उत्तराखण्ड की ग्रीष्मकालीन राजधानी, हकीकत कम फसाना ज्यादा !
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में चुनाव करीब आते जाने के साथ ही पिछले 21 सालों से लटका प्रदेश की राजधानी का मसला एक बार फिर जोर पकड़ने लगा है। मामला गरमाने के साथ ही गैरसैण-भराड़सैण क्षेत्र में रोनक बढ़ने लगी है। रोनक इसलिये कि सभी दलों के ढकोसलेबाज नेता उस क्षेत्र के चक्कर लगाने लगे हैं। भाजपा की धामी सरकार ने तो इस वर्ष का स्थापना दिवस समारोह भराड़ीसैण में मना डाला और अब वहां विधानसभा सत्र की तैयारियां चल रही हैं। राजधानी भराड़ीसैण पहंचे या न पहुंचे मगर भाजपा उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी तो घोषित कर ही चुकी है। इसलिये कांग्रेस को मजबूरन एक कदम आगे बढ़ कर वहां पूरी राजधानी बनाने की घोषणा करनी पड़ गयी। कुल मिला कर देखा जाय तो राजधानी के नाम पर जनता को भरमाने का ही काम हो रहा है। जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा तो ग्रीष्म कालीन राजधानी के नाम पर हो रहा है। अगर भराड़ीसैण ग्रीष्मकालीन राजधानी है तो स्थाई राजधानी कहां है? अगर देहरादून को भाजपा ने स्थाई राजधानी मान लिया तो उसे छिपा क्यों रहे हैं? त्रिवेन्द्र रावत ने गैरसैण के लिये जो 25 हजार करोड़ की रकम संभाल कर रखी थी, वह कहां गयी? अगर हिमाचल प्रदेश की शीतकालीन सत्र की तरह यहां हफ्तेभर के लिये विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र चलाने भर का है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा ही होगा।
देहरादून से सचिवालय भराड़ीसैण पहुंचाना होगा
ग्रीष्मकालीन राजधानी की सोच ही अव्यवहारिक और जनता को मूर्ख बनाने वाली है। पहाड़ों में एक कहावत है कि छोटी पूजा के लिये भी पांच वर्तन और बड़ी पूजा के लिये भी पांच ही वर्तनों की जरूरत होती है। अगर भराड़ीसैण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी चलाने की सरकार की मंशा है तो उसे ग्रीष्मकाल में भराड़ीसैण से प्रदेश का शासन विधान चलाने के लिये देहरादून का समूचा सचिवालय फाइलों समेत भराड़ीसैण ले जाना होगा। इसलिये ग्रीष्मकालीन राजधानी के लिये भराड़ीसैण में भी भवन आदि उतने ही बड़े ढांचे की जरूरत होगी जितनी कि देहरादून में उपलब्ध है। इसमें कम्प्यूटर आपरेटर और समीक्षा अधिकारी से लेकर मुख्यसचिव तक के आला आइएएस अफसरों के कार्यालय और आवासीय भवन गैरसैण या भराड़ीसैण में उपलब्ध कराने होंगे। यही नहीं वहां चपरासी और बाबू से लेकर अधिकांश विभागों के दफ्तर भी बनाने होंगे। अगर ऐसा नहीं होता है और ग्रीष्मकालीन राजधानी का अभिप्राय केवल विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र से है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा और प्रदेश के बेहद सीमित संसाधनों का दुरुपयोग होगा। वैसे भी त्रिवेन्द्र रावत की बाकी घोषणाऐं भी या तो हवा हवाई हो गयी और जो धरातल पर उतरीं भी वे भाजपा के गले की फांस बन गयीं।
चन्द अफसरों को ही पौड़ी नहीं भेज सकी सरकार
मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने 29 जून 2019 को गढ़वाल कमिश्नरी के स्वर्णजयन्ती समारोह के अवसर पर कमिश्नरी मुख्यालय पौड़ी में कमिश्नरी स्तर के सभी अधिकारियों की तैनाती सुनिश्चित कर इस ऐतिहासिक नगर का पलायनग्रस्त रुतवा लौटाने का वायदा किया था लेकिन आज तक कमिश्नर और डीआइजी को कमिश्नरी मुख्यालय पर पहुंचाना तो रहा दूर वहां कोई अदना सा अफसर भी स्थाई रूप से ड्यूटी देने नहीं पहुंचा। अब सवाल उठ रहा है कि अगर गैरसैण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी जाती है तो वहां से ग्रीष्मकाल में सरकारी कामकाज चलाने के लिये समूचा सचिवालय जम्मू-कश्मीर की तरह देहरादून से गैरसैण पहुंचाना होगा ताकि प्रदेश का शासन कुछ महीनों तक देहरादून की जगह वहीं से चल सके और पिथौरागढ़ या जोशीमठ के लोगों का शासन सम्बन्धी काम देहरादून के बजाय भराड़ीसैण में ही हो सके। त्रिवेन्द्र सरकार इससे पहले रिस्पना को ऋषिपर्णा बनाने, पहाड़ पर चकबंदी कराने, कोटद्वार से कार्बेट नेशनल पार्क के बीचों बीच रामनगर तक कण्डी मार्ग बनाने, श्रीनगर मेडिकल कालेज को सेना को सौंपने, 100 दिन में लोकायुक्त का गठन करने और सवा लाख करोड़ निवेश के उद्योग लगवाने जैसी कई घोषणाएं कर चुकी है जो कि धरातल पर नहीं उतर सकी। दरअसल नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं को दबाने के लिये ही अचानक ग्रीष्मकालीन राजधानी का दांव चला था ।
उपराजधानियों की धारणा ही अव्यवहारिक
वर्तमान में पूर्ण राज्यों में महाराष्ट्र में मुम्बई के अलावा नागपुर में भी कुछ समय के लिये विधानसभा चलती है। इसी प्रकार हिमाचल की दूसरी राजधानी धर्मशाला है। यद्यपि पूर्ण विकसित धर्मशाला और नागपुर की तुलना अविकसित भराड़ीसैण से नहीं की जा सकती। फिर भी इन पूर्ण राज्यों की दूसरी राजधानियां मात्र कहने भर के लिये हैं। धर्मशाला में भी उत्तराखण्ड की तरह कुछ दिनों के लिये विधानसभा का शीतकालीन सत्र इसलिये चलता है क्योंकि उन दिनों शिमला अक्सर हिमाच्छादित या बहुत ही ठण्डा रहता है। जहां तक सवाल उप राजधानी नागपुर का है तो वह एक ऐतिहासिक शहर है जो कि भारत का तेरहवां सबसे बड़ा शहर है और वह मध्य प्रान्त तथा बेरार की राजधानीरह चुका है। फिर भी पूरी सुविधायें होते हुये भी महाराष्ट्र की सत्ता मुम्बई से ही चलती है। केवल बर्फबारी की मजबूरी के चलते जम्मू-कश्मीर में शीतकाल के दौरान पूरा शासन जम्मू से चलता है। गत विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह ने धर्मशाला में सचमुचच दूसरी राजधानी स्थापित करने का वायदा किया था मगर वह चुनाव ही हार गये।
भराड़ीसैण की तुलना नागपुर से नहीं हो सकती
उत्तराखण्ड की सरकार अगर भराड़ीसैण की तुलना नागपुर, जम्मू और धर्मशाला से कर रही है तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी में है या फिर जनमा को गफलत में डाल रही है। भराड़ीसैण में अब तक जितना निर्माण हुआ है उसी पर एनजीटी को ऐतराज है। भराड़ीसैण में बमुश्किल तीन -चार दिन चलने वाले विधानसभा के सत्र के लिये कर्मचारियों और अधिकारियों के लिये बिस्तर और कुर्सियां तक देहरादून जाती हैं । देहरादून से वहां सामान ढोने में और कुछ दिन के लिये राजनीतिक बारात ले जाने में सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं और नतीजा ढाक के तीन पात में है। वहां जाने के लिये सड़कें इतनी तंग हैं कि दो कारें भी हर जगह क्रास नहीं हो पाती। विपक्ष चाहे जितना भी चिल्लाये मगर भराड़ीसैण में रहना कोई नहीं चाहता। उत्तराखण्ड की और खास कर पहाड़ की जनता अधिकारियों और नेताओं की तफरीह के लिये नहीं बल्कि अपनी