12 करोड़ का जनजातीय शोध केन्द्र एवं संग्रहालय कई सालों से तालों में बंद
- 10 करोड़ जनजातीय लोगों के लिये बना था नॉलेज हब
- 21 अगस्त 2019 को हुआ था इस केन्द्र एवं संग्रहालय का लोकार्पण
- रामदेव की संस्था पंतजलि की शोध परियोजना धरातल पर नहीं उतरी
- नोडल ऐजेंसी ही धरती के बजाय हवा में
- तालों में बंद 10 करोड़ जनजातीय लोगों का नॉलेज हब
–जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के साथ ही केन्द्र की मोदी सरकार आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े आदिवासियों या जनजातियों के उत्थान के लिये कितनी संवेदनशील है, इसका उदाहरण उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में 12 करोड़ की लागत से स्थापित शोध-सह-संस्कृति केन्द्र और संग्रहालय है जिसके ताले पिछले साल हुये उद्घाटन के बाद आज तक नहीं खुले। इस केन्द्र को राष्ट्रीय स्तर पर जनजातीय औषधीय ज्ञान पर देशभर में चलने वाले अनुसंधान और विकास पर नोडल ऐजेंसी के रूप में समन्वय और ज्ञान संग्रह या नॉलेज हब बनाने की घोषणा मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में की थी।

केन्द्रीय जन जातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुण्डा ने गत वर्ष 21 अगस्त को उत्तराखण्ड की राजधानी के अंतिम छोर पर रिस्पना के किनारे राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के साथ मिल कर जनजातीय शोध-सह-संस्कृति केन्द्र और संग्रहालय का उद्घाटन तो कर दिया मगर फिर मुड़ कर नहीं देखा कि 12 करोड़ की लागत से बने इस राष्ट्रीय स्तर के शोध केन्द्र एवं संग्रहालय के दरवाजे दुबारा खुले या नहीं। इस दो मंजिला केन्द्र को शोध गतिविधियों के अतिरिक्त उत्तराखंड की समृद्ध जनजातीय संस्कृति और परम्पराओं के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभानी ही थी लेकिन साथ ही इसे देश की 10.43 करोड़ जनजातीय आबादी के परम्परागत औषधीय ज्ञान पर चलने वाले शोध कार्य में देशभर के जनजातीय शोध संस्थान (टीआरआई) के साथ नोडल केन्द्र के रूप में समन्वय भी करना था ताकि इस विषय पर एक केन्द्रीय नॉलेज हब या ज्ञान भण्डार बनाया जा सके। जनजातीय मंत्रालय का उद्देश्य इस विषय पर समन्वय और केन्द्रीकृत सूचना प्रणाली के प्रबंधन के लिए पीएसी को कार्य सौंपना था। इस शोध केन्द्र को अन्य जनजातीय विषयों पर भी शोध और मूल्यांकन अध्ययनों को बढ़ावा देना और राज्यों के टीआरआई को उनके कार्यों में समर्थन प्रदान करना था। नीति आयोग ने भी इस तरह के राष्ट्रीय स्तर के शोध केन्द्र और संग्रहालय को सिद्धान्त रूप में मंजूरी दी थी।
गौरतलब है कि जनजातीय समुदायों का वह पारम्परिक ज्ञान बहुत समय तक लिपिबद्ध नहीं हो सका है। इस परम्परागत ज्ञान में जहां मौखिक साहित्य विशेष हैं, वहीं विभिन्न कौशलों से संबंधित अनुभव भी सम्मिलित हैं। पारम्परिक ज्ञान में कृषि, हस्त-शिल्प, नृत्य-संगीत, चित्रकला, आखेट, पशुपालन, वनोपज संग्रहण और वनस्पतियों की पहचान और उनके औषधीय उपयोग से संबंधित ज्ञान प्रमुख हैं। इसीलिये जनजातीय कार्य मंत्रालय ने इस बहुमूल्य ज्ञान के संग्रह के लिये यह योजना बनायी थी।

