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एक नहीं दो डायरों के बहसीपन का नतीजा था जलियांवाला

Very few moments in the history of our sub-continent are as repulsive to remember and yet as significant to history as the infamous Jallianwala Bagh massacre. The horrendous incident of the brutal, cold-blooded murder of 500 to 600 peaceful protestors at the hands of British imperialist rule is considered a dark chapter in the history of the Indian struggle for independence


-जयसिंह रावत
जलियांवाला बाग की एक और बरसी आ गयी। इतिहास के काले पन्नों में दर्ज इस जघन्यतम् और क्रूरतम् नरसंहार को हुये 105 साल गुजर गये मगर भारतवासियों के दिलो दिमाग में यह हादसा इतनी गहराई तक बैठा हुआ है कि जन संघषों के दमन के मामलों की तुलना के लिये इसी जघन्य कांड का उदाहरण दिया जाता है। इस कांड के बारे में कुछ भ्रांतियां बनी रहीं जैसे डायर नाम के दो खलनायकों को लेकर भी। महान क्रांतिकारी ने जनरल डायर को नहीं बल्कि लेफ्टिनेंट गवर्नर ड्वायर को मारा था।

Then Lieutenant Governor of Punjab, Michael O’Dwyer ordered Dyer to teach lessons to the people opposing the Rowlatt Act.

 

एक डायर गवर्नर और दूसरा ब्रिगेडियर जनरल

मानवता के खिलाफ इस भयंकर कांड के पीछे दो खलनायकों के मिलते जुलते उच्चारण वाले नाम अक्सर भ्रांति पैदा करते हैं। दरअसल 13 अप्रैल 1919 को जब यह कांड हुआ उस समय सर माइकल फ्रांसिस ओ‘ड्वायर ( व्श्क्ूलमत ) पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। इसकी स्पेलिंग का उच्चारण डायर के तौर पर भी किया जाता है। प्रख्यात इतिहासकार और लेखिका डा0 इंदु बग्गा के अनुसार हालांकि ब्रिगेडियर-जनरल डायर (क्लतम ) मौके पर मौजूद सैन्य कमाडर था। लेकिन उस समय पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल फ्रांसिस ओ‘ ड्वायर था, जिसने जलियांवाला नरसंहार का आदेश दिया था। यह सख्श घोर साम्राज्यवादी था और इसी ने रोलेट एक्ट के खिलाफ भड़के आन्दोलन को सख्ती से कुचलने के आदेश दिये थे, ताकि ब्रिटिश राज की बर्बरता आन्दोलनकारियों में भय पैदा कर सके। इस नरसंहार का दूसरा खलनायक ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर था। डायर मूलतः एक कर्नल था जिसे अस्थाई ब्रिगेडियर जनरल के तौर पर वहां पर सेना की कमान दी गयी थी। कमाडर के तौर पर डायर ने ही आन्दोलनकारियों पर रायफलों और मशीनगनों से तब तक बरसाई जब तक गोलियां समाप्त नहीं हो गयी। बगा का कहना है कि अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी ड्वायर ने भारतीयों के लिए किसी भी रियायत का विरोध करना जारी रखा था तथा हंटर कमीशन के समक्ष जनरल/ कर्नल डायर का समर्थन करता रहा।

                           Col. Reginald Edward Harry Dyer, then acting military commander of Amritsar.

असली कातिल का उधमसिंह ने किया कत्ल

इन दोनों ही डायरों की मौत अलग-अलग कारणों से हुयी। पंजाब के इतिहास की विशेषज्ञ डा0 इंदु बगा के अनुसार दानों ही डायरों का जन्म सन् 1864 में हुआ था। लेफ्टिनेंट गवर्नर फ्रांसिस ओ‘ ड्वायर की 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में महान क्रांतिकारी उधम सिंह ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। उधमसिंह को माइकल ओ’ डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। जबकि डायर की 1927 में मस्तिष्क रक्तस्राव और धमनीकाठिन्य से मृत्यु हो गई थी। जबकि रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर की मृत्यु छब्बीस साल बाद 23 जुलाइ 1927 को इंग्लैड के ब्रिस्टल के निकट लॉंग एश्टन में 1927 में मस्तिष्क रक्तस्राव और धमनी काठिन्य से मृत्यु हो गई थी। अमर शहीद उधमसिंह जलियांवाला बाग नेरसंहार के वक्त घटनास्थल पर ही थे और बचे हुये लोगों में से एक थे।

