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मुद्दा उत्तराखंडियों की सांस्कृतिक पहचान का : सच अच्छा, सच के लिए कोई और लड़े, ये और अच्छा…

-दिनेश शास्त्री-
उत्तराखंड में मूल निवास और सशक्त भू कानून समन्वय संघर्ष समिति के आंदोलन को देखते हुए राज्य सरकार ने आंदोलन की गर्मी थामने के लिए फौरी तौर पर जो उपाय किया है, वह सरकार को बेशक तात्कालिक राहत दे सकता हो किंतु चिंगारी अंडर ग्राउंड करंट की तरह भड़कती ही जा रही है। इस चिंगारी को हवा दी है गढ़ गौरव नरेंद्र सिंह नेगी ने।
श्री नेगी ने मूल निवास भू कानून समन्वय संघर्ष समिति के आंदोलन का समर्थन कर राज्य सरकार के सामने चुनौती खड़ी की है। यह आंदोलन ऐसे समय हो रहा है जब राज्य सरकार ग्लोबल इन्वेस्टर समिट की उपलब्धियों से फूली नहीं समा रही है। टारगेट ढाई लाख करोड़ रुपए निवेश का था जबकि एम ओ यू हो गए साढ़े तीन लाख करोड़ के। इसका चौथाई भी अगर धरातल पर उतरा तो राज्य की आर्थिकी को पंख लगते देर नहीं लगेगी। बात घूम फिर कर आ जाती है जमीन पर, जिसके लिए गढ़वाल हो या कुमाऊं, तमाम ठाकुरी राजा जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे। इसी जमीन के लिए मरे खपे लेकिन जद्दोजहद नहीं छोड़ी।
सन् 1512 में महाप्रतापी राजा अजय पाल ने सारे गढ़ों को मिला कर एकछत्र राज्य किया तो एक कफ्फू चौहान को छोड़ कर बाकी सबने अपनी अस्मिता गढ़वाल राज्य में समाहित कर दी थी लेकिन इस विशिष्ट भू भाग का गौरव, अस्मिता, पहचान और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने की जद्दोजहद से शायद सरकार को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आखिर उत्तराखंड का मूल समाज जनजातीय चरित्र का है, उसके अपने विशिष्ट रीतिरिवाज हैं, अपना अलग खानपान, अपने मूल्य, परंपराएं और रहन सहन हैं, इसीलिए तो पृथक राज्य आंदोलन में धारा 371 की मांग हुई थी और यह मांग किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि समूचे उत्तराखंडी समाज की थी। आज लोकतंत्र मौजूद है तो उसका अर्थ लोगों की भावना की कद्र करना भी होता है और मूल निवास तथा सशक्त भू कानून के लिए नरेंद्र सिंह नेगी जैसे लोग उठ खड़े हुए हैं तो मांग के औचित्य को समझा जाना चाहिए। संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी इस अभियान के महज प्रतीक हैं, मांग तो यह पूरे उत्तराखंड की है और जिस तरह से पूर्व सैनिक तथा मूल निवासी एकजुट हो रहे हैं तो उसके पीछे वही भावना है जो राज्य निर्माण आंदोलन के समय थी।
इस बीच उत्तराखंड सरकार द्वारा आदेश पारित किया गया है कि मूल निवास प्रमाण पत्र धारकों को स्थाई निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के लिए विभाग अब बाध्य नहीं कर पाएंगे। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के निर्देशों के बाद शासन ने बुधवार को इस संबंध में आदेश जारी किए हैं कि उक्त आदेशों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए। किंतु यह महज आग पर पानी डालने का प्रयास माना जा रहा है। आंदोलनकारियों की यह मांग है ही नहीं। वे अपनी पहचान के लिए लड़ रहे हैं। सवाल उत्तराखंडियत का है लेकिन वह उत्तराखंडियत नहीं जो एक पूर्व सीएम अक्सर कहते हैं बल्कि मामला जल जंगल जमीन का है।
कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि यह कोशिश समाज को कूप मंडुक बनाने का प्रयास है। उनकी दलील है कि उत्तराखंड का विशेष आवरण त्याग कर ही कोई एच एन बहुगुणा बनता है, कोई बिपिन रावत पैदा होता है, कोई एन डी तिवारी या कोई अन्य बड़ा आदमी बनता है, इसको संकुचित करने से तो कुएं से बाहर नहीं देख पाएंगे। उन लोगों को पड़ोसी हिमाचल प्रदेश घूम आना चाहिए, जहां न जनसांख्यिकी बदली है न लोगों की संस्कृति और बदले में उनका न सिर्फ स्वाभिमान चरम पर है बल्कि आत्मनिर्भरता भी है। उत्तराखंड के लोग भी कर्म कौशल की दृष्टि से कहीं कमजोर नहीं हैं, वे आत्मनिर्भरता के मामले में हिमाचल को पीछे छोड़ सकते हैं। उद्योग लगाने में वे भी पीछे नहीं हैं, किंतु आपनी शर्तों पर। वहां जमीन बेची नहीं जाती, लीज पर दी जाती है। इस कारण बाहरी लोगों का हस्तक्षेप कम से कम है और यही उत्तराखंड के लोग पिछली शताब्दी से मांगते आ रहे हैं। इसमें न तो कोई राजद्रोह है और न ही कोई तंग नजरिया। सरकार को तो इस मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए था।
जिस तरह से 2022 के विधानसभा चुनाव में सशक्त भू कानून और यू सी सी की बात हुई थी, उसी पर तो लोगों ने भरोसा किया था, अब मूल निवास और स्थाई निवास की बात कह कर कौन भटकाना चाह रहा है? इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकते हैं। सच तो यह है कि उत्तराखंड में बड़े व्यक्तित्व अनेक हुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई परमार नहीं हो पाया, जिसने हिमालयी राज्य की अस्मिता, पहचान, संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का मंत्र दिया। मौजूदा सरकार के पास भी यह मौका है कि वह अपनी इच्छाशक्ति से जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर इतिहास बनाए किंतु समस्या यह है कि भगत सिंह की जरूरत तो सभी महसूस करते हैं किंतु चाहते यह हैं कि वह पड़ोस में पैदा हो। तभी इब्ने इन्सा की यह पंक्तियां उभरती हैं – सच अच्छा, सच के लिए कोई और लड़े ये और अच्छा।

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