जीवन रक्षक भी है अफीम, जौनसार में इसकी खेती की अनुमति क्यों नहीं ?
- अफीम नशा ही नहीं जीवन रक्षक दवा भी है
- आजादी से पहले जौनसार बावर में अफीम अधिनियम लागू नहीं था
- आजादी के बाद भी जौनसार बावर में अफीम की खेती की इजाजत थी
- अफीम अधिनियम आया 1878 में
- अफीम की खेती के आरोप में गुलाब सिंह भी हुये थे गिरफ्तार
- 1962 तक जौनसार में लाइसेंस से अफीम की खेती होती थी
–जयसिंह रावत
जौनसार बावर में अफीम की खेती प्राचीनकाल से ही होती रही है। पहले ग्रामीण मसाले आदि के उद्ेश्य से अपने घरेलू उपभोग के लिये अफीम पोस्त की खेती करते थे। ब्रिटिशकाल शुरू होने पर यह तत्कालीन शासन के राजस्व का एक महत्वपूर्ण श्रोत बना इसके लिये ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने नियम बना कर इसे नियंत्रित करना शुरू किया। इस दिशा में सबसे पहले गवर्नर जनरल की ओर से सन् 1816 के रेगुलेशन-13 के तहत अफीम की खेती को विनियमित किया गया। इस रेगुलेशन की धारा 3 के तहत सरकार के लिये अफीम की खेती और उत्पादन करने के अतिरिक्त खेती और अफीम उत्पादन को वर्जित कर दिया गया। इस व्यवसाय को नियंत्रित करने के लिये विस्तृत नियम बनाये गये तथा इस पर नजर रखने तथा संचालन के लिये सरकारी संस्था स्थापित की गयी। नियमों का उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान किया गया। ये समस्त नियम और कानूनों का 1856 के बंगाल आबकारी अधिनियम (11856 का इक्कीसवां) से निरसन किया गया।
अफीम अधिनियम आया 1878 में
इस अधिनियम के बदले 1878 का अफीम अधिनियम आया जिसमें अफीम के पौधों की संख्या को भी शामिल किया गया। उससे पहले केवल छोडे से निकाली गयी अफीम तक ही कानून सीमित था। इसके बाद 1930 के अनिष्टकर मादक द्रव्य अधिनियम, 1930 में अफीम कानून का और विस्तारित कर उसमें पोस्त के फल या डोडे को भी शामिल किया गया। इसकी धारा 5 में स्पष्ट उल्लेख किया गया था कि बिना लाइसेंस के कोई भी व्यक्ति न तो अफीम की खेती कर सकता है और ना ही उत्पादन कर सकता है।
अफीम की खेती के आरोप में गुलाब सिंह भी हुये थे गिरफ्तार
वास्तव में लीग ऑफ नेशन के द्वितीय अफीम सम्मेलन के प्रस्ताव की भावना के अनुरूप इस व्यवसाय को नियंत्रित कर फैलने से रोकने के उद्देश्य से यह कानून बनाया गया। इस केस में अदालत में भारत सरकार के अधिकारी ने स्वीकार किया कि जौनसार बावर की जनजातीय सामाजिक और भौगोलिक स्थिति को देखते हुये इस कानून का कठोरता से पालन नहीं किया जाता है। जौनसार बावर में इस कानून के तहत एक बार क्षेत्र के सबसे बड़े नेता गुलाबसिंह भी गिरफ्तार हुये थे। हालांकि वह बाद में अदालत से दोष मुक्त हुये। क्योंकि वह देहरादून में रहते थे और उनकी अनुपस्थिति में उनके पुश्तैनी खेतों पर गांव के कुछ लोग अफीम की खेती करते थे। उससे पहले जौनसार के लोगों ने अफीम की खेती के लिये लाइसंे व्यवस्था की विभिन्न स्तरों पर मांग की थी। यह मामला इलाहाबाद हाइकोर्ट भी गया। लेकिन कोर्ट ने इसकी अनुमति नहीं दी।

आजादी से पहले जौनसार बावर में अफीम अधिनियम लागू नहीं था
