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20 हजार संथाल शहीदों की याद में मनाया जाता है “हूल दिवस”

–By Usha Rawat

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने हूल दिवस के अवसर पर आदिवासी समाज के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की है। 30 जून को हूल दिवस के अवसर पर 1855 के हूल क्रांति के जनक सिद्धो-कान्हू को याद किया जाता है। इस दिन हजारों आदिवासियों ने सिद्धो-कान्हू के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका था। 1857 के सिपाही विद्रोह से पहले 30 जून 1855 को ब्रिटिश शासन और शोषण के खिलाफ सिदो कान्हू के नेतृत्व में संथाल हूल था। जिसमें हजारों वीर शहीद हुए।संथाल विद्रोह जिसे क्षेत्रीय तौर पर “संथाल- हूल” के नाम से बेहतर जाना जाता है झारखंड के इतिहास में होने वाले सभी जनजातीय आंदोलनों में संभवत: सबसे व्यापक एवं जबरदस्त  विद्रोह था ।

इस विद्रोह में करीब 20 हजार  संथाल वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ्तार कराया  गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में  सरे आम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा  दी गई। विडंबना देखिये ! आज  सिद्धू-कान्हू की नवीं पीढ़ी है जो दो जून के रोटी के लिए भी तरस रही है।

उस आदिवासी क्षेत्र में जिसे उस समय बंगाल प्रेसीडेंसी के नाम से जाना जाता था। भारत में वर्तमान झारखण्ड और पश्चिम बंगाल का एक विद्रोह था। यह 1855 को शुरू हुआ और 1856 तक चला। इस विद्रोह का मूल कारण अंग्रेजों के द्वारा जमीदारी व्यवस्था तथा साहूकारों एवं महाजनों के द्वारा शोषण एवं अत्याचार था. इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव में किया था. संथालों के हितों की रक्षा का ख्याल रखते थे. वे गांव के लोगों से लगान वसूलते थे तथा उसे एक साथ राजकोष में जमा करते थे

संथाल विद्रोह का नेतृत्व करने वाले दो भाइयों सिदो और कान्हू ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। सिद्धू मुर्मू ने विद्रोह के दौरान समानांतर सरकार चलाने के लिए लगभग दस हजार संथालों को जमा किया था। उनका मूल उद्देश्य अपने स्वयं के कानूनों को बनाकर और लागू करके कर एकत्र करना था। इस सभा में संथालों को यह विश्वास दिलाया गया कि खुद भगवान् ठाकुर की यह इच्छा है कि जमींदारी, महाजनी और सरकारी अत्याचारों के खिलाफ संथाल सम्प्रदाय डट कर विरोध करें । अंग्रेजी शासन को समाप्त कर दिया जाए । 400 गांवों के 60,000 से अधिक लोगों ने पहुंचकर जंग का ऐलान कर दिया और हमारी माटी छोड़ो का ऐलान कर दिया।अंग्रेजों ने इनके विद्रोह को ऐसे कुचला कि जालियांवाला कांड भी छोटा पड़ जाता है। इस विद्रोह में अंग्रेजों ने लगभग 30 हजार संथालियों को गोलियों से भून डाला था।

घोषणा के तुरंत बाद, संथालों ने हथियार उठा लिए। कई गाँवों में ज़मींदारों, साहूकारों और उनके गुर्गों को मार डाला गया। खुले विद्रोह ने कंपनी प्रशासन को चकित कर दिया। प्रारंभ में, एक छोटी टुकड़ी को विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजा गया था लेकिन वे असफल रहे और इससे विद्रोह की भावना को और बढ़ावा मिला। जब कानून और व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो रही थी, तो कंपनी प्रशासन ने अंततः एक बड़ा कदम उठाया और विद्रोह को कुचलने के लिए स्थानीय जमींदारों और मुशिर्दाबाद  के नवाब की सहायता से बड़ी संख्या में सैनिकों को भेजा। ईस्ट इंडिया कंपनी  ने सिद्धू और उनके भाई कान्हू को गिरफ्तार करने के लिए इनाम की भी घोषणा की।

इसके बाद कई झड़पें हुईं, जिसके परिणामस्वरूप संथाल बलों की बड़ी संख्या में हताहत हुए। संथालों के आदिम हथियार ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बारूद के हथियारों का मुकाबला करने में असमर्थ साबित हुए। 7वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट, 40वीं नेटिव इन्फैंट्री और अन्य से टुकड़ियों को कार्रवाई के लिए बुलाया गया। प्रमुख झड़पें जुलाई 1855 से जनवरी 1856 तक कहलगाँव, सूरी, रघुनाथपुर और मुनकटोरा जैसी जगहों पर हुईं।

दोनों भाइयों, सिद्धो-कान्हू  को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई। कार्रवाई मेंसिद्धो-कान्हू के मारे जाने के बाद अंततः विद्रोह को दबा दिया गया। विद्रोह के दौरान संथाल झोपड़ियों को ध्वस्त करने के लिए मुर्शिदाबाद के नवाब द्वारा आपूर्ति किए गए युद्ध हाथियों का उपयोग किया गया था। इस घटना में 20,000 से अधिक मारे गए, गाँव नष्ट हो गए और कई विद्रोह के दौरान लामबंद हो गए।

 

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