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निर्वाचन आयोग में सुधार के बिना निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की कल्पना बेमानी

-जयसिंह रावत

हमारी संसद देश की चुनाव प्रणाली में सुधार लाने के लिये लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में 1950से लेकर अब तक कई संशोधन कर चुकी है। नवीनतम् संशोधन वोटर कार्ड को आधार कार्ड से जोड़ने से संबंधित है। लगता नहीं कि इसके बाद भी हमारी चुनाव प्रणाली एकदम निष्पक्ष, स्वतंत्र और फूल प्रुफ हो जायेगी। क्योंकि जब तक चुनाव सम्पन्न कराने वाले चुनाव आयोग का सुधार नहीं हो जाता तब तक चुनाव सुधार के प्रयास महज औपचारिक ही रहेंगे। वास्तव में निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष तो होना ही चाहिये साथ ही उसको ऐसा ही दिखना भी चाहिये, जो कि नहीं दिखाई देता है। निर्वाचन आयोग की हकीकत यह है कि वह भारत सरकार का ही अंग है और केन्द्र में जिस भी पार्टी की सरकार होती है वह अपने पसंदीदा अफसरों को आयुक्त नियुक्त करती है। टी.एन. शेषन जैसे विरले ही आयुक्त या मुख्य निर्वाचन आयुक्त होते हैं, जो कि सरकार की पसन्द और नापसंद की परवाह नहीं करते। सत्ता में बैठे लोगों पर खुले आम नोट, शराब,साड़ियां आदि बांटने के आरोप लगते हैं और सरकारी मशीनरी तमाशबीन बनी रहती है। उत्तराखण्ड के खटीमा में आप पार्टी के प्रत्याशी एस एस दलेर ने तो नोट बंटवाने का बहुत गंभीर आरोप लगा दिया। अगर आरोप में दम है तो यह लोकतंत्र और चुनाव का मजाक ही होगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आत्मा होते हैं और उस आत्मा को रौंदने का प्रयास अक्सर किया जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है जो भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव सम्पन्न कराने वाली शीर्ष संस्था है ताकि चुनाव प्रक्रिया में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके। हमारा देश भ्रष्टाचार, भाई भतीजाबाद, राजनीति-नौकरशाही और अपराधियों का गठजोड़, कुशासन, और तरक्की के अवसरों पर मुट्ठीभर लोगों का कब्जा आदि विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त है। न्याय भी आम आदमी की पहुंच से दूर है। इन सभी समस्याओं का मूल हमारी चुनाव प्रणाली में ही छिपा हुआ है। इन विकृतियों से निजात चुनाव प्रणाली में सुधार से ही मिल सकती है और चुनाव प्रणाली वोटरों और राजनीतिक दलों के लिये कानून में बदलाव के साथ ही निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और निडरता बहाल करने से ही संभव है।

वर्तमान में निर्वाचन आयोग कार्यपालिका का ही एक अंग है इसलिये आयोग चुनाव के दौरान सत्ता पक्ष की धांधलियों की अनदेखी कर लेता है, जबकि विपक्ष पर पैनी नजर रखता है। कई बार लगता है कि चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करने के लिये निर्वाचन आयोग के हाथ सूची थमा दी जाती है।

चुनावों में सत्तारुढ़ दल द्वारा सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग आम बात हो गई है। विपक्षी दल चुनावों में प्रशासनिक तंत्र के दुरुपयोग के विरुद्ध हमेशा आवाज उठाते रहे हैं। लेकिन जब विपक्ष में बैठे वे दल सत्तारूढ़ होते हैं तो फिर उन पर भी चुनावों में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरेाप लगता है। निर्वाचन अधिकारियों पर अनुचित रूप से राजनीतिक दबाव डाले जाते हैं। आयोग पर केन्द्र सरकार का और राज्यों की निर्वाचन मशीनरी पर राज्य की सत्तारूढ़ पार्टियों का दबाव रहता है। चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकारें गोटियों की तरह अपने भरोसेमन्द अधिकारियों को महत्वपूर्ण स्थानों पर फिट कर लेती हैं। इसीलिये राज्यों में भी निर्वाचन आयोग के गठन की सिफारिश हो चुकी है। वर्तमान में राज्य का ही कोई आइएएस अधिकारी राज्य का मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है, जोकि अन्य जन सेवकों की तरह राज्य सरकार का सेवक होता है और उस पर सत्ताधारी दल का प्रभाव हो सकता है। जिला मैजिस्ट्रेट ही निर्वाचन अधिकारी होते हैं जोकि अपनी सरकार का हुक्म बजाते हैं। कहने के लिये चुनाव के दौरान सारी मशीनरी निर्वाचन आयोग के अधीन आ जाती है, जिसकी अपनी निष्पक्षता हमेशा ही संदेह के घेरे में रहती है।

