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धामी के रोड़े, मिथक ही मिथक -मुख्यमंत्रियों की हार भी एक मिथक

जयसिंह रावत

आसन्न विधानसभा चुनाव में उत्तराखण्ड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के समक्ष दो मारक मिथकों को तोड़ने की गंभीर चुनौती आन पड़ी है। मिथक तोड़ने की पहली चुनौती राज्य में एण्टी इन्कम्बेंसी के कारण सत्ताधारी दल की हार और विपक्ष की सत्ता में वापसी की है और दूसरी चुनौती स्वयं मुख्यमंत्रियों के चुनाव हारने के मिथक की है। अब तक राज्य में हुये चार चुनावों में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं। अगर यही मिथक नहीं टूटा तो इस बार सत्ता में कांग्रेस की बारी है। चार चुनावों में दो बार चुनाव अभियान का नेतृत्व तत्कालीन मुख्यमंत्रियों ने किया और दोनों ही बार उनकी पार्टियां भी हारीं और वे स्वयं भी हारे। मुख्यमंत्रियों को हराने वाला उत्तराखण्ड तीसरा राज्य बना था और लगातार हराने वाला देश का पहला राज्य है बना।

शिक्षा मंत्री रहते हुये कोई नेता अब तक चुनाव नहीं जीता

उत्तरकाशी जिले की गंगोत्री विधानसभा सीट का है जिसके बारे में लोक धारणा है कि जो भी प्रत्याशी इस सीट पर चुनाव जीतता है उसी के दल की सरकार राज्य में बनती है। इसी मिथक से बशीभूत आम आदमी पार्टी ने तो अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार कर्नल कोठियाल को इसी सीट पर उतार दिया है जबकि कर्नल कोठियाल की जीत के साथ ही आप पार्टी की राज्य में सरकार बन जाय। इसी तरह बदरीनाथ और श्रीनगर सीट पर भी मिथक हैं जबकि कुमाऊं में रानीखेत ऐसी सीट है जहां से जीतने वाले प्रत्याशी की पार्टी अब तक विपक्ष में ही बैठती आयी है। इसे रोचक संयोग ही कहा जा सकता है कि शिक्षा मंत्री रहते हुये कोई नेता अब तक चुनाव नहीं जीता है। प्रदेश में एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा की सरकार बनने का क्रम भी अब तक चला आ रहा है।

पहले ही चुनाव में पहले मुख्यमंत्री की हार

नवम्बर 2000 में जब उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुआ तो नये प्रदेश की शासन व्यवस्था चलाने के लिये अंतरिम विधानसभा और अंतरिम सरकार बनायी गयी। अंतरिम विधानसभा में उत्तराखण्ड से उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद के 30 सदस्यों को शामिल किया गया। उस समय के अंतरिम मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी 2002 का विधानसभा चुनाव कपकोट सीट से तो जीत गये मगर उनकी पार्टी चुनाव हार गयी और साथ ही प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी पहले विधानसभा चुनाव में देहरादून की लक्ष्मण चौक सीट से हार गये। भाजपा के वरिष्ठतम् नेता और पूर्व मंत्री केदारसिंह रावत ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि उस समय कोश्यारी के अलावा मुख्यमंत्री पद के समस्त दावेदार नित्यानन्द स्वामी, रमेश पोखरियाल निशंक और वह स्वयं चुनाव हार गये थे।

खण्डूड़ी चुनाव हारने वाले देश की तीसरे मुख्यमंत्री

राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी तो 2007 में हुये दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा की सरकार बन गयी। इस सरकार के मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने भारी मतों से धूमाकोट सीट से उप चुनाव जरूर जीता मगर वह पौड़ी गढ़वाल की कोटद्वार सीट पर कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी से 4,623 मतों से हार गये। उनके साथ ही भाजपा भी सरकार बनाने से चूक गयी। देश में मुख्यमंत्री रहते हुये चुनाव हारने वाले भुवनचन्द्र खण्डूड़ी तीसरे नेता थे। उनसे पहले 1971 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की मनीराम सीट पर त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री रहते हुये रामकृष्ण द्विवेदी से और 2009 में सिब्बू सोरेन मुख्यमंत्री रहते हुये झारखण्ड की तमार सीट पर गोपाल कृष्ण पतार से चुनाव हार गये थे।

