उत्तरांचल से उत्तराखण्ड की 23 सालों की कहानी
When Ramesh Pokhriyal Nishank, the first Finance Minister of the newly formed interim government of Uttaranchal, presented the first budget of the state on 3 May 2001, the total expenditure was Rs 4,505.75 crore and the revenue receipts were Rs 3,244.71 crore. Uttaranchal had inherited a deficit of about Rs 1,750 crore at the time of state formation and the interim government started its work with an overdraft of Rs 10 crore. Not only this, the new state also inherited a huge debt. Whereas on March 15, 2023, the current Finance Minister Premchand Aggarwal presented the annual budget for 2023-24, in which total expenditure was proposed to be Rs 77407.08 crore and revenue receipts were proposed to be Rs 76,592.54 crore. Such a huge leap in the budget of Uttarakhand, which was born under the name of Uttaranchal, is a measure of the progress of the new state. We can imagine that if there had been no political instability in the state and disasters like Kedarnath, this state would have progressed much more. But despite so much progress, some dreams of the people of Uttarakhand are still unfulfilled and some have even been shattered.
-जयसिंह रावत
नवगठित उत्तंराचल की अंतरिम सरकार के पहले वित्त मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 3 मई 2001 को जब राज्य का पहला बजट पेश किया था तो उसमें कुल व्यय 4,505.75 करोड़ और राजस्व प्राप्तियों 3,244.71 करोड़ प्रस्तावित थीं। राज्य गठन के समय उत्तरांचल को लगभग 1,750 करोड़ का घाटा विरासत में मिला था और अंतरिम सरकार ने 10 करोड़ के ओवर ड्राफ्ट के साथ अपना काम शुरू किया था। यही नहीं नये राज्य को विरासत में भारी भरकम कर्ज भी मिला था। जबकि 15 मार्च 2023 को मौजूदा वित्त मंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल ने 2023-24 का सालाना बजट पेश किया तो उसमें कुल व्यय 77407.08 करोड़ और राजस्व प्राप्तियां 76,592.54 करोड़ प्रस्तावित थीं। उत्तरांचल के नाम से जन्म लेने वाले उत्तराखण्ड के बजट की इतनी बड़ी छलांग नये राज्य की प्रगति का एक पैमाना ही है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता और केदारनाथ की जैसी आपदाऐं न आतीं तो यह राज्य इससे भी कहीं अधिक तरक्की कर चुका होता। लेकिन इतनी तरक्की के बावजूद अभी उत्तराखण्डवासियों के कुछ सपने अधूरे हैं तो कुछ बिखर भी गये हैं।
कर्ज की कोख से जन्मे राज्य की राहे होती गयीं आसान
उत्तराखण्ड के जन्म के समय राज्य को विरासत में भारी भरकम घाटा और कर्ज मिलने के साथ ही 11वें वित्त आयोग से भी पूरा न्याय नहीं मिला था। इन भारी रुकावटों के बावजूद केन्द्र की तत्कालीन बाजपेयी सरकार ने अन्य हिमालयी राज्यों के साथ ही उत्तरांचल को भी 1 मई 2001 को विशेष श्रेणी का दर्जा दे दिया जिससे विकास के मार्ग में आने वाली वित्तीय कठिनाइयां काफी आसान हुयीं। इसके बाद राज्य को औद्योगिक पैकेज भी मिला। जिससे राज्य का तेजी से औद्योगिक विकास होने के साथ ही राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ती गयी। सन् 2002 में सी रंगराजन की अध्यक्षता में 12वां वित्त आयोग गठित हुआ तो तत्कालीन सरकार के होम वर्क के फलस्वरूप न केवल 11 वें आयोग के नुकसान की काफी हद तक भरपाई हुयी बल्कि अपेक्षा के अनुरूप आयोग ने नये राज्य पर दरियादिली भी दिखाई।
