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जिम कॉर्बेट का नाम मिटाने की कोशिश ठीक नहीं है

  • पार्क की स्थापना 1936 में गवर्नर हेली के नाम पर की गई थी
  • कॉर्बेट ने1200 लोगों को मारने वाले बाघ को मारा 
  • कॉर्बेट ने आदमखोर  बाघों को मारकर सैकड़ों लोगों की जानें बचायी थी
  • दुनिया भर में बाघ बचाओ अभियान की प्रेरणा कार्बेट की
  • एक वन्यजीव प्रेमी शिकारी थे कॉर्बेट 
  • पर्वतीय इलाके में बहुत लोकप्रिय थे कॉर्बेट 
  • जिम कार्बेट का जीवन हिंदुस्तानी की तरह हो गया था
  • कॉर्बेट ने यह बताया कि वन्यजीव आदमखोर यों ही नहीं बनते
  • बाघों और तेंदुए के बीच का फर्क बताया

 

-श्याम सिंह रावत

केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के अनुसार उत्तराखंड के नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल तथा उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिलों में फैले जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम बदलकर रामगंगा नेशनल पार्क किया जाएगा। इस प्रस्ताव के सम्बंध में औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हैं और जल्द ही इसका ऐलान किया जा सकता है। मंत्री ने 3 अक्टूबर को पार्क का दौरा करने के दौरान इसके धनगढ़ी स्थित प्रवेश द्वार पर बने म्यूजियम की विजिटर बुक में नाम परिवर्तन की विधिवत घोषणा से पहले ही अपने संदेश में ‘रामगंगा नेशनल पार्क’ ही लिखा।

 

With Union Minister of State for Environment, Forest and Climate Change Ashwini Kumar Choubey proposing to change the name of Corbett National Park to Ramganga National Park, a look at the origins of the park and the legacy of the man who lent it its name.

पार्क की स्थापना 1936 में गवर्नर हेली के नाम पर की गई थी

इस पार्क की स्थापना 1936 में की गई थी। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए यह भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान था।  उस समय के गवर्नर मालकम हेली के नाम पर इस पार्क का नाम ‘हेली नेशनल पार्क’ रखा गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इस पार्क का नाम ‘रामगंगा नेशनल पार्क’ रख दिया गया। लेकिन 1957 में इसका नाम फिर से बदलकर विश्वप्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट के नाम पर जिम कार्बेट नेशनल पार्क किया गया।

कॉर्बेट ने आदमखोर  बाघों को मारकर सैकड़ों लोगों की जानें बचायी थी

सिर्फ जिम कॉर्बेट के नाम से दुनिया भर में विख्यात आदमखोर पशुओं के शिकारी और पर्यावरण प्रेमी का पूरा नाम जिम एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट था। जिम कार्बेट जहाँ अचूक निशानेबाज थे वहीं वन्य पशुओं के प्रिय साथी भी थे। कुमाऊँ के कई आदमखोर  बाघों को उन्होंने मारकर सैकड़ों लोगों की जानें बचायी थी। हजारों को भय से मुक्त करवाया था। गढ़वाल में भी एक आदमखोर  बाघ  ने कई लोगों की जानें ले ली थी। उस आदमखोर को भी जिम कार्बेट ने ही मारा था। वह आदमखोर गढ़वाल के रुद्र प्रयाग के आस-पास कई लोगों को मार चुका था। इनके पूर्वज तीन पीढ़ियों पहले आयरलैंड छोड़कर भारत आकर बस गये थे और यहीं के खूबसूरत शहर नैनीताल में इस आयरिश (आम लोगों के लिए अंग्रेज) का जन्म 25 जुलाइ, 1875 को हुआ। बचपन जंगलों में तीर कमान चलाते हुए बीता तो स्वाभाविक ही वनों और वन्य प्राणियों से मुहब्बत हो गई। वे बचपन से जंगली जानवरों की आवाज सुनकर ही उसके बारे में अनेक प्रकार की बातें जान जाते थे।

पर्वतीय इलाके में बहुत लोकप्रिय थे कॉर्बेट 

जिम कॉर्बेट के जीवनीकार अंग्रेजी लेखक मार्टिन बूथ ने उनके स्थानीय नाम पर इस किताब का शीर्षक ‘कारपेट साहिब’ रखा है तो इसीसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिम इस पर्वतीय इलाके में कितने प्यारे इंसान के तौर पर जाने जाते होंगे। स्थानीय लोग उन्हें आज भी आदरपूर्वक कारपेट साहब ही कहते हैं।

