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हिमाचल प्रदेश के चुनाव के बाद ताकतवर बन कर उभरे धामी, पार्टी में भी बढ़ी अहमियत


-जयसिंह रावत
पिछले साल अक्टूबर में जब कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में भाजपा से मण्डी संसदीय सीट छीनने के साथ ही तीन विधानसभा सीटें भी जीत लीं थीं तो हिमाचल से अधिक उत्साहित उत्तराखण्ड के कांग्रेसी नजर आ रहे थे। क्योंकि हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड दो जुड़वा पहाड़ी प्रदेश हैं जहां भौगोलिक ही नहीं अपितु सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां भी समान हैं। पृथक उत्तराखण्ड की मांग ही हिमाचल प्रदेश को ध्यान में रखते हुये उठी थी। उत्तराखण्ड के कांग्रेसियों में उत्साह का एक कारण हिमाचल से पहले ही जनवरी में राज्य में चुनाव होना था और दोनों ही राज्यों में बारी-बारी से सरकार बदलने का रिवाज लगभग स्थापित ही हो चुका था। इसलिये उत्तराखण्ड के कांग्रेेसी सत्ता पाने की उतावली में विधानसभा चुनाव का बेसब्री से इंतजार करने लगे। उत्तराखण्ड के कांग्रेसी इसलिये भी उतावले हो गये थे क्योंकि राजा वीरभद्र सिंह के निधन के बाद हिमाचल में कोई बड़ा मास लीडर नहीं रह गया था, जिसके बावजूद लगभग लावारिश हो चुकी हिमाचल कांग्रेस ने महाबली भाजपा को हिमाचल के उपचुनाव में पटखनी देकर उसके अश्वमेघ यज्ञ को भंग कर दिया था। जबकि उत्तराखण्ड में हरीश रावत जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता कांग्रेस के पास होने के साथ ही दूसरी ओर अपने ही ऊलजुलूल बयानों से अपनी ही नहीं अपनी सरकार और भाजपा की मजाक उड़वाने वाले भाजपाई मुख्यमंत्रियों के बाद एक ऐसा नौसिखिया मुख्यमंत्री बना था जो कि उम्र में भी कम होने के साथ अनुभव में भी सपाट था। बावजूद इतनी संभावनाओं के उत्तराखण्ड में कांग्रेस हार गयी और भाजपा बारी-बारी सरकार बदलने का रिवाज ध्वस्त कर गयी।

अब पछता रहे हैं उत्तराखण्ड के कांग्रेसी

कहते हैं कि समय घावों पर सबसे अच्छा मरहम लगाने वाला होता है। इसीलिये कांग्रेस साल के शुरू में हुयी हार के जख्म भुला चुकी थी। इधर भाजपा उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और मणिपुर की जीत से अपने विजय रथ के निरन्तर-निष्कंटक आगे बढ़ने के प्रति आश्वस्त हो चुकी थी। लेकिन 8 दिसम्बर को आये हिमाचल के चुनाव नतीजों ने पार्टी की जीत के बावजूद उत्तराखण्ड के कांग्रेसियों के जख्म हरे कर दिये। उन्हें किश्मत ने एक बार फिर पछताने को विवश कर दिया। इसके साथ ही हिमाचल की हार ने भाजपा के आला कमान को उत्तराखण्ड की रिवाज तोड़ जीत की याद दिला दी। भाजपा नेतृत्व को पांच बार विधायक और मुख्यमंत्री बनने से पहले कैबिनेट मंत्री रह चुके जयराम ठाकुर पर बहुत भरोसा था इसलिये अन्य राज्यों में मुख्यमंत्री बदले गये मगर हिमाचल और उत्तर प्रदेश को नहीं छेड़ा गया। धामी के पूर्ववर्ती त्रिवेन्द्र रावत और तीरथ सिंह रावत पर नेतृत्व को भरोसा होता तो उन्हें बदला ही क्यों जाता। तीरथ सिंह रावत को तो मात्र 116 दिन में ही बदल दिया गया।