तालों में बंद इस भव्य इमारत के किनारे पर रहने वाले चौकीदार से पूछने पर उसने बताया कि जिस दिन 21 अगस्त 2019 को इस केन्द्र एवं संग्रहालय का लोकार्पण हुआ था, उसी दिन के बाद इसके दरवाजे बंद हो गये थे जो आज तक नहीं खुले। इस सम्बन्ध में इस केन्द्र के एकमात्र कमचारी या सहायक निदेशक बी.के.श्रीवास्तव से जब उनके आवास पर बात की गयी तो उनका कहना था कि इस केन्द्र के संचालन के लिये एक सोसाइटी के पंजीकरण की प्रकृया चल रही है और सोसाइटी के पंजीकरण के बाद ही केन्द्र में स्टाफ की नियुक्ति तथा संग्रहालय की सामग्री जुटाने के साथ ही शोध कार्यों के लिये ढांचा तैयार हो सकेगा। श्रीवास्तव के अनुसार केन्द्र के लिये निदेशक के रूप में सुरेश जोशी की नियुक्ति हो चुकी है, मगर वह अन्यत्र बैठते हैं।
गौरतलब है कि वर्ष 2000 में जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ था तो उसकी पाचों प्रमुख जनजातियां उत्तराखण्ड के हिस्से में आ गयीं थीं जिनमें भोटिया, जौनसारी, थारू, बोक्सा और राजी शामिल थीं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड की जनजातीय जनसंख्या 2,91,903 है। इन जनजातियों में भोटिया जैसी सामाजिक और शैक्षिक रूप से अग्रणी है और जिसके दो अधिकारी उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव और दो मुख्य सूचना आयुक्त रहने के साथ ही हजारों की संख्या में डाक्टर और इंजीनियर तथा अन्य बड़े नौकरशाही के पदों पर हैं। जबकि उत्तराखण्ड की जनजातियों में एक राजी भी है, जिसकी जनसंख्या लगभग 690 है तथा अस्तित्व के खतरे से जूझ रही अण्डमान निकोबार की जनजातियों की तरह यह गिनी चुनी 18 अति संवेदनशील आदिवासी जातियों में शामिल है।

स्थानीय उपलब्ध औषधीय पौधों से बीमारियों का इलाज करने के जनजातियों के परम्परागत ज्ञान को संरक्षित रखने के लिये केन्द्र सरकार ने बाबा रामदेव की संस्था पंतजलि शोध संस्थान को भी उत्तराखण्ड में जनजातीय चिकित्सा और औषधीय पौधों पर शोध परियोजना दी थी लेकिन यह योजना भी आधा साल गुजरने को है, मगर धरातल पर नहीं उतरी। प्राप्त जानकारी के अनुसार रामदेव के पतंजली शोध संस्थान को इस कार्य के लिये 3 करोड़ रुपये जारी भी हो चुके हैं। इसी तरह की परियोजनाएं एम्स जोधपुर, परवरा चिकित्साप संस्थान तथा राजस्था न, महाराष्ट्र तथा केरल के लिए माता अमृतामयी संस्थान को दी गई। टीआरआई उत्तराखंड को विभिन्न सीओई तथा जनजातीय शोध एवं संग्रहालय द्वारा जनजातीय औषधियों पर शोध कार्य में समन्वय के लिए नोडल टीआरआई बनाया गया था लेकिन जब नोडल ऐजेंसी ही धरती के बजाय हवा में हो तो फिर जनजातियों के औषधीय परम्परागत ज्ञान के संग्रह की कल्पना की जा सकती है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 342 के अंतर्गत 700 से अधिक जनजातियां अधिसूचित हैं, जो देश के 30 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में फैली हुई हैं। अनेक जनजातियां एक से अधिक राज्यों में मौजूद हैं। अनुसूचित जनजातियों के रूप में अधिसूचित समुदायों की सबसे अधिक संख्या उड़ीसा राज्य में अर्थात् 62 है। वर्ष 2011 की जनगणना में भारत की जनजातीय जनसंख्या 10,45,45,716 दर्ज की गयी जो कि देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। इसमें से कुल 9,38,19,162 ग्रामीण (89.97 प्रतिशत) तथा 1,04,61,872 शहरी (10.03 प्रतिशत) जनसंख्या थी।
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