सद्य प्रकाशित पुस्तक- बदलाव के दौर से गुजरती जनजातियां (संदर्भ उत्तराखण्ड )
-जयसिंह रावत
भारत सरकार के शिक्षा मंत्राल के अंतर्गत राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (एनबीटी) के द्वारा मेरी एक और पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पुस्तक का शीर्षक है, ‘‘बदलते दौर से गुजरती जनजातियां’’। यह पुस्तक मुख्य रूप से उत्तराखण्ड की जनजातियों पर ही केन्द्रित है मगर इसमें सम्पूर्ण भारत के जनजातीय समाज पर प्रकाश डाला गया है। पुस्तक मुद्रण के अंतिम चरण में हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा मेरी यह दूसरी पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। पाठकों को अवगत कराना चाहूंगा कि मेरे मूल प्रकाशक ‘‘विन्सर पब्लिशिंग कं0’’ ही हैं। उनकी ही प्रेरणा से में उनके लिये आधे दर्जन से अधिक ग्रन्थ लिख चुका हूं। विन्सर की इन किताबों की बढ़ती मांग पर सभी पुस्तकों के एक से अधिक प्रिण्ट प्रकाशक द्वारा छापे जा चुके हैं। कुछ पुस्तकें संघ एवं राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में युवाओं के बहुत काम आती रही हैं।

सद्य प्रकाशित पुस्तक के बारे में कहना है कि मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की मुख्य धारा को ही हम एकमात्र धारा मान लेते हैं। जबकि इस धारा के अलावा भी एक धारा और है जो कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी अवश्य है, मगर वह अपने प्राचीन रीति रिवाजों, विशिष्ट धार्मिक परम्पराओं, अनूठी जीवन पद्धतियों के कारवांओं के साथ शनैः शनैः आगे बढ़ रही है। यह धारा इस धरती की हजारों ज्ञात और अज्ञात जनजातियों की है जिसकी उतनी उपधाराएं हैं जितनी कि इस धरती पर जाजातियां या आदिम जातियां हैं। वास्तव में आदिम समाज की यह धारा अतीत और वर्तमान के बीच की कड़ी ही है और इन दोनों कालखण्डों के बीच जो कुछ भी स्मृतियां धरोहर के रूप में बची हुयी हैं उन्हें विरासत के रूप में संजो कर रखने की अहं जिम्मेदारी इन जनजातीय मानव समूहों ने ही निभाई है। मुख्य धारा के लिये मानव सभ्यता का अतीत जीवन्त नहीं बल्कि मर चुका है जिसे शब्दों में लपेट कर इतिहास की किताबों में थोपा गया है। जबकि जनजातियों का मानव समूह उस अतीत को जीवित अवस्था में वर्तमान तक लाया है। कोई भी व्यक्ति या मानव समूह आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ा हो सकता है मगर कोई भी सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से संस्कृति को पिछड़ेपन का आधार मान लिया गया है। जो समूह या व्यक्ति जितनी जल्दी अपना रहन-सहन, बोल-चाल और भाषा बदल रहा है उसे उतना अगड़ा या सभ्य माना जा रहा है। सभ्यता की इसी असभ्य परिभाषा के कारण अपनी सांस्कृतिक धरोहर को जीवन्त रखने वाली जनजातियों के प्रति मुख्य धारा के लोगों की हेय दृष्टि रही है और इसी दृष्टिदोष के शिकार लोग आज मुख्यधारा में सिर छिपाने के प्रयास में अपने पुरखों की धरोहर से किनाराकसी कर रहे हैं।

इस ग्रन्थ में मैंने उत्तराखण्ड की पांचों जनजातियों एवं उनकी उपजातियों पर विकास की प्रकृयाओं और विशेष रूप से शिक्षा तथा स्वास्थ्य योजनाओं के प्रभाव को समझने का प्रयास करने के साथ ही जनजातीय लोगों की विविध संस्कृतियां, समाज, स्थान, भाषा, लिपि, जैविक भिन्नता, शैक्षिक स्तर, विकास का प्रभाव, भोजन की आदतें, पूजा पद्धतियां और परम्परागत प्रथाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। उत्तराखण्ड की जनजातियों पर उपलब्ध डाटा काफी गड़बड़ है। जनगणना का डाटा अन्य बेस लाइन सर्वेक्षणों के डाटा से मेल नहीं खाता। राजियों और बुक्सों की जनसंख्या के आंकड़े इसका उदाहरण हैं। भोटिया की शैक्षिक स्थिति और जनजातियों की धार्मिक आस्था के आंकड़े भी असहज प्रतीत होते हैं। जनजातियों पर यह भ्रम नया नहीं है। जीआरसी विलियम्स और एटकिन्सन जैसे विद्वानों ने भी राज्य की जनजातियों के बारे में दर्ज आंकड़ों की वास्तविकता पर ऊंगली उठाई थी।
पुस्तक प्राप्ति का स्थानः-
सम्पादक (हिन्दी)
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
नेहरू भवन, 5 इंडिस्ट्रयल एरिया
फेज-2 बसन्त कुंज, नयी दिल्ली-110070