हरियाली अखबारों या मीडिया के बजाय धरती पर दिखे तो मानवहित में होगा
-जयसिंह रावत
वर्षात का मौसम शुरू होते ही देशभर में वन महोत्सव, हरियाली और हरेला नाम से क्षेत्र विशेष की भाषा और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार वृक्षारोपण पर्व मनाये जा रहे हैं। वर्षात का यही सीजन है जिसमें पौधों को अपने बाल्यकाल में पर्याप्त जल के साथ ही वातावरण में नमी और तापमान मिल जाता है। भले ही पौधारोपण के ये कार्यक्रम प्रचार, पुरस्कार और औपचारिकता के लिये ज्यादा होते हैं। हरेला के नाम पर जिस तरह जहां तहां फोटो सेशन चले वह वह हरियाली के प्रति कम और आत्म प्रचार के प्रति समर्पण को ज्यादा ही दिखाता है। इसलिये इस अत्यन्त महत्वपूर्ण मामले में आत्मप्रचार और औपचारिकता के बजाय गंभीरता की जरूरत है। क्योंकि वृक्ष नहीं तो मानवजीवन भी संभव नहीं है। मानव ही नहीं बल्कि बिना पादप या वनस्पति के इस धरती पर जीवन ही संभव नहीं है। इसलिये जरूरी है कि हरियाली अखबारों और विभिन्न प्रचार माध्यमों से अधिक धरती पर दिखाई देनी चाहिये।
वृक्षों लिये अमृता समेत सेकड़ों ने गंवाये थे प्राण
हमारे देश में वृक्षों के प्रति पहली बार चेतना जागृत नहीं हो रही है। चण्डी प्रसाद भट्ट और सुन्दरलाल बहुगुणा मानव जीवन के लिये वनों और पर्यावरण चेतना को लेकर भारत को विश्वगुरू के रूप में स्थापित कर चुके हैं। उनसे भी पहले भारत के पहले केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री के.एम. मुंशी सन् 1950 में वन संरक्षण और पेड़ लगाने के लिए लोगों में उत्साह पैदा करने के लिए वन महोत्सव की शुरुआत कर चुके थे। यह त्योहार भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है। के. एम. मुंशी से भी पहले सन् 1730 में अमृता देवी विश्नाई वृक्षों की रक्षा के लिये सेकड़ों लोगों के साथ बलिदान देकर दुनियां में ऐसी मिसाल पेश कर चुकी हैं जो न भूतो और न भविष्यति है। वास्तव में सन 1730 में राजस्थान के मारवाड़ में खेजड़ली में जोधपुर के महाराजा द्वारा हरे पेड़ों को काटने से बचाने के लिए, अमृता देवी विश्नाई ने अपनी तीन बेटियों आसू, रत्नी और भागू के साथ अपने प्राण त्याग दिए। उनके साथ 363 से अधिक अन्य बिश्नोई , खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए मर गए। विश्नोई समाज आज भी वृक्षों और वन्यजीवों के संरक्षण के लिये विश्व के लिये एक उदाहरण है।
के.एम.मंशी ने शुरू किया था वन महोत्सव
वृक्षों के लिये सपरिवार अपने प्राण गंवाने वाली अमृता देवी का कहना था कि ‘‘अगर किसी के सिर की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो यह इसके लायक है।’’ यही कारण है कि भारत में पेड़ों से जुड़े इतने सारे त्यौहार हैं। उनमें से एक वन महोत्सव दिवस या वन दिवस है। इसे धरती मां को बचाने के ऊंचे उद्देश्य से धर्मयुद्ध के रूप में आजादी के तत्काल बाद के.एम. मंशी ने शुरू किया था। लेकिन समाज में ऐसे भी तत्व हैं जिनको समाज या मानवता से नहीं बल्कि केवल अपने निजी हितों से मतलब है या जिनकी नजर में प्रकृति गौण और विकास की चकाचौंध अधिक महत्वपूर्ण है। कुछ लोग जब अपनी आजीविका के लिये दूसरों की हत्या का पेशा अपना सकते हैं तो वन तस्करों के लिये पेड़ों की हत्या गाजर मूली काटने के समान ही है। झूम खेती करने वालों की तरह कुछ के लिये पेड़ काटना आजीविका के लिये जरूरी है तो कुछ अज्ञानतावश पेड़ काट कर खेती करते हैं।
वृक्ष से ही मिलती है प्राणवायु
