ब्लॉग

अंकिता के हत्यारों को तो सजा मिलनी मुश्किल मगर पटवारी पुलिस को सजा ए मौत मिल ही गयी


जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के इतिहास और सांस्कृतिक परिवेश से अनजान शासकों और प्रशासकों के कारण भारत की बेमिसाल पटवारी पुलिस जल्दी ही इतिहास के पन्नों में गम हो जायेगी। ब्रिटिशकाल में इस क्षेत्र की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों और नगण्य अपराधों के कारण ही शेष भारत से इतर यहां अलग तरह का प्रशासन लागू हुआ था जिसमें पटवारी पुलिस व्यवस्था भी शामिल थी। अब नैनीताल हाइकोर्ट की फटकार के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने लगभग डेढ सौ साल पुरानी राजस्व पुलिस व्यवस्था को देश के अन्य भागों की तरह सिविल पुलिस को सौंपने की तैयारी शुरू कर दी है। चूंकि यह हस्तांतरण इतना आसान नहीं है और पहाड़ी जनजीवन में बिना वर्दी और बिना हथियार वाली पटवारी पुलिस व्यवस्था रची बसी है और खाकी पुलिस के प्रति लोगों की अरुचि को देखते हुये हाइकोर्ट के आदेश का पालन न हो सका। लेकिन अब बहुचर्चित अंकिता हत्याकाण्ड में अपराधियों को सजा तो मुश्किल लग रही है लेकिल पटवारी पुलिस को सजाये मौत  तय हो गयी है।

पहाड़ का अतीत जुड़ा है पटवारी पुलिस के साथ

पटवारी पुलिस महज एक कानून व्यवस्था की मशीन नहीं बल्कि पहाड़ी समाज का एक अंग भी है। इस व्यवस्था की पहचान उत्तराखण्ड से है तो उत्तराखण्ड की संास्कृतिक और सामाजिक पहचान भी पटवारी पुलिस में निहित है। उत्तराखण्ड की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों के कारण ही सन् 1861 का अंग्रेजों का पुलिस एक्ट यहां लागू नहीं हुआ था। विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश के कारण ही उत्तराखण्ड का प्रशासन जनजातीय असम की तरह अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 के तहत चला था और उसी के अनुसार पटवारियों को पुलिस अधिकार मिले थे। इसलिये शासकों को उत्तराखण्ड को समझने के लिये पटवारी पुलिस को और उसके अतीत को समझना जरूरी है जिसे, समझा नहीं जा रहा है।
शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट की धारा 6 के तहत बनी थी यह व्यवस्था

काफी इलाकों को सिविल पुलिस को देने के बावजूद आज भी पहाड़ी कस्बों और चारधाम यात्रा मार्ग के अलावा बाकी 60 प्रतिशत भूभाग पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राजस्व पुलिस की है। हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया था, लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254/टप्प्प्.228.।.81 के तहत विस्तारित किया गया। इसी दौरान जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 आया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू के पटवारी को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस एक्ट की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लिये “कुमाऊं पुलिस” कानून बनाया गया जिसे अधिसूचना संख्या 494/टप्प्प्ध्.418.16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। इस अधिसूचना के प्रावधानों के तहत कुमाऊं पुलिस व्यवस्था में थोकदार-पदानों, सयाणों और कमीणों जैसे ग्राम मुखियाओं की परम्परागत भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं।

पटवारी व्यवस्था के जनक जी.डब्ल्यू. ट्रेल थे

उत्तराखण्ड की बेमिसाल पटवारी पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यू. ट्रेल को ही दिया जा सकता है। टेªल ने पटवारियों के 16 पद सृजित कर इन्हें पुलिस, राजस्व कलेक्शन, भू अभिलेख का काम दिया था। कंपनी सरकार के शासनकाल में पहाड़ी क्षेत्र के अल्मोड़ा में 1837 और रानीखेत में 1843 में थाना खोला था। कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाम मात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत, नैनीताल और श्रीनगर जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है।