जिम कार्बेट का जीवन हिंदुस्तानी की तरह हो गया था

जिम कार्बेट 1895 के आसपास रेलवे में भर्ती हुए जहां उन्होंने 20 साल तक नौकरी करने के बाद उसे छोड़कर रेलवे में ठेकेदारी शुरु कर दी। चालीस की उम्र आते-आते उन्होंने हिंदुस्तान को अपने अंदर इस हद तक समेट लिया कि उनका शेष जीवन पूरी तरह एक हिंदुस्तानी की तरह हो गया। हिंदुस्तान उनके लिए क्या मायने रखता था या उनकी आत्मा में हिंदुस्तान किस स्तर तक समाया हुआ था, यह उनकी लिखी किताब ‘माय इंडिया’ पढ़ने से पता चलता है।

कॉर्बेट ने 6 किताबें लिखी

जिम कॉर्बेट ने 6 किताबें लिखी हैं―मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं (1944), द मैन ईटिंग लैपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग (1948), माय इंडिया (1952), जंगल लोर (1953), टेम्पल टाइगर एंड मोर मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं (1955) और ट्री टॉप्स (1955)। इनमें से ‘माय इंडिया’ बताती है कि वे हिंदुस्तान और यहां के लोगों से कितनी मोहब्बत करते थे।जिम कॉर्बेट की किताब मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं तो शिकार पर अंग्रेजी साहित्य की एक अद्वितीय क्लासिकल रचना मानी जाती है।

कॉर्बेट ने1200 लोगों को मारने वाले बाघ को मारा 

बहरहाल, कॉर्बेट ने 1907 से 1938 तक लगभग 1200 लोगों को मारने वाले आदमखोर पशुओं का शिकार कर लोगों को उनके आतंक से मुक्त किया। लोग उन्हें चिट्ठी लिखकर बताते कि वे आदमखोर से कितने भयभीत हैं और कार्बेट उन्हें भयमुक्त करने चल पड़ते। शिकार करना कॉर्बेट का शौक़ नहीं, बल्कि उससे भी कहीं अधिक आदमखोरों से पीड़ित जनता को निर्भय रहने की आजादी देना था।

एक वन्यजीव प्रेमी शिकारी थे कॉर्बेट 

इसीलिए वे केवल आदमख़ोर जानवरों का शिकार करते लेकिन शिकार से पहले इस बात की पुष्टि कर लेते थे कि वह पक्के तौर पर आदमख़ोर है या नहीं। उस दौर में आदमखोरों के आतंक की कल्पना केवल इसी एक उदाहरण से की जा सकती है कि उत्तराखड की पूर्वी सीमा पर काली नदी के दोनों तरफ यानी चंंपावत और नेपाल के बीच एक ही बाघिन ने 436 इंसानों को मार डाला था। उस बाघिन को मारने में अनेक शिकारियों के असफल हो जाने पर जिम कॉर्बेट को बुलाया गया। तो उन्होंने कुछ महीनों के अंदर उस बाघिन का आतंक खत्म कर दिया। इस तरह वे जहां भी पहुंच जाते थे, वहां के लोग आदमखोर जानवर का अंत आया समझ कर निश्चिंत हो जाते थे।

कॉर्बेट ने यह बताया कि वन्यजीव आदमखोर यों ही नहीं बनते

उन्होंने आदमखोर जंगली जानवरों से नफरत करने की बजाए यह जानना जरूरी समझा कि आखिर ये आदमखोर हुए क्यों? अपने गहन अध्ययन से कॉर्बेट ने यह बताया कि जंगली जानवर आदमखोर यों ही नहीं बनते बल्कि जब इंसान इन पर हमला करता है तभी ये इंसानों से चिढ़कर उनका शिकार शुरू करते हैं। इस तरह इन आदमखोरों की प्रवृत्ति का गहन अध्ययन के बाद कॉर्बेट ने समझा कि इंसानों को बाघ व चीतों से बचाने से ज़्यादा जरूरी है इन जानवरों को इंसानों से बचाना। इसके बाद से ही कॉर्बेट बाघ और चीतों को बचाने के अभियान में जुट गए।

बाघों और तेंदुए के बीच का फर्क बताया

उनका वह अध्ययन इस बारीकी तक था कि कॉर्बेट ने लोगों को बाघों और तेंदुए के बीच का फर्क बताया। उन्होंने बताया कि जब बाघ के मन से इंसानों का डर निकल जाता है तभी वह आदमखोर हो जाता है। इसी कारण वे दिन में भी हमला करते हैं। वहीं तेंदुए कितने भी आदमखोर क्यों ना हो जाएं, मगर इंसान का डर उनके अंदर बराबर बना रहता है और इसीलिए वे रात के अंधेरे में शिकार करते हैं।  

दुनिया भर में बाघ बचाओ अभियान की प्रेरणा कार्बेट की

कॉर्बेट बाघों के प्रति इतने अधिक चिंतित थे कि उन्होंने इनकी घटती आबादी रोकने के लिए अपने प्रयासों से 8 अगस्त, 1936 को देश के पहले नेशनल पार्क की स्थापना करवाई तो इसे हेली नेशनल पार्क नाम दिया लेकिन 1952 में इस पार्क का नाम बदल कर जिम कार्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। यदि देखा जाये तो आज दुनिया भर में जो बाघ बचाओ अभियान चल रहा है उसके पीछे जिम कार्बेट की प्रेरणा और उनके अध्ययन से मिली सीख का मत्वपूर्ण योगदान है।