इलाहाबाद हाइकोर्ट में बालेसिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य के मामले में (एआइआर 1967: 341) न्यायमूर्ति डब्लु0 ब्रूम एवं एस0 चन्द्रा की पीठ के समक्ष भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अधीन राजस्व एवं कम्पनी लॉ विभाग के अण्डर सेक्रेटरी तथा उत्तर प्रदेश सरकार के अण्डर सेक्रेटरी द्वारा दाखिल शपथ पत्रों के अनुसार जौनसार बावर परगना के 36 खतों में से केवल 14 खतों में अफीम की खेती होती थी। यह फसल केवल भोजन के मसाले के लिये उगाई जाती थी। इस केस में भारत सरकार के शपथपत्र में जौनसार बावर में अफीम की खेती की पृष्ठभूमि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया था। ( 26 अप्रैल 1966 का इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला: एआइआर 1967: 341) भारत का संविधान लागू होने से पूर्व जौनसार बावर परगना अनुसूचित क्षेत्र होने के कारण यहां अफीम अधिनियम 1857 तथा अनिष्टकर मादक द्रव्य अधिनियम, 1930 लागू नहीं होता था। सन् 1950 में अफीम और राजस्व विधि (लागू होना विस्तारण) अधिनियम, 1950 के लागू होने के बाद 18 अप्रैल 1950 से इस क्षेत्र में भी अफीम अधिनियम 1857 और अनिष्टकर मादक द्रव्य अधिनियम, 1930 भी लागू हो गये।
आजादी के बाद भी जौनसार बावर में अफीम की खेती की इजाजत थी
प्रारम्भ में जौनसार परगना उन क्षेत्रों में शामिल नहीं था जिनको अफीम की खेती के लिये लाइसेंस जारी होते थे। लेकिन स्थानीय नागरिकों की मांग पर भारत सरकार ने अनिष्टकर मादक द्रव्य अधिनियम, के तहत अधिसूचना संख्या 2 जारी कर 3 जुलाइ 1954 को इस क्षेत्र को भी केवल केन्द्रीय नियमों के अधीन पोस्त के दानों के उत्पादन हेतु लाइसेंस जारी होने वाले क्षेत्रों में शामिल कर उत्तर प्रदेश सरकार को इस परगने में पोस्त की खेती के लाइसेंस जारी करने के लिये अधिकृत कर दिया। उस समय यह व्यवस्था भी केवल 4 साल के लिये क्षेत्र से धीरे-धीरे पोस्त की खेती का रकबा घटाने के उद्ेश्य से की गयी थी। यह समय सीमा भी 30 सितम्बर 1957 तक के लिये थी जिसका व्यापक प्रचार प्रसार क्षेत्र में सरकार द्वारा किया गया था। लेकिन अप्रैल 1958 में जब केन्द्रीय नारकोटिक्स विभाग के एक अधिकारी ने जांच की तो वहां 82 गावों के 1189 कास्तकारों द्वारा 1957-58 की अवधि में 302 एकड़ जमीन पर अफीम की खेती की गयी पायी गयी। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने केन्द्र सरकार से क्षेत्र में अफीम की खेती पर पूर्ण प्रतिबंध के फैसले को अगले 4 साल तक स्थगित रखने का अनुरोध किया।

1962 तक जौनसार में लाइसेंस से अफीम की खेती होती थी
अदालत को शपथपत्र के माध्यम से केन्द्र सरकार की ओर से बताया गया कि अफीम की खेती की अनुमति केवल मसाले के लिये बीज उत्पादन के लिये दी गयी थी। मगर लोग पोस्त दाने से अफीम निकाल रहे थे जो कि गैरकानूनी व्यापारियों के हाथों में जा रही थी। चूंकि राज्य सरकार इस परगने में अफीम की गैरकानूनी खेती को रोकने में विफल हो रही है तो केन्द्र सरकार ने सच्चाई को ध्यान में रखते हुये अगले चार साल तक के लिये लाइसेंस जारी करने की छूट इस शर्त पर दी कि प्रति वर्ष अफीम की खेती में 25 प्रतिशत कटौती की जायेगी, ताकि 30 सितम्बर 1962 तक क्षेत्र में अफीम की खेती का पूर्ण उन्मूलन हो जाय। लाइसेंस की एक शर्त यह भी थी कि कास्तकार प्रति बीघा 3 सेर अफीम सरकार को देंगे ताकि उनका लाइसेंस 1959-60 के लिये नवीनीकृत किया जा सके। लेकिन जौनसार के किसानों ने प्रति बीघा उत्पादन 0.80 सेर ही सरकार को सौंपी जबकि अखिल