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देहरादून, जहां नेहरू को सबसे पहले सदारत का मौका मिला


-जयसिंह रावत
देहरादून जिला स्वतंत्रता आन्दोलनों के मामले में देश के अग्रणी जिलों में से एक रहा है। अपनी भौगोलिक संरचना, स्वास्थ्यवर्धक आवोहवा और बाग-बगीचों तथा उपजाऊ खेतों के चलते देहरादून न केवल बाहरी आक्रमणकारियों को आकर्षित करता रहा अपितु राजनीतिक उथलपुथल का केन्द्र भी रहा। 1675 में सिक्खों के सातवें गुरू, हरराय के पुत्र राम राय ने यहाँ एक डेरा स्थापित किया था। यह भी माना जाता है कि देहरादून गुरू द्रोणाचार्य की तपस्थली थी। देहरादून से 50-60 किलोमीटर दूर कालसी में अशोक का शिलालेख इस पहाड़ी भूभाग तक ईसा पूर्व कुछ शताब्दियों पहले अशोक महान का साम्राज्य होने का गवाह है। इस देहरादून ने मुगलों, अफगानियों, सिखों, गुज्जरों और राजपूतों के हमले झेले तो गोरखों के हाथों सन् 1804 में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की शहादत और पराजय भी देखी और सन् 1914 में खलंगा के युद्ध में आतताई गोरखा शासन का अंत भी देखा। इस युद्ध को जीतने के बाद टिहरी रियासत को छोड़कर आधा गढ़वाल और पूरा कुमाऊं अंग्रेजों के अधीन हो गया था। इसी देहरादून ने 9 नवम्बर 2000 को भारत के 27वें राज्य उत्तरांचल का उदय भी देखा। सन् 1839 में जब अंग्रेजों और महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने संयुक्त रूप से अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर वहां के ब्राक्जाई वंश के शासक दोस्त मोहम्मद को सत्ताच्युत किया तो उसे निर्वासित कर कुछ समय के लिये मसूरी लाया गया। शिमला के बाद मसूरी में अंग्रेजों की तेजी से बसागत हुयी तो शिमला की तरह ही कम्पनी सरकार का सत्ता का एक अन्य केन्द्र मसूरी भी बन गया और मसूरी की निकटता के कारण दून घाटी का सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक आकर्षण भी बढ़ता गया।