इंसानों के लिए भी इतने ही दयालु थे कॉर्बेट

कॉर्बेट की उदारता सिर्फ जानवरों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि वे इंसानों के लिए भी इतने ही दयालु थे। रेलवे की ठेकेदारी के दिनों में कॉर्बेट ने मोकामा घाट (बिहार) के स्टेशन मास्टर रामसरन के साथ मिल कर पैसे की तंगी के कारण अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाने वाले मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल खुलवाया था। इसी दौरान उनका रिश्ता चमारी नामक एक व्यक्ति से ऐसा जुड़ा कि उसे याद कर कॉर्बेट हमेशा रो पड़ते थे।

 भारत के गरीबों के प्रति बहुत  उदार थे कॉर्बेट

जिम कॉर्बेट ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश आर्मी में भी रहे जहां उन्हें कर्नल रैंक दिया गया था।

कॉर्बेट शिकार में सदैव उनके साथ रहने वाले राम सिंह नेगी को अपनी कालाढूंगी की ज़मीन देने के अलावा साथ ही साथ जब वे 1947 में भारत छोड़ कर केन्या गये तो जाने से पहले जिस बैंक में उनका खाता था उसे एक चिट्ठी दे गये कि हर महीने उनके खाते से राम सिंह को 10 रुपये दिए जाएं। जब तक कॉर्बेट जीवित रहे, तब तक राम सिंह को ये रुपये मिलते रहे। भारत के गरीबों के प्रति कॉर्बेट कितने उदार थे।

कॉर्बेट आजीवन अविवाहित रहे

जिम के पिता क्रिस्टोफर विलियम कॉर्बेट की मृत्यु 21 अप्रैल, 1881 में और माता मैरी जेन कॉर्बेट का निधन 1927 में हुआ। इन दोनों को नैनीताल के सूखाताल स्थित सैंट जॉन चर्च के कब्रिस्तान में दफनाया गया। कॉर्बेट और उनकी बहन मार्गेट कॉर्बेट ‘मैगी’ आजीवन अविवाहित रहे और दोनों भाई-बहन एकसाथ 1947 में केन्या चले गये जहां जिम कार्बेट की 19 अप्रैल, 1955 को मृत्यु हो गई।

वन्यजन्तु संरक्षण और लेखन के क्षेत्र में उनके योगदान से मशहूर

जिम कॉर्बेट आज पूरी दुनिया में मशहूर हैं तो इसका कारण उनके शिकारी जीवन से कहीं अधिक पर्यावरण संरक्षण, प्रकृतिप्रेम, अन्वेषण, वन्यजन्तु संरक्षण और लेखन के क्षेत्र में उनके योगदान से है। ऐसे विश्वप्रसिद्ध व्यक्ति के नाम पर यदि आज संकुचित विचारों के लोग अपने राजनीतिक स्वार्थसिद्ध करने के लिए उसका नाम खत्म करना चाहते हैं तो यह देश को वैश्विक स्तर पर नीचा दिखाने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है।

चीन-जापान से सबक सीखना चाहिये

इस मामले में इन्हें चीन से सबक सीखना चाहिये जिसने एक भारतीय चिकित्सक डॉ. द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस (10 अक्टूबर, 1910-9 दिसम्बर, 1942) का नाम और चीन के लोगों की स्वास्थ्य-रक्षा में किये गये उनके योगदान को आज तक इस स्तर तक अक्षुण्ण रखा है कि जब भी चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या कोई अन्य प्रमुख नेता भारत-यात्रा पर आते हैं तो वे डॉ. कोटनीस के परिजनों से भेंट कर उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। चीन में कोटनीस के नाम पर शिजियाझुआंग के एक मेडिकल कॉलेज का नाम रखा गया है। इसके अलावा शिजियाझुआंग और तानझियांग में उनके नाम पर कई प्रतिमाएं और स्मारक स्थापित किए गए हैं।

क्या हम यह भूल गये हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियां आज भी जापान के रन्कोजी मंदिर में सहेज कर रखी हुई हैं और उनका पवित्र स्मारक बना हुआ है?

इसी तरह यदि भारतीय नेतृत्व चाहे तो जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क को भारत-आयरलैंड मैत्री के एक खूबसूरत स्मारक के तौर पर विकसित किया जा सकता है।

इसलिए वैचारिक संकीर्णताओं के गहरे कुंए में कूपमंडूक बने रहना छोड़कर ज्ञान और विवेक के प्रकाश में रहकर ही दुनिया के साथ कदमताल की जा सकती है।

 

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