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खटीमा से भड़की थी उत्तराखण्ड आन्दोलन में ज्वाला

जयसिंह रावत
हर साल जब 1 सितम्बर आता है तो उत्तराखण्ड के लोगों के दिलों में खटीमा काण्ड के जख्म ताजा हो जाते हैं और दूसरे ही दिन 2 सितम्बर को मसूरी काण्ड की यादें उन जख्मों पर ही जख्म कर उन यादों को बेहद पीड़ा दायक बना जाती हैं। इस बार दो सितम्बर को उत्तराखण्ड आन्दोलन के महान सेनानी रणजीत सिंह वर्मा का देहावासान उत्तराखण्डवासियों को और अधिक व्यथित कर गया। इन दोनों ही काण्डों से उत्तराखण्ड में सरकारी दमन की शुरुआत हुयी थी जिसे इलाहाबाद हाइकोर्ट ने सरकारी आतंकवाद कहा था। लगातार एक के बाद एक हुये इन दोनों काण्डों में 15 उत्तराखण्डी मारे गये थे और दर्जनों अन्य घायल हुये थे। उत्तर प्रदेश से अलग राज्य का सपना संजाये हुयेे इन शहीदों में केवल हिन्दू नहीं बल्कि मुसलमान और सिख भी शामिल थे। ये बात दीगर है कि इस आन्दोलन में लाठी गोली खाने के लिये रणजीत सिंह वर्मा जैसे जो लोग सबसे आगे थे वे राज्य प्राप्ति के बाद सत्ता सुख भोगने में सबसे पीछे चले गये और जो पीछे थे वे आगे आ गये। देश में अपनी तरह के इस पहले अहिंसक आन्दोलन की कोख से उत्तराखण्ड राज्य का जन्म तो हुआ ही साथ ही इसका लाभ झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के लोगों को भी मिला।

आरक्षण विरोध से भड़का था उत्तराखण्ड आन्दोलन

उत्तराखण्ड को उत्तर प्रदेश और उससे पहले संयुक्त प्रान्त से अलग प्रशासनिक इकाई बनाने की मांग तो सन् 1938 से की जा रही थी और आजादी के बाद समय-समय पर सड़क से लेकर संसद तक यह मांग बार-उठती भी रही, लेकिन इस मांग को अंजाम तक पहुंचाने के जनसंघर्ष की शुरुआत अलग राज्य के आन्दोलन से नहीं बल्कि आरक्षण विरोधी आन्दोलन से तब हुयी जब कि उत्तर प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव सरकार ने 17 जून, 1994 को मण्डल कमीशन की रिपोर्ट शिक्षण संस्थानों में लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी। इस अधिसूचना से उत्तराखण्ड में राजनैतिक भूचाल आना स्वाभाविक ही था, क्योंकि ओबीसी के लिये 27 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो रही थीं, जबकि उस समय उत्तराखण्ड में (हरिद्वार के बिना) ओबीसी की जनसंख्या लगभग 2 प्रतिशत अनुमानित थी। इस अधिसूचना से उत्तराखण्ड के छात्र एवं युवा बौखला उठे और उन्होंने जबरदस्त आन्दोलन छेड़ दिया। उत्तराखण्ड क्रांतिदल जैसे पृथक राज्य समर्थक इसी घड़ी का इंतजार कर रहे थे। उत्तर प्रदेश सरकार के आरक्षण सम्बन्धी निर्णय को उत्तराखण्ड में उपेक्षा की इन्तेहा माना गया और साथ ही उत्तरखण्ड वासियों की समझ में आ गया था कि उत्तर प्रदेश के साथ रहना अब संभव नहीं रह गया है। इसके विरोध में 2 अगस्त, 1994 को पौडी में, वयोवृद्ध नेता इन्द्रमणि बडोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन शुरू हुआ तो कुछ दिन बाद पुलिस ने उनके तंबू उखाड़ कर उन्हें बिशन सिंह परमार और दौलतराम पोखरियाल समेत जबरन उठा कर उत्तराखण्ड से बाहर मेरठ मेडिकल अस्पताल मंे हिरासत में भर्ती करा दिया। यहां से आरक्षण विरोधी आन्दोलन पूरी तरह पृथक राज्य के आन्दोलन में बदल गया और घटनाक्रम ऐसा शुरू हुआ कि समूचा पहाड़ आन्दोलन में कूद पड़ा।

