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Joshimath: Crumbling under its own weight (जोशीमठ : अपने ही वजन से टूट रहा है)

-by Team RPM-MF Jan 9, 2023-

संता – भाई पिछले काफी दिनों से अखबार और टेलीविज़न के साथ-साथ सोशल मीडिया पर बस जोशीमठ ही छाया हैं।

आखिर ये माजरा है क्या?

बंता – हाँ भाई, हमारे कई और शहरों की तरह जोशीमठ भी पुराने भू-स्खलन के मलबे के ऊपर बसा है, और यहाँ काफी लम्बे समय से  भू-धँसाव हो रहा हैं।

संता – वो मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट  भी तो हैं, जिसका जिक्र ये सब मीडिया वाले कर रहे है।

बंता – हाँ, गढ़वाल मण्डल के आयुक्त थे मिश्रा जी और 1976 में जोशीमठ में हो रहे भू-धँसाव को ले कर उनकी अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी गयी थी।

जोशीमठ के भू-धँसाव से जुड़ी यह पहली रिपोर्ट है, इसीलिये इसकी चर्चा प्रायः होती रहती है।

संता – कारण क्या हैं भू-धँसाव का?

बंता – वैसे मोटा-मोटा कहो तो हमारी सारी परेशानियाँ अनियोजित व अनियन्त्रित शहरीकरण, और बढ़ रही आबादी का नतीजा हैं।

संता – वो तो ठीक है पर अचानक यह सब?

बंता – भाई अब जोशीमठ हो या कोई और जगह, यहाँ पहाड़ो में बसे तो हम सभी मलबे के ऊपर ही हैं ना?

संता – क्या मतलब?



बंता – अब बसने की जगह के पास-पड़ोस में खेती-बाड़ी के लिये जमीन तो चाहिये ही ना?

संता – सो तो हैं। वरना कोई यहाँ करेगा भी तो क्या?

बंता – अब पहाड़ो में चट्टानों के ऊपर तो खेती की नहीं जा सकती।

संता – तो फिर?

बंता – वैसे तो भाई उपजाऊ मिट्टी बनने में लम्बा समय लगता हैं – कुछ 500 से ले कर हजारों साल तक।

ऐसे में समझ लो कि भू-स्खलन के कारण उपजाऊ मिट्टी जल्दी बन जाती हैं या फिर यह भी कह सकते हैं कि भू-स्खलन से पैदा हुवे मलबे में मिट्टी उत्पन्न करने वाली जैविक व रासायनिक प्रक्रियाये अपेक्षाकृत तेज हो जाती हैं।

संता – क्या मतलब?

बंता – नदी किनारे को छोड़ दो तो उसके अलावा यहाँ पहाड़ो में हमारी सारी की सारी खेती-बाड़ी पुराने भू-स्खलन के ऊपर ही हो रही हैं।

इसी वजह से तो हमारी ज्यादातर बसावते पुराने भू-स्खलन क्षेत्र के नजदीक हैं।

संता – और जोशीमठ?

बंता – जोशीमठ भी पुराने भू-स्खलन के ऊपर ही बसा हैं।

शहर के आस-पास कहीं भी स्थिर चट्टान नहीं हैं। मलबे में चारो तरफ बस बड़े-बड़े चट्टानों के टुकड़े इधर-उधर बेतरतीब से बिखरे पड़े नजर आते हैं, और इन्ही से तो पता चलता हैं कि यह पुराना भू-स्खलन क्षेत्र हैं।

फिर यहाँ जोशीमठ में तो चट्टानें भी नीचे ढाल की दिशा में  अलकनंदा की ओर ही झुकी है, और नदी भी अच्छा-खासा कटाव कर रही हैं।

ऐसे में जड़ ही कट जाये तो ढाल के ऊपर पड़े मलबे का आज नहीं तो कल नीचे आना तय हैं।



संता – फिर तो ऐसी संवेदनशील जगहों पर बसना ही नहीं चाहिये था?