विकास के मार्ग पर लगाई लम्बी छलांगें
1 जनवरी 2007 को उत्तरांचल का टैग उतार कर उत्तराखण्ड नाम धारण करने वाले इस राज्य की विकास यात्रा में राजनीतिक अस्थिरता, पद लोलुपता और केदारनाथ जैसी आपदाओं के कारण व्यवधान अवश्य रहे फिर भी विशेष श्रेणी का दर्जा, औद्योगिक पैकेज और नये राज्य के प्रति केन्द्र सरकारों की सहानुभूति के चलते इन 23 सालों में राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय ने भी आश्चर्यजनक छलांगें लगाईं। नवीनतम अनुमान के अनुसार राज्य की जीडीपी 3.33 लाख करोड़ और प्रति व्यक्ति आय 2,33,565 तक पहुंच गयी है। जबकि 1999.2000 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय मात्र 14,086 रुपये और जीडीपी लगभग 1.60 लाख करोड़ के आसपास थी। यद्यपि टिहरी, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिलों की प्रति व्यक्ति आय 1 लाख तक भी नहीं पहुंची। जबकि हिमाचल की प्रति व्यक्ति आय उत्तराखण्ड से कम 2,22,226.54 तक ही पहुंची है। इसी प्रकार हिमाचल की जीएसडीपी भी उत्तराखण्ड की कहीं कम 2.14 लाख करोड़ है। वहां बैंकों का ऋण जमानुपात भी उत्तराखण्ड से बहुत कम 30.80 है। राज्य गठन के समय विद्युतीकृत गावों की संख्या 12519 थी जो कि अब 15745 तक पहुंच गयी है। कम से कम बिजली के खम्बे तो गावों में पहुंच ही गये, चाहे उन पर बिजली हो या नहीं।
बिजली, सड़क, पानी और अस्पताल में हुआ काफी काम
सन् 2002 में जब पहली निर्वाचित सरकार ने सत्ता संभाली तो उस समय बैंको का ऋण जमा अनुपात मात्र 19 था। मतलब यह कि बैंक जनता से 100 रुपये जमा करा रहे थे तो मात्र 19 रुपये यहां कर्ज दे रहे थे और बाकी धन का कहीं और व्यवसायिक उपयोग कर रहे थे। आज की तारीख में यह ऋण जमा अनुपाल 51 तक पहुंच गया है। जाहिर है कि 100 में 51 रुपये यहीं लोगों को काम धन्धे चलाने के लिये दिये जा रहे हैं। हालांकि पहाड़ों में यह ऋण जमा अनुपात अब भी चिन्ताजनक स्थिति में हैं। ऐलापैथिक अस्पतालों की संख्या तब से अब 553 से 716 तक, आयुर्वेदिक अस्पतालों की संख्या 415 से 544 हो गयी और जन्म दर 19.6 से घट कर 16.6 और बाल मृत्यु दर 6.5 से घट कर 6.3 तक आ गयी है। वर्ष 1999में नेशनल हाइवे से लेकर जिला और ग्रामीण मार्गों की लम्बाई 14,976 किमी थी जो कि 2022 के आंकड़ों के अनुसार 40,457.29 किमी तक पहुंच गयी है। वर्ष 2001-02 की सरकारी सांख्यकी डायरी के अनुसार उस समय राज्य में 191 उद्योग स्थपित थे जिनमें से 69 के बंद होने से कुल 122 ही उद्योग शेष रह गये थे। अब 2021-22 की संाख्यकी डायरी के अनुसार राज्य में वृहद उद्योगों की संख्या 329 तक पहुंच गयी है। इन बड़े द्योगों के अलावा राज्य में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की संख्या 73,961 हो गयी है।
लेकिन सांस्कृतिक पहचान धंुधलाती गयी
