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पुण्य तिथि पर विशेष: श्रीदेव सुमन, जो मर कर भी अमर हो गय


जयसिंह रावत
अपने अधिकारों के लिये लम्बी-लम्बी भूख हड़तालों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। भारत में ही इरोम चानू शर्मिला ने 500 हफ्तों तक अन्न जल त्यागा था। प्रख्यात पर्यावरणवादी नेता सुन्दर लाल बहुगुणा ने टिहरी बांध के खिलाफ 74 दिन तक अनशन किया था। शहीदे आजम भगत सिंह ने तो 116 दिन तक जेल में भूख हड़ताल रखी थी। लेकिन श्रीदेव सुमन जैसे विरले ही स्वाधीनता सेनानी हुये जिन्होंने प्राण त्याग दिये मगर अपना इरादा नहीं बदला। सुमन से पहले केवल महान क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ या जतिन दास ने बोर्स्टल जेल में 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद देश की आजादी के लिये प्राणोत्सर्ग किया था। उनके बाद श्रीदेव सुमन ने 1944 में जतिन दास द्वारा स्थापित परम्परा को आगे बढ़ा कर टिहरी की जेल में 84 दिनों की भूख हड़ताल के बाद प्राण त्यागे थे। हालांकि श्रीदेव सुमन का संघर्ष टिहरी की राजशाही के जुल्मों के खिलाफ था मगर वह एक समर्पित कांग्रेसी भी थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भी उतने ही सक्रिय थे। उनके बलिदान का स्वाधीनता आन्दोलन पर व्यापक असर पड़ा।

Revolutionary Jatindra Nath Das, better known as Jatin Das died in the Lahore Central Jail after a 63-day hunger strike.

सुमन के बलिदान ने सारे देश का ध्यान आकर्षित किया

अमर शहीद श्रीदेव सुमन की शहादत का भारत के स्वाधीनता आन्दोलन पर कितना प्रभाव पड़ा इसका उदाहरण स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में 2 अगस्त 1944 के दैनिक हिन्दुस्तान का वह सम्पादकीय आलेख था जिसमें सम्पादक ने लिखा था कि,:-
‘‘… श्रीदेव सुमन का पवित्र बलिदान भारतीय इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण और उल्लेख योग्य है। इससे पहले बोर्स्टल जेल में यतीन्द्र नाथ दास के बलिदान ने देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था और उसके फलस्वरूप भारतीय जेलों में राजनीतिक बंदियों को नाममात्र की सुविधाएं दी गयीं। श्रीदेव सुमन का बलिदान मगर, इससे अधिक उच्च सिद्धान्त के लिये हुआ है। टिहरी राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये आपने बलिदान दिया है। टिहरी के शासन पर पड़ा काला पर्दा इससे उठ गया है। हमारा विश्वास है कि टिहरी की जनता की स्वतंत्रता की लड़ाई इस बलिदान के बाद और जोर पकड़ेगी और टिहरी के लोग उनके जीवनकाल में अपने लोकनेता का जैसे अनुकरण करते थे, वैसे ही भविष्य में अनुप्राणित होंगे।”

देशी रियासतों में लोकतंत्र की चाह भड़क उठी

टिहरी जेल में 84 दिनों की भूख हड़ताल के बाद श्रीदेव सुमन की 25 जुलाइ 1944 को शहादत पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 31 दिसम्बर 1945 का उदयपुर में आयोजित देशी राज्य लोक परिषद के अधिवेशन में अपने भाषण में कहा था कि ‘‘……हमारे साथियों में से जो अनेक शहीद हुये हैं उनमें टिहरी राज्य के श्रीदेव सुमन का मैं विशेष तौर पर उल्लेख करना चाहता हूं। हममें से अनेक इस वीर को याद करते रहेंगे, जो कि राज्य की जनता की आजादी के लिये काम किया करते थे…।’’ देशी राज्य लोक परिषद कांग्रेस का ही एक अनुसांगिक संगठन था जिसका गठन भारत की 560 से अधिक छोटी बड़ी रियासतों में लोकतंत्र के लिये कांग्रेस द्वारा ही किया गया था। इसके पहले अध्यक्ष भी जवाहरलाल नेहरू ही थे। इस परिषद के अधीन सभी रियासतों के प्रजामण्डल काम करते थे।