बंता – भाई, वही तो करते थे, यहाँ के लोग।

वो लोग खेती-बाड़ी तो नीचे नदी किनारे या फिर ढाल पर पुराने भू-स्खलन के ऊपर बनाये गये खेतो में करते थे, पर रहते-बसते वो सब लोग ऊपर चट्टान वाले इलाके में ही थे।

फिर इन ऊँचाई  वाले इलाको में बसने से बाढ़ और भू-स्खलन का खतरा भी कम हो जाता था।

संता – पर आज के समय तो और कहीं जगह बची ही नहीं हैं।

बंता – वहीं तो भाई, अब पुराना भू-स्खलन क्षेत्र हैं।

चट्टानें भी ढाल की तरफ ही झुकी हैं और फिर नीचे से अलकनंदा भी लगातार कटान कर रही हैं।

फिर इतने सारे मकानों व होटलो का बोझ उठा पाना भी तो सरल नहीं हैं।

संता – सच में कितनी सारी और बड़ी इमारते बना दी है हमने।

बंता – नतीजा सामने हैं, माउंट व्यू और मलारी होटल एक दूसरे की ओर झुक रहे हैं ना?

संता – ठीक कहा तुमने।

बंता – फिर यहाँ बर्षा या घरों से निकलने वाले पानी के निस्तारण की भी तो कोई व्यवस्था नहीं हैं।

और सच कहो तो यही पानी सारी आफत की जड़ है। वो बताया था ना कि पानी की वजह से ढाल पर पड़े मलबे को असंतुलित करने वाले बल का परिमाण बढ़ जाता हैं।

संता – और घर्षण कम हो जाता हैं।

बंता – एकदम सही।

संता – पर बारिश का हो या घरो से निकलने वाला; पानी को तो आखिर में जमीन के नीचे ही जाना हैं ना?

बंता – वही तो परेशानी हैं संता भाई।

जमीन के अन्दर जाने वाले पानी को आज नहीं तो कल बाहर भी निकलना ही हैं।

संता – मतलब?

बंता – कभी-कभी जमीन के अन्दर से बाहर निकलते समय  यह पानी अपने साथ मिट्टी व मलबा भी बहा ले जाता हैं।

संता – ऐसे तो जमीन खोखली हो जायेगी?

बंता – तभी तो यहाँ इतना भू-धँसाव हो रहा हैं।

संता – मतलब कि पानी के निस्तारण की व्यवस्था कर दे, तो सब ठीक?

बंता – अब इतना भी सरल नहीं हैं, पर इससे फायदा तो जरूर होगा।



संता – फिर इस पानी का क्या, जो अभी हाल 2 जनवरी की रात नीचे मारवाड़ी में फूटा हैं?

बंता – लगता तो भाई यही हैं कि कोई पानी का भंडार फट पड़ा हैं। कैसे और कहाँ कह पाना मुश्किल हैं।

बंता – और इतना गंधला पानी?

संता – अपने साथ मिट्टी-मलबा जो बहा कर ले जा रहा हैं। और इसी के कारण भू-धँसाव की दर अचानक इतनी बढ़ गयी हैं।

बंता – ऐसा कब तक चलेगा संता भाई?

बंता – कह पाना मुश्किल हैं, पर इस भंडार का पानी खत्म होने तक तो ये सिलसिला रुकने से रहा।

संता – ऐसे में जाड़े का समय तो शायद कट भी जाये, पर बरसात का क्या?

बंता – अब पानी के इस भंडार में एक बार छेद हो जाने के बाद, आगे पानी रुकने की सम्भावना कम ही हैं।

संता – मतलब कि भंडार का पानी खत्म होने के बाद सब पहले जैसा?

बंता – वही तो परेशानी है भाई।

संता – क्या मतलब?

बंता – और भी काफी कुछ करना पड़ेगा।

संता – मतलब अलकनंदा के कटाव के रोकने की व्यवस्था।

बंता – साथ ही यह बेतहाशा विकास व निर्माण, आगे ऐसे ही तो नहीं होना चाहिये ना?

फिर यहाँ पहाड़ो में 6-7 मंजिले मकान बनाने का भी कोई तुक नहीं हैं।

संता – सोलह आने सही हैं तुम्हारी बात।

बंता – और साथ ही हमें पानी के निस्तारण की व्यवस्था भी करनी होगी।

संता – हाँ, वह तो जरूरी है।

बंता – नैनीताल में 1880 में हुवे शेर का डंडा भू-स्खलन के बाद यही सब उपाय तो किये गये थे। और तो और उन्होंने ढाल की मॉनिटरिंग करनी भी शुरू कर दी थी।

संता – जब 1880 में वो कर सकते थे, तो आज 2023 में हम क्यों नहीं कर सकते?

बंता – कर तो हम सब कुछ सकते हैं। बस थोड़ी सी इच्छा शक्ति की जरूरत हैं।

संता – आशा तो हैं कि अबकी बार वो कम नहीं पड़ेगी।

 

(The post Joshimath: Crumbling under its own weight appeared first on Risk Prevention Mitigation and Management Forum.)

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