उत्तराखण्ड लगातार मुख्यमंत्री हराने वाला पहला राज्य

उत्तराखण्ड में भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के बाद मुख्यमंत्री रहते हुये हार का सिलसिला हरीश रावत ने 2017 में जारी रखा। वह एक से नहीं बल्कि दोनों सीटों से चुनाव हार गये। उन्हें हरिद्वार ग्रामीण से भाजपा के यतीश्वरानन्द ने 12,278 मतों से तथा उधमसिंहनगर की किच्छा सीट पर राजेश शुक्ला ने 2,127 मतों से पराजित किया। इसी वर्ष गोवा के लक्ष्मीकान्त पारसेकर मुख्यमंत्री रहते हुये हारने वाले देश के पांचवें मुख्यमंत्री बने। उन्हें कांग्रेस के दयानन्द सोप्ते ने मान्द्रेम सीट पर 7,119 मतों से हराया था।

धामी के सिर अपना भी और पार्टी का भी खतरा

चूंकि उत्तराखण्ड के दूसरे विधानसभा चुनाव में पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी चुनाव ही नहीं लड़े थे। इसलिये उनकी हार का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन उसके बाद मुख्यमंत्री निरन्तर 2012 और 2017 में हारते रहे। अब अगला चुनाव सिर पर है। प्रदेश की नजर उधमसिंहनगर की खटीमा सीट पर लगी हुयी है। इस सीट पर मुख्यमंत्री धामी का मुकाबला कांग्रेस के भुवनचन्द्र कापड़ी पर है। इन दोनों का मुकाबला 2017 में भी इस सीट पर हो चुका था। उस चुनाव में भयंकर मोदी लहर के बावजूद भुवनचन्द्र कापड़ी केवल 2,709 मतों से हारे थे।

खटीमा में किसी की भी जीत सुनिश्चित नहीं

खटीमा सीट पर दोनों प्रतिद्वन्दी प्रत्याशियों के पक्ष और विपक्ष में समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं। दोनों प्रतिद्वन्दियों में एक के नकारात्मक समीकरण दूसरे के लिये सकारात्मक बने हुये हैं। धामी को एण्टी इनकम्बेंसी और हार का मिथक सता रहा है तो हाल के कुछ महीनों में उन्होंने जो लगभग 400 करोड़ की योजनाओं की घोषणाएं कीं वे उनकी चुनावी संभावनाओं को बढ़ाती हैं। उनके पक्ष में उनका मुख्यमंत्री का होना भी है। धामी का व्यवहार कुशल होना भी उनके हित में ही है। लेकिन किसान आन्दोलन और खास कर सिखों की नाराजगी उनको भारी पड़ सकती है। इसीलिये कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गये थे। उनको सबसे बड़ा खतरा अपने ही दल के भीतरघातियों से हो सकता है। उनकी कम उम्र के कारण उन्हें राजनीति में लम्बी रेस का घोड़ा माना जा सकता है बशर्ते पार्टी के अन्य दावेदार धामी का यह अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न होने दें! किसानों और सिखों की नाराजगी के बीच आप पार्टी का प्रत्याशी धामी के लिये मददगार हो सकता है। इस सीट पर लगभग 40 प्रतिशत पहाड़ी वोटर हैं जो कि पिथौरागढ़, मुन्स्यारी, लोहाघाट, चंपावत इलाके से आकर तराई में बसे हुये हैं। जबकि शेष 60 प्रतिशत वोटर थारू, सिख, बंगाली और मुसलमान है।

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