अमृतसर के कसाई की जन्मभूमि पंजाब ही थी

जलियांवाला बाग नरसंहार में गोलियों की बौछारें कराने वाले डायर, जिसे अमृतसर का कसाई भी कहा जाता है, का जन्म और पालन पोषण पंजाब के मुर्री में हुआ था जो कि अब पाकिस्तान में है। वह अंग्रेजी के साथ ही हिन्दुस्तानी भाषाओं का अच्छा ज्ञाता था। डायर को 1885 में वेस्ट सरे रेजिमेंट में कमीशन मिला था और बाद में भारतीय सेना में स्थानांतरित कर दिया गया। वह 1886-87 में बर्मा के अभियान में भी शामिल और उसने 1901-02 में वजीरिस्तान (अब पाकिस्तान में) की नाकाबंदी में भाग लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उसके पास पूर्वी फारसी घेरे का प्रभार था, जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान में जर्मन घुसपैठ को रोकना था। वहां भी डायर ने लोगों पर अपनी मर्जी से ज्यादतियां कीं जिस कारण उसे वहां से हटा दिया गया था। उसे ब्रिगेडियर जनरल की अस्थाई पदवी  मिली थी अन्यथा वह कर्नल ही था और इसी पद से सेना से हटाया गया था।

जलियांवाला नरसंहार की पृष्ठभूमि में रॉलेट एक्ट

इस नरसंहार की पृष्ठभूमि में रॉलेट एक्ट के विरुद्ध भड़का जनाक्रोश था। महात्मा गांधी के आह्वान पर इस एक्ट के विरुद्ध देश के विभिन्न हिस्सों में सत्याग्रह 6 अप्रैल, 1919 को शुरू हो गया था। पंजाब में तो स्थिति विस्फोटक होने वाली थी। उस समय पंजाब के सबसे बड़े शहर लाहौर में प्रदर्शनकारियों की संख्या इतनी अधिक थी कि ऐसा लगा मानो पूरा शहर सड़कों पर उतर आया हो। मदन मोहन मालवीय, मुहम्मद अली जिन्ना और मजहर उल हक जैसे कई नेताओं ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफा दे दिया। उस समय पंजाब के ब्रिटिश लेफ्टिनेंट-गवर्नर, माइकल ओ‘डायर इस बारे में विशेष रूप से परेशान था। डॉ0 सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल ने रॉलेट एक्ट के खिलाफ पंजाब के अमृतसर में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया और जनता के बीच हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रेरित किया। आंदोलन को कुचलने के इरादे से माइकल ओ‘ डायर ने 9 अप्रैल 1919 को डॉ. सैफुद्दीन और सत्यपाल की गिरफ्तारी के आदेश दिये थे। 13 अप्रैल, 1919 तक पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लागू हो गया और सभी सार्वजनिक समारोहों और बैठकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। वह बैसाखी का दिन था और श्री हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में अरदास से लौटने के बाद डॉ. सैफुद्दीन और डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में जलियांवाला बाग में काफी भीड़ जमा हुई थी।