चुनाव सुधारों की प्रकृया 1951 से ही शुरू हो गयी थी। इसी क्रम में आयोग को निष्पक्ष बनाने एवं चुनाव में धन बल, बाहुबल जैसे अनुचित माध्यमों का इस्तेमाल रोकने के लिये 1974 में तारकुण्डे समिति से लेकर 2010 में तनखा समिति तक 8 के करीब समितियों का गठन हो चुका है। सभी ने निर्वाचन प्रकृया में सुचिता लाने के लिये कई सुझाव दिये जिन पर कार्यवाही भी हुयी। जैसे इलेक्शन पीटीसन के लिये ट्रिब्यूनल में जाने के बजाय हाइकोर्ट में जाना, मतदान की आयु 21 से घटा कर 18 वर्ष करना, ईवीएम मशीनों का प्रयोग, मतदाता पहचान पत्रों का चलन, दो से अधिक क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर रोक, मतदान कर्मियों को सीधे निर्वाचन आयोग के अधीन करना, चुनाव खर्च की सीमा तय करना और मतदान समाप्त होने से आधे घण्टे पहले तक एक्जिट पोल पर रोक आदि शामिल हैं। पहले एक सदस्यीय आयोग होता था। अब दो अन्य आयुक्त भी आयोग में शामिल कर लिये गये हैं। लेकिन आयोग में सुधार के लिये जो सिफारिशें की गयीं थीं उन पर कार्यवाही नहीं हुयी। आयोग में दो अतिरिक्त आयुक्तों की पहली बार नियुक्ति 16 अक्टूबर 1989 को हुयी थी जिनका कार्यकाल बहुत ही कम 1 जनवरी 1990 तक रहा। उसके बाद 1 अक्टूबर 1993 से नियमित रूप से केन्द्र सरकार द्वारा मुख्य आयुक्त के साथ दो अन्य आयुक्त नियुक्त किये जाने लगे।

तारकुंडे समिति (1974-75) के बाद दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने भी निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष और दबाव मुक्त बनाने के लिये आयोग की नियुक्तियों में सरकार का एकाधिकार समाप्त करने की सिफारिश की थी। तारकुंडे समिति की सिफारिश पर मतदान की उम्र 21 से घटा कर 18 तो हो गयी मगर निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार ने नहीं छोड़ा। तारकुंडे समिति ने तीन सदस्यीयएक कमेटी की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की सिफारिश की थी। इस कमेटी में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष का नेता या विरोध पक्ष का प्रतिनिधि होना था। तारकुण्डे समिति ने निर्वाचन आयोग की सहायता के लिए केंद्र और राज्यों में स्वायत्त निर्वाचन परिषदें बनाने का भी सुझाव दिया था। इससे साथ ही अनुचित कामों पर निगरानी के लिये ‘‘मतदाता परिषद’’ के गठन का भी सुझाव दिया था।

मई 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने भी निर्वाचन आयोग तीन सदस्यीय निकाय बनाने का सुझाव दिया था। समिति की सिफारिश थी कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा की जानी चाहिए और अन्य सदस्यों की नियुक्ति मुख्य निर्वाचन आयुक्त से विचार-विमर्श करके की जानी चाहिए। समिति ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल 5 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक करने की सिफारिश भी की थी। उसके बाद सरकारों ने अन्य सिफारिशें तो मान लीं मगर निर्वाचन आयोग पर सरकारी नियंत्रण हटाने की सिफारिश अब तक की सभी सरकारें टाल गयीं। वर्तमान में मुख्य निर्चाचन आयुक्त को सरकार अपनी सुविधानुसार नियुक्त करती है और उसे केवल संसद द्वारा ही हटाया जा सकता है और संसद में सत्ताधारी दल का ही बहुमत होता है।

अब तक निर्वाचन आयोग से लेकर सीएजी और लोकसेवा आयोगों में लगभग सभी संवैधानिक पदों पर केन्द्र सरकार अपने पसंद के लोगों को नियुक्त करती रही है। सवाल उठता है कि जब सीबीआइ निदेशक, सूचना आयुक्त और लोकपाल/लोकायुक्त जैसे संवैधानिक पदों पर सरकार, न्यायपालिका, विधायिका और प्रतिपक्ष के नेता वाली कमेटी की सिफारिश पर नियुक्तियां हो सकती हैं तो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियां भी इसी तरह सर्व सर्वम्मति से क्यों नहीं हो सकतीं?

jaysinghrawat@gmail.com

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