मसूरी के सत्ता का एक केन्द्र बनने के साथ ही निकटवर्ती देहरादून का भी राजनीतिक महत्व बढ़ता गया। सन् 1857 की गदर के समय अंग्रेजों के लिये मसूरी सबसे सुरक्षित साबित होने के बाद तो न केवल मसूरी बल्कि सम्पूर्ण दून घाटी की महत्ता अंग्रेजों के लिये बढ़ गयी। पहले स्वाधीनता संग्राम को बल और छल पूर्वक दबाने के बाद भारत में कुछ समय तक तो खोमशी रही मगर धीरे-धीरे देश में स्वाधीनता की चाह एक बार फिर कुम्हलाने लगी और देहरादून एवं अल्मोड़ा जैसे नगरों में भी आजादी के आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी। वास्तव में यह जिला प्रशासन का मुख्य केन्द्र था और यहां पर फारेस्ट कालेज, मिलिट्री कालेज और सर्वे मुख्यालय जैसे प्रतिष्ठान होने के कारण राजनीतिक गतिविधियां भी यहीं केन्द्रित होने लगी थीं।
दरअसल पंजाब और तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के बीच में पड़ने के कारण देहरादून में जहां पेशावर और कश्मीर तक के राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्यकर्ता तथा क्रांतिकारियों का आना जाना रहता था वहीं उत्तराखण्ड पहाड़ी क्षेत्रों के रास्ते देहरादून और ऋषिकेश से ही गुजरते थे। गढ़वाल के भवानी सिंह रावत, बच्चूलाल भट्ट और दन्द्र सिंह गढ़वाली जैसे क्रांतिकारियों पर देहरादून के जनजागरण का असर था। जुलाइ 1930 में चन्द्रशोखर आजाद, विद्याभूषण, हरिकेण सिंह, हजारी लाल, विश्वम्भर दयाल और यशपाल ने दुगड्डा गढ़वाल के निकट अपने साथी भवानी सिंह रावत के साथ उनके गांव नाथूपुर आ कर वहां के जंगलों में पिस्तौल आदि हथियार चलाने का अभ्यास किया था। देहरादून देहरादून से न केवल राष्ट्रीय आन्दोलन का अपितु टिहरी के लोकतांत्रिक आन्दोलन का भी संचालन होता था। टिहरी के प्रजामण्डल की स्थापना 1939 में देहरादून के खुड़बुड़ा में श्यामचन्द सिंह नेगी के आवास पर आयोजित एक बैठक में ही हुयी थी। कुम्भनगरी हरिद्वार का रास्ता भी लाहौर तक के लोगों के लिये देहरादून से ही गुजरता था। हरिद्वार में मुन्शी राम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द) जैसे महान समाज सुधारक, पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी हुये जिन्हें मिल कर महात्मा गांधी ने स्वयं को धन्य माना था। गांधी जब पहली बार दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उन्होंने भारत में सबसे पहले रवीन्द्र नाथ टैगोर, एस.के. रूद्रा और मुंशी राम से मिलने की इच्छा प्रकट की थी।
देहरादून और अल्मोड़ा जेल में देश के बड़े-बड़े नेता बंदी बना कर रखे गये। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देहरादून जेल की कोठरी में ही अपनी ‘‘आत्मकथा’’ के महत्वपूर्ण अंश लिखे थे। नेहरू परिवार का दून घाटी से सदैव करीबी सम्बन्ध रहा। मसूरी की माल रोड को अंग्रेज प्रशासकों ने हिन्दुस्तानियों और कुत्तों के लिये वर्जित किया था और मोतीलाल नेहरू जब भी मसूरी प्रवास पर होते थे तो हर सुबह अंग्रेज प्रशासकों के इस नियम का उल्लंघन कर उसका जुर्माना भरते थे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह जैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के क्रांतिकारी ने भी अपना निवास देहरादून को बनाया था और यहीं से उन्होंने ‘‘निर्बल सेवक’’ नाम का अखबार निकाला था। यहीं से महेन्द्र प्रताप चुपचाप अफगानिस्तान खिसक गये थे जहां उन्होंने आजाद हिन्दुस्तान की निर्वासित सरकार के गठन की घोषणा की थी। यहीं उन्होंने जीवन का शेष समय व्यतीत किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस भी देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) में एक कर्मचारी थे और यहीं से उन्होंने अपने साथी बसंत कुमार आदि के साथ दिल्ली में 23 दिसम्बर 1912 को वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने का षढ़यंत्र रचा था। इस कांड में जिन चार लोगों को फंासी हुयी उनमें बोस के देहरादून के साथी बसंत कुमार विश्वास भी एक थे। क्रांतिकारी तथा अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेता मानवेन्द्र नाथ राय ने रूस से लौटने के बाद देहरादून को ही अपना निवास बनाया था। यहीं से वह राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के साथ ही टिहरी के लोकतांत्रिक आन्दोलन को प्रश्रय देते रहे।


प्रसिद्ध समाजवादी और विद्वान नरदेश शास्त्री ने 1916 में महाराष्ट्र से आकर देहरादून को अपना कार्यक्षेत्र बना दिया था। महावीर त्यागी ने बिजनौर से 1921 में आ कर देहरादून को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। सन् 1920 में देहरादून में आयोजित कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलन का सभापतित्व पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद जवाहर लाल नेहरू का राजनीति में प्रवेश करने पर उनका पहला कार्यक्रम यही था। इस सम्मेलन में लाला लाजपत राय और सैफुद्दीन किचलू जैसे शीर्ष कांग्रेस नेता शामिल हुये थे। असहयोग आन्दोलन में भी देहरादून और गढ़वाल-कुमाऊं के लोगों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया। उस आन्दोलन में जिला बोर्ड के कई शिक्षक अपनी नौकरियां छोड़ का आन्दोलन में कूद गये थे। सन् 1920 के राजनीतिक सम्मेलन की आशातीत सफलता के बाद कांग्रेस का दूसरा राजनीतिक सम्मेलन भी यहां सन् 1922 में हुआ। इस सम्मेलन का सभापतित्व भी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ही किया। इसमें बल्लभभाई पटेल तथा देश बन्धु चितरंजनदास जैसे राष्ट्रीय नेता शामिल हुये थे। महात्मा गांधी का देहरादून, हरिद्वार और उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों से विशेष लगाव रहा है।

