बहुगुणा की याद दिला रहे गोदियाल, मिलेगा कुछ लाभ?
-दिनेश शास्त्री-
गढ़वाल संसदीय सीट से कांग्रेस प्रत्याशी गणेश गोदियाल 1982 के ऐतिहासिक लोकसभा उपचुनाव की याद दिला कर मतदाताओं का आशीर्वाद चाह रहे हैं। 1982 के उपचुनाव में हिमालय के वरद पुत्र के नाम से विभूषित हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने यादगार भाषण में कहा था कि ” इंदिरा गांधी मुझे जीतने नहीं देगी और गढ़वाल की जनता मुझे हारने नहीं देगी।” उनका यह बयान पहाड़ की पूरी राजनीति की दिशा को ही बदल गया था। ठीक इसी तर्ज पर आज गोदियाल बैटिंग करने की कोशिश कर रहे हैं। बहुगुणा को उन्होंने अपना आदर्श पुरुष बताया है। बहुगुणा उस समय की सबसे ज्यादा ताकतवर नेता इंदिरा गांधी से लोहा ले रहे थे।
तमाम परम्पराओं को पीछे छोड़ कर इंदिरा गांधी ने गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में 38 जनसभाओं को संबोधित किया था जबकि आधा दर्जन राज्यों के मुख्यमंत्री बहुगुणा को हराने के लिए गढ़वाल में कैंप कर रहे थे। बहुगुणा का साथ देने के लिए अटल बिहारी बाजपेई, तारकेश्वरी सिन्हा, कॉमरेड राजेश्वर राव, राजनारायण, गोरखपुर के सांसद हरिकेश बहादुर, सीतापुर के सांसद रामलाल राही जैसे नेता जुटे थे और जी सी भट्टाचार्य संसाधनों का इंतजाम कर रहे थे। वह चुनाव बहुगुणा बनाम कांग्रेस सत्ता प्रतिष्ठान बना था। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पूरे चुनाव अभियान तक गढ़वाल में डटे रहे थे। गढ़वाल के आसमान में सिर्फ हेलीकॉप्टर ही नजर आते थे।
उस हिसाब से गोदियाल द्वारा की जा रही तुलना फिट तो नहीं बैठती लेकिन उन्होंने जिन प्रतीकों को लेकर बयान दिया है, उसके कुछ निहितार्थ जरूर हो सकते हैं। आज राजनीति में न इंदिरा गांधी जैसा व्यक्तित्व है और न बहुगुणा जैसी दृढ़ता किसी में नजर आती है। बहुगुणा कहते थे कि हिमालय टूट सकता है लेकिन झुक नहीं सकता किंतु आज उस प्रतीक को ही आधार मान लिया जाए तो आप रोज हिमालय को झुकते देख सकते हैं। एक दिन पहले गोदियाल के सामने ही भाजपा को कोसने वाले विधायक रातोंरात हृदय परिवर्तन कर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए तो राजनीति में हिमालय जैसी दृढ़ता की बात खारिज सी हो जाती है। 1981 में बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ते समय संसद की सदस्यता से इसलिए इस्तीफा दे दिया था कि तब राजनीति में उच्च आदर्शों का पालन करने की परम्परा थी। बहुगुणा का कहना था कि मैं कांग्रेस के टिकट पर चुना गया था, इसलिए नैतिक रूप से इस्तीफा दे रहा हूं। उनके बाद कितने उदाहरण इस तरह के मिलते हैं। हिमालय सा स्वाभिमान देखना तो पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद तो सपना सा हो गया है।
फिर भी गोदियाल ने अपने तेवरों से साफ कर दिया है कि मुकाबला दिलचस्प होगा। उनका मुकाबला मुख्य रूप से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अनिल बलूनी से है, इसलिए उनके निशाने पर भी वही हैं। नामांकन रैली से कांग्रेस ने शक्ति प्रदर्शन तो किया, लेकिन पौड़ी में उमड़ी भीड़ में से कितने लोग मतदान केंद्र तक जायेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।
गोदियाल ने अपने प्रतिद्वंदी को एक माह के अवकाश पर पहाड़ की सैर पर आने वाले प्रवासी के रूप में निरूपित किया है। इसके जवाब में भी तर्क आयेंगे, अभी तो चुनाव अभियान का आगाज हुआ है। प्रतीकों की लड़ाई आगे क्या करवट लेती है। इस पर सभी की नजर रहेगी। वैसे गोदियाल का अपनी टोपी पर बुरांश का फूल लगाना भी तो एक प्रतीक ही तो था। कमी है तो परिसीमन, भू कानून, मूल निवास, पहाड़ की अस्मिता जैसे बुनियादी मुद्दे न तो गोदियाल ने हो उठाए और न दूसरी तरफ से। ऐसे में अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय पार्टियां अपनी लाइन पर ही चलेंगी। क्षेत्रीय अस्मिता और जल, जंगल, जमीन की बात शायद ही इस चुनाव में प्रमुखता से उठाई जाए। अलबत्ता अंकिता कांड की याद निर्दलीय आशुतोष नेगी दिलाते रहेंगे। फिलहाल गोदियाल को बहुगुणा के प्रतीक का लाभ मिलेगा भी या नहीं, इसका निर्णय तो चार जून को ही होगा कि गढ़वाल की जनता ने उनकी बात को कितनी तवज्जो दी है। आप भी रोचक हो रहे इस समर पर नजर बनाए रखें, उत्तराखंड की इसी सीट पर सर्वाधिक फोकस रहने के आसार दिख रहे हैं।