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अब उत्तराखण्ड की धरती पर भक्त दर्शन जैसे आदर्शवादी नेता पैदा नहीं होते

-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के महान राजनेता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक डा0 भक्त दर्शन के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व पर अगर हम विस्तार से प्रकाश डालें तो आज के अवसरवादी, पदलोलुप, जातिवादी और साम्प्रदायिकतवादी राजनीतिक महौल को देख कर नयी पीढ़ी को शायद ही यकीन आयोगा कि उत्तराखण्ड में भक्तदर्शन जैसा आदर्शों के साथ जीने मरने वाला कोई राजनेता पैदा हुआ हो। आज नेताओं की योग्ता नहीं बल्कि उनकी जाति और धर्म उन्हें चुनाव जितवाता है। लेकिन भक्त दर्शन जैसे भी नेता इसी उत्तराखण्ड में पैदा हुये जिन्होंने माता पिता द्वारा दिया गया नाम ‘‘राजदर्शन सिंह रावत’’ त्याग कर ऐसा नाम ‘‘भक्त दर्शन’’ रख दिया जिससे उनकी जाति या कुल का अन्दाज नहीं लग सकता। उनकों अपने नाम में जातिवादी और राजभक्ति की बू आती थी, इसलिये बदल दिय। उनकी जिद के कारण उनकी शादी में सभी बारातियों को खादी वस्त्र पहने पडे़। विवाह में उन्होंने न मुकुट धारण किया और न शादी में किसी प्रकार का दहेज स्वीकार किया। एक केन्द्रीय मंत्री और सांसद रहने के बाद भी वह जीवनभर किराये के मकान पर रहे। कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद से उन्होंने इसलिये इस्तीफा दे दिया क्योंकि कुछ छात्रों ने अपनी समस्याओं को लेकर उनका घेराव कर नारेबाजी कर दी थी। उन्होंने यह कह कर इस्तीफा दे दिया कि मेरे छात्र परेशानी में हैं और असन्तुष्ट हैं तो इसका मतलब है कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। वह उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के पितामहों में से एक थे। उन्होंने गढ़वाल की पत्रकारिता की दिशा स्वाधीनता की ओर मोड़ने के लिये कर्मभूमि अखबार का प्रकाशन शुरू किया था।
राजभक्ति और जातिवाद की बू आने पर अपना नाम ही त्याग दिया

भक्त दर्शन जी ने गढ़वाल की महान विभूतियों के कृतित्व और व्यक्तित्व को संकलित कर यह ऐसा दस्तवेज बनाया जिसके आधार पर लोगों ने सेकड़ों किताबें लिख डालीं। बल इस पुस्तक ने विभूतियों की यादें अक्षुण बना दीं।

भक्तदर्शन का जन्म 12 फरवरी 1912 को गोपाल सिंह रावत के घर हुआ। आपका मूल गाँव भौराड़, पट्टी साँबली, पौड़ी गढ़वाल में था। सम्राट जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण वर्ष में पैदा होने के कारण उनके पिता ने उनका नाम राजदर्शन सिंह रखा था, परन्तु राजनीतिक चेतना विकसित होने के बाद जब उन्हें अपने नाम से गुलामी की बू आने लगी, तो उन्होंने अपना नाम बदलकर भक्तदर्शन कर लिया। जाति विहीन समाज के समर्थक भक्त दर्शन, प्रतीष्ठित गढव़ाली राजपूत परिवार में जन्में थे, मगर उन्होंने राजपूतों द्वारा अपने नाम के आगे लगाया जाने वाला ”सिंह“ का भी अपने मूल नाम के साथ ही परित्याग कर दिया था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से इंटरमीडियेट किया और विश्व भारती ”शान्ति निकेतन“ से कला स्नातक और 1937 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षायें पास कीं। शिक्षा प्राप्त करते हुए ही उनका सम्पर्क गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि से हुआ।

बारातियों को खादी पहनाई और विवाह के दूसरे दिन गिरपतार

1929 में ही डॉ0 भक्त दर्शन लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में स्वयंसेवक बने। 1930 में नमक आंदोलन के दौरान उन्होंने प्रथम बार जेल यात्रा की। इसके बाद वे 1941, 1942 और 1944, 1947 तक कई बार जेल गये। 18 फरवरी 1931 को शिवरात्रि के दिन उनका विवाह जब सावित्री जी से हुआ था, तब उनकी जिद के कारण सभी बारातियों ने खादी वस्त्र पहने। उन्होंने न मुकुट धारण किया और न शादी में कोई भेंट ही स्वीकार की। शादी के अगले दिन ही वह स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिये चल दिये और संगलाकोटी में सरकार विरोधी भाषण देने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