समस्याओं के निदान और विकास के लिये प्रदेश की सत्ता को पहाड़ में चाहती है। पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में कैबिनेट मंत्री इन्दिरा हृदयेश और हरक सिंह रावत गैरसैण की सोच को अव्यवहारिक कह गये थे। इस पर जब तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत से मीडिया ने स्थिति स्पष्ट करने को कहा तो उन्होंने कहा था कि ‘‘न खाता न बही जो हरीश रावत कहे वही सही’’ उनका अभिप्राय था कि जो मुख्यमंत्री कहे उसी को सही माना जाय। बाद में उनके इस वाक्य को दो टुकड़े कर राजधानी संदर्भ को हटा कर उन्हीं पर तंज के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा।
कांग्रेस बाजपेयी सरकार पर डाल सकती थी दबाव
उत्तराखण्ड भारत का पहला राज्य है जिसकी अभी तक राजधानी नहीं है। बिना राजधानी का प्रदेश बनाने के लिये कांग्रेसी सदैव भाजपा और बाजपेयी सरकार को दोषी मानते रहे हैं। लेकिन देखा जाय तो कांग्रेस भी उत्तराखण्ड के लोगों के साथ हुये इस अन्याय के दोष से नहीं बच सकती। इसकी वजह यह है कि उस समय की राजनीतिक स्थितियों और लोकसभा की दलीय स्थिति को देखते हुये बिना कांग्रेस के समर्थन के राज्य गठन के लिये उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक का पारित होना संभव नहीं था। जब विधेयक ही पास नहीं होता तो राज्य कैसे बनता? उस समय भाजपानीत एनडीए की कुल सदस्य संख्या 269 थी जो कि बहुमत से 4 कम थी। इनमें भी अकाली दल और एआइडीएमके जैसे दल राज्य गठन के विरोध में थे। बहुमत के लिये बाजपेयी सरकार को 29 सदस्यीय तेलगू देशम का समर्थन जुटाना पड़ा और वह दल भी नये राज्यों के गठन का विरोधी था। इस स्थिति में बाजपेयी सरकार को 114 सदस्यीय कांग्रेस का समर्थन मिल गया, जिससे विधेयक का पारित होना बहुत ही आसान हो गया। उस समय लोक सभा में भाजपा के 182 सदस्य थे। इस प्रकार दोनों बड़े दलों ने मिल कर अन्य दलों के विरोध की परवाह न करते हुये बिल पास कर दिया। पूर्व में ऐसी ही विपरीत परिस्थितियों के चलते देवगौड़ा और फिर गुजराल सरकार राज्य गठन का बिल पास नहीं करा सकी थी। ऐसी स्थिति में कांग्रेस चाहती तो बाजपेयी सरकार पर दबाव बना कर राजधानी का मसला हल करा देती जो उसने नहीं किया।
राजनीतिक संकीर्णताओं के कारण नहीं बनी स्थाई राजधानी
राज्य गठन के बीस साल बाद भी उत्तराखण्ड का राजकाज अस्थाई राजधानी के भारी बोझ तले दबे देहरादून से चलने एवं स्थाई राजधानी न मिल पाने का दोष राज्य का गठन करने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देना तो आसान है मगर सच्चाई यह है कि इस अनिर्णय और असमंजस के लिये कोई और नहीं बल्कि स्वयं उत्तराखण्ड का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार रहा है जो कि इस गंभीर मुद्दे पर न केवल सहूलियत की राजनीति करता रहा अपितु क्षेत्रवाद की संकीर्ण भावना से ग्रस्त रहा है। 