जलियांवाला बाग में 500 लोग मारे गये थे

उस दिन अमृतसर में सेना के कार्यवाहक सैन्य कमांडर रेजिनाल्ड डायर को जलियांवाला बाग में होने वाली सार्वजनिक सभा की खबर मिली तो वह 13 अप्रैल 1919 को अपने सैनिकों के साथ सभास्थल में पहंुंच गया और उसने बाग के एकमात्र निकास को कवर करवा लिया। उसने बिना चेतावनी के राइफलों/मशीन गनों से लैस अपने सैनिकों को निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया जिससे भीड़ में भगदड़ मच गई। बाग से बाहर निकलने का केवल एक ही रास्ता था जो बंद था। आन्दोलनकारियों पर गोलीबारी 10 से 15 मिनट तक जारी रही और गोला-बारूद खत्म होने पर ही रुकी। बदहवासी में कुछ लोग वहां बेकार पड़े कुएं में जा गिरे। एक रिपोर्ट के अनुसार उस कुएं से लगभग 150 शव निकाले गये। डायर के आदेश पर कुल 1,650 राउंड गोलियाँ चलाई गईं और 500 से अधिक लोग मारे गए तथा 1500 से अधिक घायल हुए। मृतकों में पुरुष, महिलाएं, बुजुर्ग और सात महीने के बच्चे शामिल थे। मार्शल लॉ के कारण घायलों को चिकित्सा सहायता नहीं मिल सकी और उन्होंने दम तोड़ दिया। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में आटिकल हिस्ट्री के तहत 29 फरवरी 2024 को छपे एक लेख के अनुसार उस नरसंहार में 379 लोग मारे गये थे। इस नरसंहार से कुपित रविन्द्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड समेत अपनी सारी सरकारी पदवियां त्याग दी थीं और महात्मा गांधी ने भी अपनी ‘‘केशर-ए- हिन्द’’ उपाधि को त्याग दिया था और सारे देश में आजादी के आन्दोलन में फिर उबाल आ गया था।

हंटर कमीशन की जांच पक्षपातपूर्ण थी

इस भयानक नरसंहार के बाद भारत सरकार की लेजिसलेटिव काउंसिल ने घटना की जांच के लिए 29 अक्टूबर 1919 को हंटर आयोग का गठन किया। लॉर्ड विलियम हंटर ने जांच समिति का नेतृत्व किया। हंटर आयोग के सदस्यों में अध्यक्ष हंटर के अलावा डब्ल्यू.एफ. राइस, अपर सचिव, भारत सरकार (गृह विभाग), जस्टिस जी.सी. रैंकिन, उच्च न्यायालय, कलकत्ता के न्यायाधीश, मेजर जनरल सर जॉर्ज बैरो, पेशावर डिवीजन के कमांडेंट, सर चिमनलाल सीतलवाड, पंडित जगत नारायण और सरदार सुल्तान अहमद खान थे। आयोग के समक्ष 19 नवंबर को जनरल डायर उपस्थित हुआ। मगर उसने अपने इस जघन्य अपराध को न्यायोचित बताया और कहा कि ऐसा न होता तो यूरोपियन्स का ही एक और नर संहार होता। आयोग के समक्ष डवायर ने भी डायर का समर्थन किया। आयोग ने 26 मई 1920 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें अधिकांश सदस्यों ने डायर को ‘कर्तव्य की गलत अवधारणा’ के लिए फटकार मगर पंजाब में घोषित मार्शल लॉ को उचित ठहराया गया। यह भी निष्कर्ष निकाला गया कि डायर द्वारा भीड़ पर गोलीबारी करना उचित था, सिवाय इसके कि उसे पहले चेतावनी देनी चाहिए थी और गोलीबारी की अवधि कम की जानी चाहिए थी। आयोग के भारतीय सदस्यों द्वारा एक असहमति रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जिसने उस समय मार्शल लॉ की आवश्यकता पर सवाल उठाया और गड़बड़ी की गंभीरता पर भी सवाल उठाया। लेकिन दोषियों को कड़ी सजा नहीं हुई। नरसंहार के मुख्य अपराधी, रेजिनाल्ड डायर को उसके वर्तमान कर्नल रैंक में ही 1920 में सेना छोड़ने दिया गया। उसे संभावित पदोन्नति से वंचित करने के साथ ही भारत में किसी भी रोजगार से रोक दिया गया। लेकिन इतने बड़े नरसंहार के बाद भी दानों डायरों पर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया।

 

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