हिस्से में स्थित थुंबा भूमध्यरेखीय रॉकेट प्रक्षेपण स्टेशन पर कोई इमारत नहीं थी, इसलिए बिशप के घर को निदेशक का कार्यालय बनाया गया, प्राचीन सेंट मैरी मेगडलीन चर्च की इमारत कंट्रोल रूम बनी और नंगी आंखों से राकेट के धुएं की लकीर को देखा गया। यहाँ तक की रॉकेट के कलपुर्जों और अंतरिक्ष उपकरणों को प्रक्षेपण स्थल पर बैलगाड़ी और साइकिल से ले जाया गया था।

इन्कोस्पार से बना 1969 में इसरो

समय के साथ ही अन्तरिक्ष अनुसंधान की बढ़ती संभावनाओं को ध्यान में रखते हुये इसरो का गठन 15 अगस्त, 1969 को किया गया जिसने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के लिए विस्तारित भूमिका के साथ इन्कोस्पार की जगह ली। 1972 में अन्तरिक्ष विभाग और भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान आयोग की स्थापना हुयी और इसरो को नये विभाग के अधीन लाया गया। इसरो का मुख्य उद्देश्य विभिन्न राष्ट्रीय आवश्यकताओं के लिए अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का विकास और अनुप्रयोग है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए, इसरो ने संचार, दूरदर्शन प्रसारण और मौसम संबंधी सेवाओं, संसाधन मॉनीटरिंग और प्रबंधन, अंतरिक्ष आधारित नौसंचालन सेवाओं के लिए प्रमुख अंतरिक्ष प्रणालियों की स्थापना की है। इसरो ने उपग्रहों को अपेक्षित कक्षाओं में स्थापित करने के लिए उपग्रह प्रक्षेपण यान, पी.एस.एल.वी. और जी.एस.एल.वी. विकसित किए हैं। अपनी तकनीकी प्रगति के साथ, इसरो देश में विज्ञान और विज्ञान संबंधी शिक्षा में योगदान देता है। अंतरिक्ष विभाग के तत्वावधान में सामान्य प्रकार्य में सुदूर संवेदन, खगोल विज्ञान और तारा भौतिकी, वायुमंडलीय विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान के लिए विभिन्न समर्पित अनुसंधान केंद्र और स्वायत्त संस्थान हैं। इसरो के स्वयं के चंद्र और अंतरग्रहीय मिशनों के साथ-साथ अन्य वैज्ञानिक परियोजनाएं वैज्ञानिक समुदाय को बहुमूल्य आंकडे प्रदान करने के अलावा विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित और बढ़ावा देता है।

इसी प्रकार अंतरिक्ष आयोग देश के सामाजिक-आर्थिक लाभ के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास और अनुप्रयोग को बढ़ावा देने के लिए नीति निर्माता है और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के कार्यान्वयन की देखरेख करता है। अंतरिक्ष विभाग इन कार्यक्रमों को मुख्य रूप से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पी.आर.एल), राष्ट्रीय वायुमंडलीय अनुसंधान प्रयोगशाला (एन.ए.आर.एल.), उत्तरी पूर्वी अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (उ.पू.-सैक) और सेमी-कंडक्टर प्रयोगशाला (एससीएल) के माध्यम से कार्यान्वित करता है। 1992 में एक सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी के रूप में स्थापित एंट्रिक्स कॉरपोरेशन अंतरिक्ष उत्पादों और सेवाओं का विपणन करता है।

आर्यभट्ट के साथ अंतरिक्ष युग में प्रवेश

पहले प्रक्षेपण के लगभग 12 वर्ष बाद भारत ने अपने पहले प्रायोगिक उपग्रह आर्यभट्ट के साथ अंतरिक्ष युग में प्रवेश किया जिसे 1975 में रूसी रॉकेट पर रवाना किया गया। इसरो के पूर्व अध्यक्ष डॉ. यू.आर.राव ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उन दिनों बुनियादी ढांचा उपलब्ध नहीं था। जो कुछ उपलब्ध था हमने उसका इस्तेमाल किया। यहाँ तक की हमने बैंगलोर में एक शौचालय को डेटा प्राप्त करने के केंद्र में तब्दील कर दिया। थुंबा से शुरू हुआ भारत का अंतरिक्ष सफर आज चांद पर पहुंच गया है। भारत ने चंद्रमा संबंधी अनुसंधान शुरू करने, उपग्रह बनाने, अन्य के लिए भी, विदेशी उपग्रहों को ले जाने में सफलता अर्जित कर दुनियाभर में अपनी पहचान बना ली है।

 

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