भाजपा के 7 मुख्यमंत्रियों में धामी अकेले हुये साबित जिताऊ

उत्तराखण्ड में भाजपा मुख्यमंत्री बदलने के लिये भी बदनाम रही है। प्रदेश के 22 सालों के जीवनकाल में भाजपा कुल साढ़े 13 साल शासन कर चुकी है और इन साढ़े तेरह सालों में पार्टी 7 नेताओं को मुख्यमंत्री बना चुकी है और 9 बार सरकारें दे चुकी है। इनमें से कोई भी 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। तरीथ सिंह रावत को तो केवल 3 माह में ही चलता कर दिया गया। भाजपा के इस इतिहास को देखते हुये अब पुष्कर धामी के बारे में भी कयास लगने शुरू हो गये थे। धामी को मंत्रिमण्डल विस्तार की अनुमति न मिलने से भी कयासबाजी तेज हो गयी थी। लेकिन अब हिमाचल के चुनाव नतीजों के बाद धामी को बदलने का कोई वाजिब कारण नजर नहीं आता। यद्यपि किसी मुख्यमंत्री को पांच साल की गारंटी तो कोई नहीं दे सकता मगर अब फिलहाल धामी शासन को कोई खतरा नजर नहीं आता। भाजपा के अब तक जितने भी 7 नेता मुख्यमंत्री बने उनमें से धामी अकेले मुख्ष्मंत्री हैं जिनके नेतृत्व में भाजपा विधानसभा चुनाव जीती है और और कोई भी समझदार राजनीतिक दल जिताऊ नेता की उपेक्षा नहीं कर सकती। वैसे भी देखा जाय तो विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद भी धामी का 3 जून 2022 को दुबारा मुख्यमंत्री बनना पार्टी नेतृत्व के विश्वास और वरदहस्त का ही उदाहरण है।

भाजपा में भी बढ़ेगा युवा धामी का कद

सांगठनिक तौर पर भी अब भाजपा में युवा पुष्कर सिंह धामी का कद बढ़ बढ़ना स्वाभाविक ही है। उनकी संभावनाओं को सरकार के अलावा भी संगठन में काफी विस्तार मिला है। किसी भी राजनीतिक दल को जिताऊ नेता चाहिये और फिलहाल पुष्कर घामी जिताऊ नेताओं की श्रेणी में आ गये। यद्यपि धामी इस साल हुये विधानसभा चुनाव में स्वयं हार गये थे। इसलिये उन पर सवाल उठ रहे थे कि जो नेता स्वयं चुनाव नहीं जीत सकता वह पार्टी को क्या जितायेगा। लेकिन चम्पावत उपचुनाव ने धामी पर लगा वह दाग धाने के साथ ही उनको चुनाव में भारी मतों से जीतने का रिकार्ड भी थमा दिया। इस उपचुनाव में धामी अपनी कांग्रेस की प्रतिद्वन्दी से 55,025 मतों से जीत कर कुल मतों का 94 प्रतिशत हिस्सा ले गये थे।

हिमाचल में हार और उत्तराखण्ड में जीत कैसे ?