पत्रकारिता को स्वाधीनता आन्दोलन का हथियार बनाया

भक्त दर्शन ने ”गढ़देश“ के सम्पादकीय विभाग में भी कार्य किया। वह ”कर्मभूमि“ लैंसडौन के 1939 से 1949 तक सम्पादक रहे। प्रयाग से प्रकाशित ”दैनिक भारत” के लिये काम करने के कारण उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वह एक कुशल लेखक थे। वह 1945 में गढ़वाल में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि तथा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों हेतु निर्मित कोष के संयोजक रहे। उन्होंने प्रयत्न कर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह पेंशन व अन्य सुविधायें दिलवायी थीं।

चार बार गढ़वाल से सांसद रहे

उन्होंने सन् 1952 से लोकसभा में चार बार गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया । सन् 1963 से 1971 तक वह जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री तथा इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडलों के सदस्य रहे। केन्द्रीय शिक्षा राज्यमंत्री के रूप में उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना करवायी और केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। त्रिभाषी फार्मूला को महत्व देकर उन्होंने संगठन को प्रभावशाली बनाया। गांधी जी के हिन्दी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना करायी। दक्षिण भारत एवं पूर्वाेत्तर में हिन्दी के प्रचार.प्रसार में उनका अद्वितीय योगदान रहा था। संसद में वह हिन्दी में ही बोलते थे। प्रश्नों का उत्तर भी हिन्दी में ही देते थे। एक बार नेहरू जी ने उन्हें टोका तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक कह दिया कि मैं आपके आदेश का जरूर पालन करता, परन्तु मुझे हिन्दी में बोलना उतना ही अच्छा लगता है जितना अन्य विद्वानों को अंग्रेजी में।

दुर्लभ नेता, स्वेच्छा से राजनीति छोड़ दी

भक्त जी ने 1971 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। वह उन दुर्लभ राजनेताओं में थे, जिन्होंने उच्च पद पर रह कर स्वेच्छा से राजनीति छोड़ी। राजनीति की काली कोठरी में रहकर भी वह बेदाग निकल आये। तत्पश्चात् उन्होंने अपना सारा जीवन शिक्षा व साहित्य की सेवा में लगा दिया। उनकी लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि लोकसभा चुनाव में उनसे पराजित होने वाले कोई और नहीं बल्कि पेशावर काण्ड के हीरो वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली थे। वह जिस किसी पद पर भी रहे, उन्होंने निष्ठा तथा ईमानदारी से कार्य किया। वह सादा जीवन और उच्च विचार की मिसाल थे। बड़े से बड़ा पद प्राप्त होने पर भी अभिमान और लोभ उन्हें छू न सके। वह ईमानदारी से सोचते थे, ईमानदारी से काम करते थे। निधन के समय भी वह किराये के मकान में रह रहे थे। किसी दबाव पर अपनी सत्यनिष्ठा छोड़ने को वह कभी तैयार नहीं हुए।

छात्रों के व्यवहार से क्षुब्ध हो कर कुलपति पद छोड़ दिया

भक्त दर्शन सन् 1972 से 1977 तक उ0प्र0 खादी बोर्ड के उपाध्यक्ष रहे और 1972 से 1977 तक कानपुर वि.वि. के कुलपति। उन्हें एक बार छात्र आन्दोलन के दौरान छात्रों का अभद्र व्यवहार इतना आहत कर गया कि उन्होंने तत्काल पद से इस्तीफा दे दिया। वह 1988-90 में उ.प्र. हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे और दक्षिण भारत के अनेक हिन्दी विद्वानों को उन्होंने सम्मानित करवाया। उन्होंने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की पुस्तकों का अनुवाद करवाया और उनके प्रकाशन में सहायता की। डॉ0 भक्तदर्शन ने अनेक उपयोगी ग्रंथ लिखे और कुछ सम्पादित किये। इनमें श्रीदेव सुमन स्मृति ग्रंथ, गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ (दो भाग) कलाविद् मुकुन्दी लाल बैरिस्टर, अमर सिंह रावत एवं उनके आविष्कार तथा स्वामी रामतीर्थ पर आलेख प्रमुख हैं। इसीलिये उनको डॉक्टरेट उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्यासी वर्ष की उम्र में 30 अप्रैल 1991 को देहरादून में दिवंगत विभूतियों का यह लेखक स्वयं दिवंगत हो गया।

jaysinghrawat@gmail.com

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