1 अगस्त 2000 को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम बना और उत्तरांचल राज्य के गठन की संवैधानिक प्रकृया पूरी हुयी तो उस समय केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकारें होने के साथ ही उत्तराखण्ड क्षेत्र से भाजपा के 30 विधानसभा और विधान परिषद सदस्यों में से 23 सदस्य और लोकसभा के 5 में से 4 सदस्य थे। अधिनियम बनने के बाद तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पाण्डे ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव योगेन्द्र नारायण को पत्र लिख कर उनसे पूछा था कि नये राज्य की राजधानी कहां और कैसे बनायी जा रही है। उन्होंने राज्य के अस्तित्व में आने से पहले ही सरकार के मंत्रियों, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और नौकरशाहों के आवास एवं कार्यालयों की व्यवस्था करने के साथ ही हाइकोर्ट के स्थान के चयन की भी अपेक्षा की थी। पाण्डे के पत्र पर तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त ने 9 सितम्बर 2000 को सभी विधायकों एवं सांसदों की बैठक लखनऊ में बुलाई थी जिसमें गैरसैण का नाम तो किसी ने नहीं लिया मगर अपनी सुविधा का ध्यान रखते हुये अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र या निर्वाचन क्षेत्र के निकट राजधानी बनाने की राय लगभग सभी ने प्रकट की। पहाड़ के जनप्रतिनिधियों के एकराय न हो पाने के कारण देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल में जहां आवासीय एवं अन्य सुविधाएं पर्याप्त हों उस स्थान को राजधानी के लिये चिन्हित करने का सुझाव प्रशासन को दिया गया।
दीक्षित आयोग ने खोली राजनीतिक नेताओं की पोल
राज्य बनने के बाद लाखनऊ से सरकार देहरादून पहुंची तो स्थाई राजधानी के चयन की जिम्मेदारी एक बार फिर नये राज्य के राजनीतिक नेतृत्व पर आ गयी थी। नेता अपनी ढपली अपना राग अलापने लगे तो राजधानी चयन के लिये पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने दीक्षित आयोग का गठन कर अपने सिर की बला आयोग पर डाल दी। राजनीतिक नेता गैरसैण के बारे में कितने ईमान्दार हैं, वह दीक्षित आयोग की रिपोर्ट से ही पता चल जाता है। आयोग ने अखबारों में विज्ञापन देकर स्थाई राजधानी के लिये जब सुझाव मांगे तो 70 विधायकों, 5 लोकसभा और 3 राज्यसभा सदस्यों के अलावा कई दर्जन नगर निकायों में से केवल एक तत्कालीन सांसद एवं एक मंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष सहित 5 विधायकों ने स्थायी राजधानी स्थल के लिये आयोग को अपने सुझाव दिये थे। गैरसैंण को राजधानी बनाने की राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियो मे तत्कालीन विधायक बद्रीनाथ डा0 अनुसूया प्रसाद मैखुरी, विधायक थलीसैण गणेश प्रसाद गोदियाल, प्रमुख क्षेत्र पंचायत चौखुटियां (अल्मोड़ा) नन्दन सिंह सिरेजा थे। रामनगर काशीपुर कालागढ़ क्षेत्र के पक्ष मे राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियों में तत्कालीन पशुपालन, लघु उद्योग, खादी ग्रामोद्योग मंत्री (बाद में स्पीकर) गोविन्द सिंह कुंजवाल, नेता प्रतिपक्ष भगत सिंह कोश्यारी तथा विधायक काशीपुर हरभजन सिंह चीमा, अध्यक्ष नगर पालिका परिषद काशीपुर श्रीमति ऊषा चौधरी, आई.डी.पी.एल. ऋषिकेश की राय देने वालों मे तत्कालीन टिहरी सांसद मानवेन्द्र शाह, नगर पालिका अध्यक्ष ऋषिकेश दीप शर्मा तथा सदस्य जिला पंचायत नरेन्द्र नगर राजेन्द्र सिंह भण्डारी, तथा अन्य क्षेत्र के अन्तर्गत श्रीनगर की राय देने वालों में नगर पालिका अध्यक्ष श्रीनगर कृष्णा चन्द्र मैठानी तथा क्षेत्र पंचायत सदस्य ऊखीमठ कुंवर सिंह राणा शामिल हैं। कोश्यारी और कुंजवाल ने रामनगर के साथ ही गैरसैण का भी सुझाव दिया था।
jaysinghrawat@gmail.com
uttarakhandhimalaya.portal@gmail.com
मोबाइल-9412324999