भारतीय उत्पादन औसत 6.87 सेर प्रति बीघा था। शपथ पत्र के अनुसार केन्द्र सरकार इस नतीजे पर पहुंची कि जौनसार बावर के कास्तकार उत्पादित अफीम की बड़ी मात्रा अपने पास ही रख कर उसे गैरकानूनी बाजार में बेच रहे हैं और सरकार को केवल एक छोटी से मात्रा सौंप रहे हैं। वित्तीय वर्ष 1958-59 में परगने में 113 हेक्टेअर (एक हेक्टेअर 2.471 एकड़ के बराबर) वर्ष 1959-60 में 40 हेक्टेअर, वर्ष 1960-61 में 34 हेक्टेअर और 1961-62 में 17 हेक्टेअर पर अफीम की खेती के लिये लाइसेंस जारी किये गये।
1963 से जौनसार में अफीम की खेती पर लगा पूर्ण प्रतिबंध
चूंकि 30 सितम्बर 1962 को लाइसेंसिंग की अवधि समाप्त होने से 1 अक्टूबर 1962 से अफीम की खेती पर पूर्ण प्रतिबंध लग गया था और इसका व्यापक प्रचार प्रसार भी किया गया फिर भी केन्द्र सरकार को अफीम की अवैध खेती की सूचनाएं मिलीं। वर्ष 1961-62 में केवल 17 हेक्टेअर के लिये लाइसेंस दिये ये थे लेकिन वास्तव में 25 हेक्टेअर में अफीम की खेती की सूचना मिली। इस प्रकार 1 अक्टूबर 1963 से जौनसार बावर परगने में अफीम की खेती पर सम्पूर्ण प्रतिबंध लग गया।
उत्तर प्रदेश के कई जिलों में अफीम की खेती
औषधीय और वैज्ञानिक प्रयोजन के अलावा अफीम के अत्यंत खतरनाक दुष्प्रभाव को लेकर विश्व समुदाय की चिन्ताओं को ध्यान में रखते हुये ब्रिटिशकाल में ही अफीम की खेती को सीमित करने की प्रकृया शुरू हो गयी थी। सन् 1909 में अफीम की खेती पर अंकुश लगाने के लिये जो अन्तर्राष्ट्रीय संधि हुयी उस पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किये थे। ब्रिटिश काल में ही सन् 1910 में बिहार में अफीम की खेती पर पूर्ण प्रतिबंध लग गया था। उत्तर प्रदेश में भी अफीम की खेती को चरणबद्ध तरीके से घटाने की प्रकृया शुरू हो गयी थी। वर्ष 1910 में जहा संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) में 2.50 लाख हेक्टेअर में अफीम की खेती होती थी जो कि घट कर 1944-46 में मात्र 44,000 हेक्टेअर रह गयी। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, गाजीपुर, बनारस, बलिया, फरुखाबाद, बदायूं, एवं गौंडा आदि जिलों में अफीम की खेती पर पूर्ण प्रतिबंध लगा। जबकि वर्ष 1966 तक प्रदेश में केवल 12,000 हेक्टेअर जमीन पर यह खेती हो रही थी। यह खेती बाराबंकी, शहजहांपुर, बरेली, फैजाबाद, बस्ती, गौंडा, गाजीपुर और आजमगढ़ में ही हो रही थी।
अफीम नशा ही नहीं जीवन रक्षक दवा भी है
अफीम भले ही अफीमचियों के लिये अनिष्टकर हो मगर कैंसर जैसी गंभीर बीमारी में यह जीवन रक्षक और असहनीय दर्द में राहत देने वाली दवाओं का श्रोत भी है। अफीम का प्रयोग विभिन्न प्रकार की दवाइयों में किया जाता है। भारत में अब भी इसकी खेती बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य एवं पश्चिम भारत, मालवा और पश्चिमोत्तर प्रान्त में की जाती है और भारत सरकार हर साल अफीम नीति घोषित करती है। इसमें मार्फिन, नर्कोटीन, कोडीन, एपोमॉर्फीन, आपिओनियन, पापावरीन आदि क्षारतत्त्व (एल्केलाइड) तथा लेक्टिक एसिड, राल, ग्लूकोज, चर्बी व हल्के पीले रंग का निर्गन्ध तेल होता है। इनसे जीवन रक्षक दवाएं बनती हैं।
जयसिंह रावत
पत्रकार/लेखक
ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
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