Nehru ward in old Dehradun Jail

गांधी जी महाकुम्भ में 5 अप्रैल 1915 को कस्तूरबा के साथ हरिद्वार पहुंचे और पुनः लगभग डेढ माह बाद 18 मार्च 1915 को फिर हरिद्वार चले आये। वहां गांधी जी 23 मार्च तक रहे और इस दौरान वह ज्यादातर गुरुकुल में ही रहे। मार्च 1927 में गांधीजी ुरुकुल कांगड़ी के रजत जयंती समारोह में शामिल होने हरिद्वार पहंुचे। गांधी जी 14 जून से 4 जुलाइ तक कुमाऊं की यात्रा की। वह लगभग 15 दिन अल्मोड़ा और कौसानी में रहे। गांधीजी ने अक्टूबर 1929 में उत्तराखण्ड के हरिद्वार, देहरादून और मसूरी का दौरा किया। वह 16 अक्टूबर को देहरादून और 18 अक्टूबर को मसूरी पहुंचे जहां वह मासान्त तक रहे। 14 मई 1931 को शिमला में नये वायसरॉय से मिलने के बाद गांधी जी शिमला से नैनीताल चले आये। वह 5 दिन तक नैनीताल में रहे और गवर्नर माल्कम हेली से मिलकर जनता की शिकायतों के विषय में उनसे बातें करते रहे। सन् 1946 के बसंत में मसूरी में वह बिड़ला हाउस में 15 दिन तक ठहरे और वह 10 जून 1946 को दिल्ली लौट गये।

इतिहास के पन्नों में अगर झांकें तो मालूम होता है कि चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू आदि की ‘‘इंडिपेंण्डेंट पार्टी’’ (स्वराज पार्टी) की नीव भी देहरादून में ही पड़ी थी। गया कांग्रेस में जाने से पहले ‘‘इंडिपेंडेंट पार्टी’’ के सभी प्रमुख नेता मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में देहरादून में ही मिले थे। स्वराज पार्टी की स्थापना दिसम्बर 1922 में हुयी थी। राजमाता विजयराजे सिंधिया (स्व0 माधव राव सिंधिया और बसुंन्धरा राजे की माता) के चाचा ठाकुर चन्दन सिंह जैसे स्वाधीनता सेनानी और पत्रकार भी देहरादून निवासी ही थे। क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के एक अप्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘क्रांति गीतांजलि’’ का प्रकाशन प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी एवं पत्रकार हुलास वर्मा ने देहरादून में सन् 1929 में हिन्दी में तथा 1930 में उर्दू में किया और दोनों ही बार यह संकलन ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कर दिया गया। उसके बाद उनके पृत्र रणवीर वर्मा ने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कविता संग्रह ‘‘राष्ट्रीय गीतांजली’’ का प्रकाशन किया जिसे हुकूमत द्वारा जब्त कर वर्मा को दण्डित किया गया। देहरादून निवासी सोमेन्द्र मुकर्जी ने किसी क्रांतिकारी का काव्य संग्रह ‘‘क्रांति पुष्पांजलि’’ प्रकाशित कराया था। नमक आन्दोलन की सफलता के लिये देहरादून वासियों ने खाराखेत में नमक बना कर अपना योगदान दिया। सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सेना में लगभग 2600 गढ़वाली सेनिकों और अफसरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। ( श्रोत -पुस्तक स्वाधीनता आंदोलन में उत्तराखंड की पत्रकारिता – लेखक – जय सिंह रावत प्रकाशक -नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया एवं प्रथम संस्करण – विनसर पब्लिशिंग कंपनी  )
जयसिंह रावत
पत्रकार/लेखक
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

 

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