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रोम जल रहा है और नीरो चैन की बाँसुरी बजा बजा रहे हैं, एशिया का वाटर टावर लपटों में, वन्य जीवन पर महा आपदा। 

-जयसिंह रावत
’’जब रोम जल रहा था, तो नीरो चैन की बाँसुरी बजा रहा था।’’ यह कहावत रोमन सम्राट नीरो के बारे में मशहूर है। लेकिन वर्तमान में यह कहावत उत्तराखण्ड पर चरितार्थ हो रही है, जहां जंगल की आग वन्यजीव संसार को खाख करने के साथ ही हिमालय को झुलसा कर सारे देश के पर्यावरण को दूषित कर रही है और जंगल के रखवाले छुट्टी का आनन्द उठा रहे हैं। यही नहीं वन विभाग के मुखिया की कुर्सी को लेकर भी खींचातानी चल रही है। उत्तराखंड की सरकार को हिंदुत्व तो खतरे में नज़र आ रहा है मगर बणांग  की लपटों में घिरे निरीह वन्य जीव और खाक होने जा रहे पेड़ पौधे संकट में नज़र नहीं आ रहे.

उत्तराखण्ड के वन मंत्री मुंबई से उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग बुधवा रहे हैं.

बर्फ की चादर के रूप एक महासागर के बराबर पानी अपने ऊपर ओढ़ने वाला हिमालय एशिया का जलस्तंभ और मौसम नियंत्रक ही नहीं बल्कि जैव विविधता का असीम भण्डार भी है, जो कि विश्व के ऊंगलियों में गिने जाने वाले कुछ बायोडाइवर्सिटी सम्पन्न हॉटस्पॉट्स में से एक है। जब हिमालय में वनाग्नि धधक रही हो तो हिमालय पर आई इस आफत से पर्यावरण के साथ ही वन्य जीवन के महाविनाश की कल्पना सहज ही की जा सकती है।
देश भर के जंगलों पर नजर रखने वाले भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के वनाग्नि संबंधी डैशबोर्ड में 20 अप्रैल को देश में कुल 180 वनाग्नि की बड़ी घटनाएं दर्ज की गयी हैं, जिनमें सर्वाधिक 107 घटनाएं उत्तराखण्ड के नाम दर्ज हैं। विभाग के डैशबोर्ड में जंगल की आग की भयावहता के लिये देश के जिन पांच राज्यों को शीर्ष पर रखा गया है उनमें भी उत्तराखण्ड को शीर्ष स्थान दिया गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग ने गत वर्ष नवम्बर से अब तक उत्तराखण्ड में 685 बड़े वनाग्नि काण्ड दर्शा रखे हैं। उत्तराखण्ड के बाद छत्तीसगढ़ (427 अग्निकाण्ड), महाराष्ट्र (275), उड़ीसा ( 224) और झारखण्ड (212 बड़े वनाग्नि काण्ड) दिखा रखे हैं। इसी प्रकार गत 13 अप्रैल से 20 अप्रैल तक के देश के सबसे बड़े वनाग्नि काण्डों में भी हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड को शीर्ष पर दिखा रखा है। इसमें उत्तराखण्ड में 70, मध्य प्रदेश में 62, छत्तीसगढ़ में 43, उड़ीसा में 33 और महाराष्ट्र में 21 वनाग्नि की बड़ी घटनाएं दर्शायी गयी हैं।
मध्य हिमालय स्थित उत्तराखण्ड में जब 20 अप्रैल को राज्य के वन विभाग के मुखिया या हेड ऑफ फारेस्ट फोर्स (हॉफ) विनोद कुमार से पूछा गया तो उनका कहना था कि वह इन दिनों छुट्टी पर हैं, लिहाजा पूरी जानकारी एक अन्य वनाधिकारी निशान्त वर्मा से ली जा सकती है। राज्य में वनाग्नि की भयावहता को देखते हुये इन दिनों वनकर्मियों की छृट्टियों पर रोक है और विभाग वन आपदा से निपटने के लिये होमगार्ड, एसडीआरएफ, पुलिस और रेवेन्यू कर्मचारियों की मदद ले रहा है जबकि मुखिया छुट्टियों का आनन्द उठा रहे हैं। यही नही वन विभाग के हॉफ पद के लिये भी आला अफसरों में खींचातानी चल रही है।