खटीमा गोलीकाण्ड से शुरू हुआ राज्य प्रायोजित आतंकवाद

दरअसल उधमसिंहनगर जिले के खटीमा में स्थानीय पुलिस ने 1 सितम्बर से पहले क्षेत्र में घर-घर तलाशी के दौरान लोगों से अभद्रता करने के साथ ही कई युवाओं को अकारण हिरासम में लेकर उन्हें थाने में टार्चर करना शुरू कर दिया था जिसके विरोध में 1 सितम्बर 1994 को पूर्वाहन लगभग 11.10 बजे खटीमा पुलिस स्टेशन के सामने 10 से 15 हजार के करीब भीड़ एकत्र होकर पुलिस और प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करने लगी। जिस पर पुलिस ने अकारण गोलीबारी कर दी। इस घटना में 7 लोग मारे गये जिनकी लाशों को पुलिस ने अपने ढंग से ठिकाने लगाने के बाद मुश्किल से तीन लोगों के मरने की पुष्टि की तथा 4 अन्य को लापता बता कर मामला रफादफा करने का प्रयास कर दिया। पुलिस ने जिन तीन आन्दोलनकारियों के मारे जाने की पुष्टि की थी उनमें भगवान सिंह सिरौला, प्रताप सिंह एवं सलीम अहमद शामिल थे। इन तीनांे को पुलिस ने मृतक बताया उनकी को भी परिजनों को देने के बजाय उनका खटीमा से 10-15 किमी दूर मझोला में अंतिम संस्कार कर दिया। इनमें से दो हिन्दुओं को फंूका गया और एक अन्य मुस्लिम आन्दोनकारी के शव को मिट्टी में दबा दिया गया। शेष 4 अन्य की लाशों को पहले ही ठिकाने लगा दिया गया था इसलिये उनका पोस्टमार्टम तक नहीं हुआ। पहले लापता और फिर मृतक बताये गये आन्दोलनकारियों में धर्मानन्द भट्ट, गोपीचन्द, परमजीत सिंह, एवं रामलाल शामिल थे। इन चारों की मौत की पुष्टि बाद में सीबीआइ जांच में हुयी और अदालत में सरकारी वकील ने भी इन मौतों की पुष्टि की। इस पुलिस कार्रवाही में 250 से अधिक आन्दोलनकारी घायल हुये थे और लगभग 47 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर बराणसी आदि जेलों में भेज दिया था। इस प्रकार देखा जाय तो उत्तराखण्ड राज्य के सपने को साकार बनाने के लिये 1994 की जनक्रांति की नीव में हिन्दू, मुसलमान और सिख तीनों के लहू ने मजबूती प्रदान की थी और पृथक पहाड़ी राज्य के लिये भड़की जनक्रांति की मसाल पहाड़ से दूर मैदानी खटीमा से जल उठी थी।

खटीमा गोलीकाण्ड की गूंज मसूरी तक पहुंची

खटीमा में 1 सितम्बर गोलीकाण्ड की खबर जंगल की आग की तरह जब सारे उत्तराखण्ड में फैली तो लोग आग बबूला हो उठे। इसकी प्रतिकृया पहाड़ों की रानी मसूरी में भी होनी स्वाभाविक ही थी। लेकिन प्रशासन की नादानी और दमन की नीति के फलस्वरूप खटीमा गोलीकाण्ड के मात्र एक दिन के अन्तराल में मसूरी में भी गोलीकाण्ड हो गया जिसमें एक काबिल डीएसपी उमाकांत त्रिपाठी समेत 8 लोगों की मौत एवं दर्जनों अन्य घायल हो गये। त्रिपाठी गोलीबारी का विरोध कर रहे थे इसलिये पीएसी ने सबसे पहले उन्ही को गोली मार कर घायल किया। पुलिस ने बिना किसी वारण्ट और बिना किसी वैध कारण के 47 लोगों को गिरफ्तार कर लिया जिनमें नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष हुक्म सिंह पंवार एवं रिटायर्ड डीआइजी एस.पी. चमोली भी शामिल थे। इन गिरफ्तार लोगों को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने के बजाय बस में ठूंस कर बरेली जेल भेज दिया गया। रास्ते में उनके साथ मारपीट की गयी और भोजन तथा पानी भी नहीं दिया गया। वे दूसरे दिन 5 बजे सांय भूखे प्यासे बरेली जेल पहुंचे।

बंदूक की नोक पर कराये मजिस्ट्रेट से फायरिंग के आदेश

दरअसल खटीमा काण्ड के विरोध में 2 सितम्बर 1994 को आन्दोलनकारियों ने मसूरी बंद का आवाहन किया था। इस पर एस डी एम और थाना प्रभारी की एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया था कि मसूरी के नागरिकों की शांतिप्रिय प्रवृति को देखते हुये बंद के दौरान अतिरिक्त पुलिस बल भेजने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन प्रशासन के दुराग्रहपूर्ण रवैये के कारण उस रिपोर्ट की उपेक्षा कर मसूरी के थाना प्रभारी को 1 सितम्बर 1994 को बदल दिया गया और वहां पी ए सी और पुलिस की भारी मात्रा में तैनाती कर दी गयी। नये थाना प्रभारी ने मसूरी पहंुचते ही 2 सितम्बर 1994 की प्रातः झूलाघर स्थित धरना स्थल पहुंच कर 5 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर दानपात्र सहित कुछ अन्य सामान जब्त कर धरनास्थल खाली कर उस पर कब्जा कर दिया। इससे आन्दोलनकारी और अधिक आक्रोशित हो गये और हजारों की संख्या में मसूरीवासियों ने पुनः झूलाघर स्थित धरनास्थल पर कब्जा कर खटीमा गोली काण्ड के हताहतों के लिये श्रद्धाजलि सभा शुरू कर दी। उस समय मसूरी के डीएसपी उमाकांत त्रिपाठी झूलाघर को पुनः आन्दोलनकारियों को सौंपने को तैयार थे जबकि नया थानेदार इसके लिये तैयार नही हुआ। इसी दौरान अचानक पीएसी और पुलिस के जवानों ने बिल्डिंग को घेर कर एसडीएम की अनुमति के बिना अकारण ही जनता पर फायरिंग शुरू कर दी। इस गोलीबारी के लिये एसडीएम से भी बंदूक की नोक पर बाद में अनुमति ली गयी।