वास्तव में हम एक वृक्ष का मूल्य केवल उसकी लकड़ी या ज्यादा से ज्यादा उसके फल और घास से आंकते हैं। जबकि उसका इससे भी कहीं अधिक परोक्ष महत्व है जो दिखाई नहीं देता है। वृक्ष वातावरण से कार्बनडाइऑक्साइड सोखते हैं और ऑक्सीजन हवा में छोड़ते हैं। ऑक्सीजन को प्राणवायु कहा जाता है। अगर वातावरण में ऑक्सीजन ही नहीं रहेगी तो जीवन संभव नहीं है। बिना ऑक्सीजन के आदमी कुछ ही मिनटों में प्राण त्याग देता है। इसी प्रकार वृक्ष को जीने के लिये कार्बनडाइऑक्साइड की जरूरत होती है। ऑक्सीजन देने के अलावा, पेड़ पर्यावरण से विभिन्न हानिकारक गैसों को भी अवशोषित करते हैं जिससे ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कम होता है। इसे कार्बनस्टॉक के रूप में आंका जाता है। देश के जंगल में कुल कार्बन स्टॉक 7,204 मिलियन टन होने का अनुमान है और 2019 के अंतिम आकलन की तुलना में देश के कार्बन स्टॉक में 79.4 मिलियन टन की वृद्धि मानी गयी है। कार्बन स्टॉक में वार्षिक वृद्धि 39.7 मिलियन टन बताया गया है। प्रकृति ने वनस्पति और जीवधारियों के लिये ये ऐसा रिश्ता तय किया है जो कि अटूट है और अगर इसे तोड़ा गया तो दोनों का ही अस्तित्व नहीं है।
आज जो कुछ हमारे पास है वह जंगल से ही मिला है
आज हम भोजन के रूप गेंहू की रोटी या चावल खाते हैं तो गेंहूं और धान कभी जंगल की उपज ही रही होगी। इसी तरह रोटी और भात के साथ सब्जियों और दालों का मूल श्रोत भी जंगल ही है। जनजातियां तो आज भी भोजन के लिये वनोपज पर निर्भर हैं। हमारे दैनिक जीवन के उपयोगी पशु जैसे भैस, गाय, घोड़ा, कुत्ता आदि इन सभी का मूल भी तो वन ही हैं। हमने तो हाथी को भी अपने मतलब के लिये पालतू बना दिया। पैसे कमाने के लिये शेर और बाघ को भी पिंजरे में बंद कर दिया था जिसे अब जा कर अदालत ने सर्कसों के पिंजरों से उन्हें आजाद किया। लेकिन वन्य जीवों और उनके अंगों की तस्करी अब भी चल रही है।
जीवधारी वनों को फैलाते भी हैं
पेड़ हमें भोजन और आश्रय भी प्रदान करते हैं। कई पेड़ों के फल पक्षियों और जानवरों के भोजन के काम आते हैं और जीव उनके बीज फैला कर वृक्ष के पुनर्जीवन में मदद करते हैं। पेड़ों की पत्तियों, जड़ों और छाल का उपयोग दवाओं को तैयार करने के लिए किया जाता है। जंगली पादप जातियों में छिपे औषधीय गुणों की सहायता न मिली होती तो संसार के अनेक क्षेत्रों में प्रलय की जैसी स्थिति होती। सर्पगन्धा, नयनतारा, गिलॉय एवं रतालू वंश के जैसे अनगिनत पौधों ने मनुष्य के रोग निवारण में जो योगदान दिया वह किसी से छिपा नहीं है।
भोजन के साथ जीवनरक्षा के लिये औषधि भी देते हैं वृक्ष
पेड़ जानवरों और मनुष्यों को भी आश्रय प्रदान करते हैं। विशाल, घने वृक्षों से भरे जंगल जंगली जानवरों के आवास के रूप में काम करते हैं और समृद्ध जैव विविधता के लिए योगदान करते हैं। पेड़ों से निकाली गई लकड़ी और अन्य सामग्री का उपयोग कई चीजों को शिल्प करने के लिए किया जाता है जो एक आरामदायक जीवन के लिए आवश्यक हैं। पेड़ पर्यावरण को शांत और खुशनुमा भी बनाते हैं।
संकट में वृक्ष जान बचाने को भाग भी नहीं सकते
पादप और जीवधारी भले ही एक दूसरे के पूरक हों मगर जीवधारियों से अधिक संवेदनशील पादपों का जीवन है, इसीलिये आज बड़ी संख्या में कुछ पादप प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं, कुछ संकटापन्न हैं और कुछ बिल्कुल विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों या वृक्षों की समस्या यह है कि अधिकांश पौधे भूमि पर ही उगते हैं। वे वनाग्नि जैसे संकट के समय जान बचाने के लिये भाग नहीं सकते। मूक खड़े रह कर नष्ट हो जाना उनकी नियति है। वे जीवों की तरह हमलावरों से प्रतिकार नहीं कर सकते। यदि उनकी संख्या कम हो जाय तो परागण, संगति या प्रजनन के लिये वे कहीं जा कर सहायता नहीं ले सकते।
वनावरण का लक्ष्य अभी काफी दूर है भारत का
भारत में वनावरण तो बढ़ा है मगर वन नीति 1988 के अनुरूप लक्ष्य अभी बहुत दूर है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 में कुल वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.71 प्रतिशत है, जबकि 2019 में 21.67 प्रतिशत और 2017 में 21.54 प्रतिशत था। लेकिन वन नीति में मैदानी क्षेत्र के लिये कम से कम 33 प्रतिशत और पहाड़ी क्षेत्र के लिये 67 प्रतिशत वनावरण की आवश्यकता महसूस की गयी है। उत्तराखण्ड जैसा पहाड़ी राज्य 45 प्रतिशत वनावरण के आसपास ठहरा हुआ है। सर्वाधिक जैव विविधता वाले पूर्वोत्तर में वनावरण घटता जा रहा है। वन रिपोर्ट के अनुसार, प्राकृतिक आपदाओं, पेड़ों की कटाई, विकासात्मक गतिविधियों और स्थानांतरित कृषि के कारण वनावरण नष्ट होता है।