हाइकोर्ट ने पटवारी पुलिस की सक्षमता पर उठाये सवाल

अब राजस्व पुलिस को समाप्त करने के पीछे हाइकोर्ट का तर्क है कि पटवारियों को पुलिस की तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और नही राजस्व पुलिस के पास विवेचना के लिये आधुनिक साधन, कम्प्यूटर, डीएनए, रक्त परीक्षण, फोरेंसिक जांच की व्यवस्था, फिंगर प्रिंट लेने जैसी मूलभूत सुविधायें भी नहीं हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और अपराधियों को इस कमी का लाभ मिल जाता है। कोर्ट का यह भी कहना था कि समान पुलिस व्यवस्था नागरिकों का अधिकार है।

व्यवस्था की पैरवी में भी उपेक्षा की गयी

चूंकि अनुभवहीन राजनीतिक नेतृत्व हर काम के लिये नौकरशी पर पराश्रृत रहता है और नौकरशाी को राज्य के इतिहास और सामाजिक तानेबाने की जानकारी नहीं होती। इसलिये हाइकोर्ट में राजस्व पुलिस के इतिहास और उन विशिष्ट परिस्थितियों की पैरवी ही नहीं की गयी। कोर्ट में सरकार की ओर से राजस्व पुलिस के पक्ष में यह नहीं बताया गया कि इसके गठन से लेकर अब तक यह बेहद कम खर्चीली व्यवस्था प्रदेशवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक ताने-बाने से सामंजस्य स्थापित कर चुकी है। वर्दीधारी पुलिसकर्मी से लोग दूरी बना कर रखते हैं और उनसे डरते भी हैं। जबकि पहाड़ी गावों में बिना वर्दी के राजस्व पुलिसकर्मी गांव वालों के साथ घुलमिल जाते हैं और जनता से सहयोग के कारण अपराधी कानून से बच नहीं पाते।

रेगुलर पुलिस से अधिक कारगर है यह व्यवस्था

अदालत में अगर सिवलि पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र के अपराध के तुलनात्मक आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति सपष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत भाग की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया। अदालतों में दाखिल मामलों में भी सिविल पुलिस कहीं भी राजस्व पुलिस के मुकाबले नहीं ठहरती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2021 के आंकड़े बताते हैं कि हत्या के मामलों में लगभग 42.4, बलात्कार में 28.6 प्रतिशत, अपहरण में 29.3 प्रतिशत और बलवा में 21.9 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाती है। जबकि राजस्व पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते।

पुलिस ऐक्ट 2008 की धारा 40 से काम चल सकता था

जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2008 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया। इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषण, भीड़ का विनियमन और राहत, राहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधन, जैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जाये, पुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करना, जो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’ गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रह हैं। ऐसा नहीं कि सिविल पुलिस हर मामले को सुलझाने में सक्षम हो। अगर ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआइडी, एसआइटी और कभी-कभी सीबीआइ को क्यों सौंपे जाते?

इतना आसान नहीं हजारों गांवों में थाने खुलवाना

अदालत का दूसरी बार आदेश आने के बाद तत्काल सम्पूर्ण पटवारी पुलिस व्यवस्था को तत्काल समाप्त करना संभव नहीं हैं इसलिये सरकार चरणबद्ध तरीके से हस्तांतरण प्रकृया शुरू कर रही है। अब देखना यह है कि राज्य सरकार 1225 पटवारी सर्किलों के लिये इतने थानों और हजारों पुलिसकर्मियों का इंतजाम कैसे करती है और कैसे पहाड़ी समाज वर्दीधारी पुलिसकर्मियों को गावों में सहन करती है। वैसे भी राजस्व का काम ही बहुत कम है। खेती की 70 प्रतिशत से अधिक जोतें आधा हेक्टेअर से कम हैं इसलिये ऐसी छोटी जोतों से सरकार को कोई राजस्व लाभ नहीं होता। अगर पुलिसिंग का दायित्व छिन जाता है तो समझो कि पहाड़ के पटवारी कानूनगो बिना काम के रह जायेंगे। इसके साथ ही अल्मोड़ा का पटवारी ट्रेनिंग कालेज और राजस्व पुलिस के आधुनिकीकरण पर लगाई गयी सरकारी रकम भी बेकार चली जायेगी।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!