पुलिस ने पुलिस ने 6 आन्दोलनकारी मारे और डीएसपी को मरवाया

सीबीआइ द्वारा इलाहाबाद हाइकोर्ट में दाखिल जांच रिपोर्ट के अनुसार पुलिस ने मात्र 5 फुट की दूरी से श्रीमती हंसा धनाईं और श्रीमती बेलमती चौहान पर गोलियां बरसा दीं जिससे दोनों का भेजा फट कर बाहर निकल गया। इसी दौरान रायसिंह बंगारी, धनपत सिंह और मदन मोहन ममगाईं को भी गोलियां लगीं और उनकी मौत हो गयी। एक गढ़वाली कांस्टेबल ने बलबीर सिंह नेगी नाम के युवक के सीने में रायफल का बेनट घोंप दिया जिससे उसकी भी मौत हो गयी। राजेन्द्रसिंह नाम के एक एडवोकेट के सीने में गोली मारी गयी जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गया। फायरिंग के दौरान पुलिस लाठी चार्ज भी करती रही। पुलिस क्षेत्राधिकारी उमाकांत त्रिपाठी ने जब अपने हिंसा पर उतारू अपने लोगों को चिल्ला कर रोकने की कोशिश की तो उन पर भी .303 (थ्रीनॉट थ्री) रायफल से गोली चला दी गयी जिससे वह भी घायल हो गये। पुलिस ने अपने घायल डीएसपी को सुरक्षा में अलग उपचार कराने के बजाय अन्य घायल आन्दोलनकारियों के साथ ही आम आदमी की तरह जीपों में ठूंस कर उन्हें अस्पताल भेज दिया जहां आक्रोशित लोगों ने पुलिस की वर्दी में एक घायल को देख कर गलतफहमी में उसे अस्पताल से बाहर फेंक कर मौत के घाट उतार दिया।

खटीमा-मसूरी गोली काण्डों ने आग में घी का काम किया

खटीमा और मसूरी गोली काण्डों ने उत्तराखण्ड आन्दोलन में आग में घी का काम किया और गांव-गांव में लोग उद्वेलित हो उठे और दशकों से सुलग रही असन्तोष की आग जबरदस्त दवानल में बदल गयी। इसके बाद सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊ के आवाल, वृद्ध वनिता पृथक राज्य की मांग के लिए वलिदान देने हेतु आन्दालन में कूद पड़े। भारत में नब्बे के दशक के उत्तराखण्ड आन्दोलन के जैसा दूसरा उदाहरण कोई नहीं है जिसमें लोग अलग देश के लिये नहीं बल्कि भारत के प्रति पूर्ण आस्था के साथ उत्तर प्रदेश से अलग नये पहाड़ी प्रदेश के लिये अपनी जान तक देने के लिये पुलिस की लाठी गोलियों के आगे खड़े हुयेे। इसी के बाद 2 अक्टूबर को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर प्रशासन और पुलिस ने ऐसा काण्ड किया जिसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं शायद ही मिले। क्योंकि पुलिस ने न केवल कई आन्दोलनकारियों को मौत के घाट उतारा बल्कि हजारों लोगों की मौजूदगी में रात के अंधेरे में कई आन्दोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार करने के साथ बेहद बहशियना ढंग से उनकी लज्जाभंग की। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने आन्दोलन के दौरान सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही को राज्य प्रायोजित आतंकवाद की संज्ञा दी। बहरहाल राज्य का गठन तो हो गया मगर राज्य आन्दोलन में रणजीतसिंह वर्मा जैसे लोग जो सबसे आगे लाठी डण्डे और गोलियां खा रहे थे वे राज्य बनने के बाद नेपथ्य में चले गये और जिनकी भूमिका नकारात्मक या नगण्य थी वे सत्ता में आ गये। रणजीत सिंह वर्मा का ठीक 2 सितम्बर को देह त्यागना भी उत्तराखण्डियों को आहत कर गया। इस आन्दोलन का लाभ छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के लोगों को भी मिला।

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