बहुत हो गया, अब बंद करो बैकडोर कैडर

–दिनेश शास्त्री —
पृथक राज्य स्थापना के बाद हुए पहले चुनाव के बाद उत्तराखंड के प्रख्यात लोकगायक व साहित्यकार गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी ने भांप लिया था कि सरकार नौकरियों की भविष्य में किस कदर बंदरबांट होगी, आज अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा की गई एक के बाद एक भर्तियों में यह सब सामने आ रहा है। यही नहीं विधानसभा की भर्तियां तो अजब ही उदाहरण है। आपको याद होगा – इस शताब्दी के पहले दशक में नेगी जी के एलबम ऐजदि भग्यानी’ में हास्य कलाकार घन्ना पर यह गीत फिल्माया गया था। आज उस गीत के बोल अक्षरश: सिद्ध हो रहे हैं। याद है न आपको शब्द यही थे, “पैली अपणा लगोलू रे, मार ताणी आखिरी दौं,”।
यही सब आप और हम देख रहे हैं। विधानसभा में भर्ती के मामले में तो यही हुआ। सोशल मीडिया पर आजकल यह गीत फिर चर्चा के केंद्र में है। आपको फिल्मांकन के उस दृश्य की भूमिका बता दूं, चुनाव का मौसम है, उम्मीदवार वोट मांगने गांव गांव जा रहा है। गांव में लोग कह रहे हैं – पढ़ लिख कर हमारे बच्चे बेकार बैठे हैं, उनकी नौकरी का इंतजाम कर दो नेता जी! जवाब में नेताजी का कहना होता है – पहले अपने लोग लगाऊंगा, तुम देखते रहना।
सुनिए गीत के बोल –
लिखी पढ़ी बेकार बैठ्यान, हमरा छोरू कु भि ख्याल रख्यान। ख्याल रख्यान।
पैली अपणा लगोलू रे, मार ताणी आखिरी दौं, तुम देखदी रैया रे, मार ताणी आखिरी दौं।
अब आप आज का परिदृश्य देखिए। दो दशक पहले जो कुछ लिखा और रचा गया, वह शब्दश: सामने दिख रहा है। कह सकते हैं कि शायद तब भी कुछ इसी तरह हो रहा होगा बेशक उसका क्वांटम कम हो लेकिन 2016 के बाद तो विधानसभा में थोक का धंधा शुरू हो गया। तब के स्पीकर ने डेढ़ सौ से ऊपर अपने भरे तो बाद के स्पीकर ने भी गुंजाइश निकाली तथा उनकी बराबरी नहीं कर पाए तो सगे भांजे सहित पिछले वालों से आधे तो नियम कायदे के विपरीत महज विवेक के नाम पर भर दिए। कोई विज्ञप्ति नहीं, कोई परीक्षा नहीं, सीधे कुर्सी पर बैठ जाओ।

लगे हाथ आज उत्तराखंड के जन कवि गिर्दा भी याद आ रहे हैं। राज्य आंदोलन के दौरान जब गिर्दा अपनी जोशीली आवाज का जादू बिखेर कर सत्ता प्रतिष्ठान को आईना दिखा रहे थे तो साथ ही भविष्य की ओर भी इशारा कर रहे थे।
गिर्दा ने दो टूक कहा था –
“हमर जनन कै कानी में बैठे छौ, वी हमरे फिर बण जनी काल”।
यानी जो आज हमारे कंधों पर बैठे हैं, वही हमारे लिए काल बन जाएंगे। सचमुच गिर्दा आज आपकी बात सत्य सिद्ध हो रही है। कोढ़ में खाज यह कि किसी को अपने धत कर्म पर जरा भी अफसोस नहीं है। कहा जा सकता है कि यदि पहाड़ के लोगों को इन सारी बातों का आभास होता तो वे शायद ही 70 गढ़ों के नरेश तथा उनके चेले चपाटों का बोझ ढोने के लिए अपना समय, संसाधन, सामर्थ्य और यौवन पृथक राज्य के लिए नहीं खपाते।
अभी भी देर नहीं हुई है। बैकडोर कैडर को खत्म करने का वक्त आ गया है और यह काम आज नहीं हुआ तो फिर कभी नहीं होगा। योग्य अभ्यर्थी धक्के खायें और नेताओं के अपने मलाई खाते रहें, यह न तो स्वीकार्य है और न नैतिक। फैसला जनता को करना है। हालांकि जनता को पांच साल में एक बार ही मौका मिलता है, किंतु प्रतिकार और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति तो रोज सामने आ रही है। वैसे 2024 भी ज्यादा दूर नहीं है। जनता अपना फैसला सुनाए उससे पहले ये बैकडोर कैडर खत्म कर दें तो बेहतर रहेगा, वरना अगर आपका रोज रोज जुमलाफरोसी से काम चलाने की मर्जी हो तो कोई कर भी क्या सकता है। एक बात और – इन शब्दों को कभी नहीं भूलना चाहिए – सदानी नि रैण रे झ्युंतु तेरी जमादरी…..।