उत्तराखण्ड में 2022 के चुनाव में बारी-बारी सरकार बदलने के रिवाज के टूटने के अनेक कारण रहे हैं। जिनमें प्रधानमंत्री मोदी के करिश्में को नकारा नहीं जा सकता। भाजपा के चुनाव प्रबंधन और मजबूत सांगठनिक शक्ति के साथ ही साम्प्रदायिक धुवीकरण की भूमिका की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। जबकि कांग्रेसी चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद के लिये लड़ने लगे थे। चुनाव में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दावेदार हरीश रावत के खिलाफ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का काल्पनिक हव्वा भी कांग्रेस की संभावनाओं पर असर कर गया। इन तमाम बातों के अलावा भाजपा की जीत के लिये पुष्कर धामी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
वैसे भी देखा जाये तो हिमाचल प्रदेश में भी प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार बदलने का रिवाज तोड़ने के लिये पूरी ताकत लगायी थी। उन्होंने हिमाचल को अपना दूसरा घर बताने के साथ ही सौगातों की झड़ी लगा दी थी। भावनात्मक रूप से लोगों को लुभाने के लिये उन्होंने न केवल हिमाचली वेश धारण किया बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रचार भी किया। हिमाचल में भी धार्मिक धु्रवीकरण के लिये समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे उठाये गये फिर भी पार्टी हार गयी। हिमाचली होने के नाते पार्टी को अपने अध्यक्ष नड्ढा का लाभ मिलना था लेकिन पार्टी अपने अध्यक्ष के गृह जनपद में भी हार गयी। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गढ़ाये हुये केन्द्रीय सूचना एवं प्रासरण मंत्री अनुराग ठाकुर के क्षेत्र में भी पार्टी हार गयी। जबकि उनको अपने निजी प्रचार में उनका मंत्रालय बहुत सहायक हो रहा है।

घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी धामी ने

दरअसल 4 जुलाइ 2021 को जब पुष्कर धामी ने उत्तराखण्ड की सत्ता संभाली थी तो उस समय बार-बार मुख्यमंत्री बदलने, पूर्व मुख्यमंत्रियों की जबरदस्त एण्टी इन्कम्बेंसी, कोरोना के कारण जनता की तकलीफों में कई गुना अधिक वुद्धि, महंगाई, बेरोजगारी आदि कारणों से भाजपा की स्थिति काफी डांबाडोल थी। लेकिन युवा पुष्कर धामी ने सत्ता संभालते ही अनुभव न होने के बावजूद अपनी कार्यसैली से ऐसा माहौल बनाया कि लोगों में भाजपा के प्रति पुनः विश्वास जगने लगा। धामी ने चुनाव से पहले 5 सौ से अधिक घोषणाऐं कर डालीं जो कि सीधे आम लोगों से जुड़ी थीं

समान नागरिक संहिता मुश्किल मगर लीड तो ले ही ली

घोषणाएं करने से पहले धामी ने संबंधित विभाग से आंकलन करवाया और उसके बाद वित्त विभाग से परामर्श लिया ताकि उसके लाभ लोगों को जल्द मिल सकें। उनकी ज्यादातर घोषणाओं से संबंधित शासनादेश जारी भी हो गए थे, भले ही उनमें से काफी को धरती पर उतरना बाकी है। कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित पर्यटन, स्वास्थ्य, परिवहन और सांस्कृतिक क्षेत्रों के लिए उन्होंने आर्थिक पैकेज घोषित किए, राष्ट्रीय आजीविका मिशन के तहत काम करने वाले स्वयं सहायता समूहों के लिए आर्थिक सहायता डीबीटी के माध्यम से सीधे उनके खातों में पहुंचाने की शुरूआत की। धामी की सबसे बड़ी घोषणा समान नागरिक संहिता की थी। धार्मिक धु्रवीकरण के लिये इस घोषणा ने उत्प्रेरक का काम किया। हालांकि यह संवैधानिक मामला है और इसमें संविधान के अनुच्छे 254 ‘क’ की बाधा से उसी अनुच्छे ही 254 ’ख’ से राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने से पार पाया जा सकता है, फिर भी मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 25 से 28 के कारण असली बाधा बाद में आ सकती है। फिर भी पुष्कर धामी ने इस दिशा में जो पहल की है उसका अनुसरण बाकी भाजपाई मुख्यमंत्री करने लगे हैं। अब तो राज्यसभा में समान नागरिक संहिता के लिये किरोड़ी लाल मीना भी प्राइवेट मेंबर बिल ले आये हैं। यह मामला इतना आसान नहीं जितना कि भापाई प्रचार कर रहे है। इसलिये इस मामले में अन्ततः फैसला केन्द्र सरकार को ही करना पड़ेगा। बहरहाल इस पहल के लिये भी भाजपा में धामी का कद बढ़ना स्वाभाविक ही है।

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