देश में सर्वाधिक वनाग्नि प्रभावित उत्तराखण्ड के वन विभाग के फायर डैशबोर्ड में दर्ज विवरण के अनुसार मार्च से शुरू हुये इस फायर सीजन में 20 अप्रैल तक वनाग्नि की कुल 739 घटनाएं हो चुकी थीं जिनमें 48 घटनाएं वन्य जीव संरक्षित वन क्षेत्रों की भी थीं। कुल मिला कर इस अवधि में 1045.14 हैक्टेअर वनक्षेत्र जल चुका था। विभाग ने इसमें 15,503 पेड़ों का नुकसान 29.67 लाख रुपयों में तो अवश्य दिखाया, मगर बड़े वन्यजीव तो रहे दूर एक चींटी के मरने का तक जिक्र नहीं किया। जबकि वनाग्नि से एक व्यक्ति की मौत और एक अन्य के घायल होने की बात अवश्य स्वीकारी गयी है। इसमें 92.1 हैक्टेअर प्लाण्टेशन का भी अवश्य जिक्र हुआ है, क्योंकि जंगल में पेड़ लगाने के नाम पर ही सबसे बड़ा खेल होता है और वनाग्नि वन्यजीवों और वनस्पतियों के साथ ही वृक्षारोपण के फर्जीवाड़े के सबूतों को भी राख कर देती है। जंगल की आग के प्रति उदासीनता का उदाहरण यह है कि राज्य के गठन के 22 साल बाद अब जाकर वनाग्नि से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के आंकलन के लिये भारतीय वन्य जीव संस्थान को अनुबंधित किया जा रहा है। अन्यथा यहां वनाग्नि से हुयी क्षति का आंकलन केवल पेड़ों की गिनती से पूरा हो जाता था।
हमारे देश में वनों के क्षरण का एक प्रमुख कारण वनाग्नि या जंगल की आग भी है। आग से बहुमूल्य वन संसाधन और कार्बन नष्ट हो रहा है जिसका प्रभाव वन क्षेत्रों से वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह पर भी पड़ता है। जंगलों में आग लगने की वजह से गर्मी पैदा हो रही है और जीव-जंतुओं के निवास स्थान बर्बाद हो रहेे हैं। इससे मिट्टी की गुणवत्ता खत्म हो जाती है। वनस्पतियां पोषण के लिए विघटित मिट्टी सामग्री खाते हैं, और वनस्पति खाने वाले जीवों पर मांसाहारी जीव निर्भर रहते हैं। मांसहारियों के मरने पर वे सड़ कर पुनः मिट्टी बन जाते हैं। भोजन के अलावा प्रजनन के लिए पौधे और जंतु एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। जैसे फूलों से पराग मधुमक्खियों द्वारा ले जाया जाता है और पशु-पक्षी बीजों को बिखेरने का काम भी करते हैं। वनों में जीवधारियों को पर्याप्त भोजन के साथ सुरक्षित आश्रय भी मिल जाता है।यहां सवाल एक दो जीवों या पादपों के लुप्त होने का नहीं बल्कि जंगलों के जीवन विहीन होने का है।
वनाग्नि बड़े वृक्षों को छोड़ कर उसके आगे आने वाली हर वनस्पति और हर एक जीव का अस्तित्व खाक कर चलती है। बाघ और हिरन जैसे स्तनधारी तो जान बचा कर सुरक्षित क्षेत्र की ओर भाग सकते हैं, मगर उन निरीह सरीसृपों और कीट-पतंगों का क्या हाल होगा जो कि दावानल की गति से भाग भी नहीं सकते। बनस्पतियों के पास तो बचने के लिये भागने का भी विकल्प नहीं है जिससे वन्यजीवों के समक्ष भोजन का संकट उत्पन्न हो जाता है।
वनाग्नि का प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिये भी हानिकारक है। उसके धुएं में कई तरह के कालिख और रसायन जैसे कण होते हैं, जिनमें कार्बन मोनोऑक्साइड शामिल है। वायु गुणवत्ता के विशेषज्ञों के लिए मुख्य चिंताओं में से एक धुएं में पाए जाने वाले सूक्ष्म कण पीएम 2.5 हैं। पीएम 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम की माप के अंतर्गत आते हैं।

 

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