राजभक्त की मौत राजशाही के अंत का कारण बनी

चूंकि अन्य रियासतों की तरह टिहरी रियासत की पैरामौट्सी (सार्वभौम सत्ता) ब्रिटिश ताज में ही निहित थी, इसलिये किसी भी रियासत का अपराधी ब्रिटिश राज का भी अपराधी था। इसलिये श्रीदेव सुमन को गिरफ्तार कर 6 सितम्बर 1942 को देहरादून पुलिस के हवाले किया गया तो ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें आगरा जेल भेज दिया था। आगरा जेल से छूटने के बाद श्रीदेव सुमन 30 दिसम्बर, 1943 को टिहरी जेल में बन्द कर दिये गये और फिर कभी जीवित बाहर नहीं निकले। जेल में ही 21 फरबरी 1944 को स्पेशल मजिस्ट्रेट ने देशद्रोह की धारा 124 (अ) के तहत दो वर्ष के कठोर कारावास और 200 रुपये अर्थदण्ड की सजा सुनाई। सुमन महाराजा के विरुद्ध नहीं बल्कि उनके कारिन्दों की ज्यादतियों के खिलाफ थे और राजा के अधीन ही उत्तरदायी शासन चाहते थे। जेल में सुमन ने 3 मई 1944 को अपना ऐतिहासिक अनशन शुरू किया और 25 जुलाई 1944 को शाम 4 बजे उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। टिहरी से मात्र 12 मील दूर सुमन के गांव जौलगांव में उनके परिजनों को मृत्यु का समाचार 30 जुलाइ को पहुंचाया गया। उनकी पत्नी श्रीमती विनय लक्ष्मी उन दिनों महिला विद्यालय हरिद्वार में थी, जिन्हें कोई सूचना नहीं दी गयी। लेकिन श्रीदेव सुमन का यह बलिदान न केवल टिहरी की राजशाही के अंत का कारण बना बल्कि देशभर के स्वाधीनता सेनानियों के लिये प्रेरणा का श्रोत भी बना।

     The cell of Tehri jail where Shridev Suman breathed his last after an 84-day hunger strike.

कांग्रेस की देशी राज्य लोक परिषद के प्रमुख थे सुमन

श्रीदेव सुमन अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के अधिवेशनों में भाग लेते थे, इसलिये आन्दोलन और संगठन का अनुभव उन्हें अधिक था। इसके बाद श्रीदेव सुमन, जिनका बचपन का नाम श्रीदत्त बडोनी था, टिहरी के जनसंघर्षों के महानायक के रूप में उभरते गये। 20 मार्च 1938 को दिल्ली में हुये अखिल भारतीय पर्वतीय सम्मेलन में बदरीदत्त पाण्डे के साथ टिहरी से श्रीदेव सुमन ने भी भाग लिया। हिमाचल की धामी रियासत में 16 जुलाइ 1939 को हुये गोलीकांड की जांच के लिये अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की ओर से गठित जांच समिति में सुमन को मंत्री बनाया गया।

कांग्रेस के अधिवेशनों में प्रजा की कठिनाइयां बताते थे सुमन

उन्होंने 5-6 मई 1938 को श्रीनगर गढ़वाल में हुये कांग्रेस के राजनीतिक सम्मेलन में पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा विजय लक्ष्मी पंडित को टिहरी वासियों के कष्टों से अवगत करा दिया था। अगस्त 1938 में रियासतों के सम्मेलन में सुमन और बदरीदत्त पाण्डे ने टिहरी रियासत की प्रजा की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुये इसके लिये जिम्मेदार नीतियों की आलोचना की थी। 17-18 फरबरी 1939 को लुधियाना में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुये देशी राज्य लोक परिषद के सम्मेलन में भी सुमन ने टिहरी की प्रजा की आपबीती बेहतर ढंग से सुनाई। सुमन ने मार्च 1939 में त्रिपुरा कांग्रेस में भी प्रजामण्डल के प्रचार मंत्री के तौर पर भाग लिया था।

अंतिम बार जेल गए तो फिर  जीवित नहीं लौटे 

19 मार्च 1941 को प्रजामण्डल के अधिवेशन में टिहरी राज्य के अंदर प्रजामण्डल का गठन करने का निर्णय लिया गया और श्रीदेव सुमन तथा शंकरदत्त डोभाल को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी। 9 मई 1941 को टिहरी के पास पडियार गांव में सुमन को पहली बार हिरासत में लिया गया और दो दिनों तक उनको एक पुलिस इंस्पेक्टर के घर पर रखने के बाद उन्हें मुनी-की-रेती में छोड़ने के साथ ही हिदायद दी गयी कि बिना प्रशासन की अनुमति के वह दो माह तक राज्य के अंदर प्रवेश न करें।
29 अगस्त 1942 को सुमन जब बंबई में सम्पन्न हुयी देशी राज्य लोक परिषद की बैठक से लौट रहे थे तो उन्हें देवप्रयाग में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कुछ दिनों तक वहीं हिरासत में रखने के बाद 6 सितम्बर 1942 को ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया गया। सुमन देशी राज्य लोक परिषद की बैठक में भाग लेकर 18 अगस्त 1942 को देहरादून लौटे और 29 अगस्त 1942 को जब वह देवप्रयाग से कोटी होते हुये राजधानी जा रहे थे तो उन्हें ’भारत छोड़ो आन्दोलन’ के सिलसिले में बंदी बना कर मुनि की रेती पहुंचाया गया। वहां से देहरादून में ब्रिटिश पुलिस के हवाले किये गये। पुलिस ने उन्हें आगरा जेल भेज दिया। आगरा जेल से छूटे तो फिर टिहरी पुलिस ने पकड़ कर जेल डाल दिया। जहां से वह कभी जीवित नहीं निकल पाये।

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