पहाड़वासी अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिये अनुच्छेद 371 की मांग कर रहे थे लेकिन अब उद्योग के नाम पर पहाड़ियों की जमीनों की खुली लूट मची हुयी है। वर्ष 2003 में जो भूकानून बना था उसका 2017 के बाद निरन्तर क्षरण हो रहा है जिस कारण पहाड़ की जनसंाख्यकी बदल रही है। राज्य में भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आ पा रही है फिर भी सरकारें लोकायुक्त का गठन करने से डरती रही हैं। राज्य आन्दोलन के दौरान हुये मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को आज तक सजा नहीं हो पायी।
खेती का दायरा घटा पलायन बेकाबू ही रहा
राज्य में कृषि जोतों का आकार निरन्तर घटता जा रहा है। सन् 1995-96 में राज्य में 4 से 10 हेक्टेअर के बीच जातों का प्रतिशत 3.1 था जो कि 2021-22 तक 1.64 प्रतिशत रह गया। इसी तरह 2 से 4 हेक्टेअर आकर की जोतें 8.7 प्रतिशत थीं जो घट कर 6.59 प्रतिशत रह गयीं। राज्य में 2015-16 में कुल कृषि जोतें 9,12,650 थी। जिनमें 6,75,246 पहाड़ की और 2,37,404 मैदान की थी। इनमें से टिहरी, देहरादून, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा नैनीताल, बागेश्वर, चम्पावत में 6.49 प्रतिशत जोतें घट गयीं। मैदानी क्षेत्रों में जोतों की संख्या में 5.25 की वृद्धि दर्ज की गयी है। राज्य में खेती का दायरा घटता जा रहा है। वर्ष् 1998-99में राज्य में कुल शुद्ध या वास्तविक बोये गये क्षेत्र को 7,84,113 हैक्टेअर बताया गया था जो कि अब 2020-21 में केवल 6,20,629 हेक्टेअर दर्ज किया गया है। इसका मतलब है कि इन 24 सालों में उत्तराखण्ड का 1,63,488 हैक्टेअर कृषि क्षेत्र घट गया। एक चौंकाने वाली बात यह है कि शुद्ध बोया गया क्षेत्र मैदानों में 2,47,570 और पर्वतीय क्षेत्र में 3,73,058 है। इसका मतलब है कि पहाड़ी जिलों, जिनका कुल भौगोलिक क्षेत्र 84.6 प्रतिशत है, में अब आबाद क्षेत्र केवल 3,73,059 हैक्टेअर ही रह गया है। जबकि राज्य गठन से पूर्व हरिद्वार को छोड़ कर कृषि आबाद क्षेत्र. लगभग 7 लाख हेक्टेअर माना जाता था। इतने बड़े पैमाने पर खेतों का सिमट जाना कृषि के प्रति लोगों की अरुचि और बड़े पैमाने पर पलायन का ही संकेत है। सरकार द्वारा मुफ्त राशन और मनरेगा में सौ दिन के रोजगार की गारंटी माना जा रहा है। खेतों की उर्वरकता घटते जाने और जंगली जानवरों द्वारा किये जाने वाले भारी नुकसान के कारण भी लोगों में खेती का मोह बहुत घट गया है।
स्कूल बढ़े मगर छात्र घटते गये
इस पहाड़ी राज्य में नयी शिक्षा नीति का भी सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या है। राज्य गठन के समय जूनियर बेसिक स्कूलों की संख्या 12,791 थी जो कि 2021-22 में 13,422 हो गयी मगर विद्यार्थियों की संख्या इस अवधि में 11,20,218 से घट कर 4,91,783 रह गयी। विद्यार्थी घटे तो शिक्षक भी 28,340 से 26,655 रह गये। इसी तरह राज्य गठन के समय सीनियर बेसिक स्कूलों की संख्या 2,970 से 5,288 तो हो गयी मगर विद्यार्थियों की संख्या 5,47,009 से घट कर 5,04,296 रह गयी। छात्रों की कमी के कारण इस दौरान लगभग 3000 स्कूल अवश्य ही बंद हो गये।
बेरोजगारों की फौज भी बढ़ती गयी
केंद्र सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार उत्तराखंड में साल 2021-22 में बेरोजगारी दर 7.8 प्रतिशत रही है. हालांकि, 2022-23 में बेरोजगारी दर के आंकड़ों में गिरावट देखी गई है। राज्य गठन के समय सेवायोजन कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 3,08,868 थी जो कि 2021-22 में 8,39,679 हो गयी।