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पड़ोसिन मांगे कंत हमारा बाउरी ,पिऊ न मिळत उधारा”

 

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा

जब मैं केंद्रीय गाँधी स्मारक निधि, दिल्ली में कार्यरत था तो उस दौरान मैंने मीरा बहिन की पुस्तक The Spirit’s pilgrimage से एक संस्मरण का अनुवाद किया था जिसको सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक प्रभाष जोशी जी ने विभिन्न समाचार -पत्रपत्रिकाओं को भेजा । वियोगी हरि जी ने उस अनुवाद को हरिजन सेवा संघ, दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्र “हरिजन” में छपा था जिसके संपादक वे स्वयं थे ।

उस समय वियोगी जी के लेख भवानी प्रसाद जी मिश्र (भवानी भाई) द्वारा संपादित मासिक पत्रिका “गाँधी मार्ग” में भी पढ़ने को मिलते थे थे, इसलिए मेरी इच्छा हुई कि वियोगी हरी जी को एक दिन मिला जाय । उनके अखबार में मेरे अनुवाद के छपने के बाद मुझे उनसे मिलने का बहाना भी मिल गयाI एक दिन मैं उनसे उनके कार्यालय पहुँच ही गया I उन्होंने कहा -अच्छा तो यह अनुवाद तुमने किया है ? मैंने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ दिए, जी हां, तब उन्होंने कहा -लो यह किताब पढ़ो ,मेरी तरफ से तुमको इनाम है । पुस्तक का नाम था “अनुराग मंजरी” जिसमें बियोगी हरि की कुछ चुनी हुई कविताओं को संकलित किया गया था और उस पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने लिखी थी, इनमें एक दो कवितायेँ हमने अपनी छठी- सातवीं दर्जे की हिंदी की पाठ्य पुस्तक में पढ़ा था । हाईस्कूल में भी हमने वियोगी हरि जी का एक लेख भी पढ़ा था, तो उनसे मिलकर मेरा प्रसन्न होना स्वाभाविक था । उसी पुस्तक को पलटने का आज दुबारा मौका मिला।

वियोगी जी आधुनिक ब्रजभाषा के प्रमुख कवियों में थे , हिंदी के सफल गद्यकार तथा समाज-सेवी संत थे। “वीर-सतसई” पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला था। उन्होंने अनेक ग्रंथों का संपादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों का संकलन किया है । कविता, नाटक, गद्यगीत, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। वे हरिजन सेवक संघ, गाँधी स्मारक निधि तथा भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे। भेंट में मिली इसी पुस्तक “अनुराग मंजरी” से कुछ पद यहां शेयर कर रहा हूँ –

कबीर का यह पद मुझे पहली बार इसी पुस्तक में पढ़ने को मिला –
” पड़ोसिन मांगे कंत हमारा
बाउरी ,पिऊ न मिळत उधारा -”
बियोगी हरि के भक्तिभाव वाले गीतों में भी व्यंग्य होता था I गरीबों और दलितों के दीनदशा पर उनका यह व्यंग्य आज भी कितना प्रासंगिक दिखता है I ;-
“कहाये न्यायी कबतें नाथ ?
कबत गह्यो न्याय को आसन ,तजि पतितन कौ साथ I
अंधाधुंध सरकार सदा ही रही तुम्हारे हाथ I
वामेँ करि सुधार “हरि” अब क्यों डाँड़त पतित अनाथ II ”
एक अन्य पद में वह लिखते हैं –
“नमो नमो, प्रभु ब्राह्मकुलीन !
नमो शास्त्र- व्यवसाय -धर्मधर ,धन धरणीश -अधीन !
रही कहाँ सबमें व्यापकता आज तुम्हारी नाथ !
व्यापक हो बस द्विज समाज में बिक वाहि के हाथ II
‘शबरी अतिथि’, ‘निषाद बन्धु’ ये गलित पुरातन नाम I
अब तो उच्चकुलीन मित्र हो, अरु अछूत रिपु- राम II
तब दरबार दलित कौ आदर रह्यो कहाँ प्रभु आज ?
पूछत कौन गरीबन को अब ,धन्य गरीब निबाज II ”

यहां के हिन्दुस्तानी रजवाड़ों पर उन्होंने व्यंग्य किया था –
“हैं जहँ आठ कनौजिये नौ चूल्हे की रीति I
तहां परस्पर प्रीती की कहा पढ़ावहु नीति II
दीननु देख घिनात जे ,नहिं दीननु सौं काम I
कहा जानि ते लेत है दीनबंधु को नाम II ”
वियोगी जी ने कबीर सूरदास और तुलसी को श्रद्धांजलि देते हुए ये पद भी लिखे हैं, जो स्मरणीय हैं –
कबीरदास –
भाषा -कवि- सम्राट जुलाहा दास कबीरा;
श्रीरामनन्द -शिष्य भक्ति भूषण मतिधीरा।
सुनी सुनी सब कही बात जो परमारथ की
सो याने परतच्छ रीति वा पथ की।
अति प्रचंड पाखंड खंडिके सत्य बतायो
साखी सांची कही,धरम को मरम जतायो
शब्दबान हिय मारि सुरत कौ खेल ख़िलायो,
परम पुरुष सो हंस सहज ही जाय मिलायो।।
सूरदास –
बृजभाषा कवि- मंडल- मंडन सूर महाकवि
कृष्णप्रेम परकासनरन कैंधो दूजो रवि
उपमा रूपक व्यंग्य लक्ष्य ध्वनि कोबिद नागर
जगत उजागर रच्यो सवालछ पद कौ सागर ।
या सागर में भरयों भक्तिजल विमल अगाधा
भाव भंवर बिच झलक दिखावे माधव राधा।
रसिक रंगीले मीन लीन जहं रहे निरंतर;
लखे अगोचर रूप ,पलक बिच परै न अंन्तर।
तुलसीदास-
तुलसी हुलसी सुवन जीव- उद्धारन आयो:
वाल्मीकि -अवतार जगत निस्तारन आयो ।
जाहित तजि पति- लोक भारती भूतल आई
भक्ति जान्हवी न्हाइ विमल उज्ज्वलता पाई।।
मानस राम चरित्र जासु जग पुन्य पताका;
परम अनूठो काव्य चलैगो जुग जुग साका।
बाल-वृद्ध नर-नारि जाहिं हिय हार बनायो
राव- रंक बुध- अबुध सबै मिलि जिहि अपनायो ।।”………उनके भले ही आज के सन्दर्भ से उनकी यह कविता और भाव सुनने में अटपटे लग रहे हों लेकिन यह भी अभिव्यक्ति का एक मुकाम था।
GPB

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