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पलायन की मार्मिक दास्तानः अजय जब योगी आदित्यनाथ बन कर पहुंचे मां के पास

पलायन की मार्मिक दास्तानः अजय जब योगी आदित्यनाथ बनकर पहुंचे मां के पास

Jay singh Rawat
जयसिंह रावत
Updated Thu, 26 May 2022 11:28 AM IST
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी मां के साथ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी मां के साथ – फोटो : जयसिंह रावत

हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने जन्म स्थान पंचूर में माता का आशीर्वाद लेने पहुंचे थे। यहां पहुंचकर योगी आदित्यनाथ ने सदियों पहले सन्यासी बने राजा गोपीचन्द के लुप्त हो रहे भजन को पुनर्जीवित करने के साथ ही पहाड़ के पलायन की अनेकों मार्मिक दास्तानों की याद दिला गए। कभी पहाड़ों में गोपीचन्द का भजन खूब गाया जाता था। विख्यात लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने भी इस भजन को आवाज देकर इसे संरक्षित करने का प्रयास किया है।पहाड़ के कुछ अन्य लोक गायकों और संन्यासियों ने भी इसे गाकर रिकॉर्ड किया है। बाल्यकाल में हमने भी इस भजन को खूब सुना और गुनगुनाया। पहाड़ों में संन्यास लेने के पीछे कई मार्मिक किस्से हैं, जिनमें एक किस्सा अजय मोहन (योगी आदित्यनाथ) का है तो एक रामी बौराणी का भी है।

अजय मोहन के माता पिता ने भी कभी नहीं चाहा होगा कि उनका बेटा योगी आदित्यनाथ बने। लेकिन मामा महंत अवैद्य नाथ की नजरों से भांजे अजय के अंदर का बैरागी छिप न सका और वह अजय को योगी आदित्यनाथ बनाने अपने साथ गोरखपुर ले गए।

अजय की तरह पहाड़ों से हजारों बच्चे और किशोर गए जिनमें से कई लौटे तो कई फिर कभी नहीं लौट पाए। कुछ जोगी बनकर तो कुछ मालोमाल और विख्यात बनकर तो कुछ फटेहाल और बीमारी लेकर लौटे। गोर्ख्याणी के क्रूर काल में तो 2 लाख लोग हरिद्वार की हरि की पैड़ी पर बिके थे। जिनमें से अधिकांश बच्चे और किशोर थे। ऐसा ही एक बिका हुआ बालक बदरी प्रसाद बमोला भी था।

गोपीचन्द ने भी अजय की तरह गोरख पंथ अपनाया

दरअसल, गोपीचन्द का उत्तराखण्ड से कोई संबंध नहीं था।  गोपीचन्द प्राचीन काल में रंगपुर (बंगाल) के राजा थे। वह भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र माने जाते हैं। इन्होंने अपनी माता से उपदेश पाकर अपना राज्य छोड़ा और वैराग्य लिया था। कहा जाता है कि वह गोरखनाथ के शिष्य हुए थे और त्यागी होने पर इन्होंने अपनी पत्नी पाटमदेवी से, महल में जाकर भिक्षा मांगी थी। अजय मोहन ने भी अपनी माता के बजाय मामा से दीक्षा ली थी और उन्होंने भी गोपीचन्द की तरह गोरख पंथ अपनाया था।

पहाड़ के नौकर और कुत्ते सबसे वफादार  

अब सवाल उठता है कि जब गोपीचन्द का उत्तराखण्ड से कोई सम्बन्ध नहीं था तो उनका भजन गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक इतना क्यों गाया जाता था? दरअसल यह भजन पहाड़ के पलायन का एक बहुत ही मार्मिक पहलू बयां करता है। पहाड़ के बच्चे बचपन में ही रोजगार की तलाश में मैदान आ जाते थे। कुछ बच्चे पहाड़ों से दूर एक नई दुनिया का सपना लेकर भाग कर दूर मैदानी क्षेत्रों में आ जाते थे। इनमें कुछ बच्चे मैदानी नगरों में घरेलू नौकर तो कुछ छोटे-छोटे होटल रेस्तरां में बर्तन धोने की नौकरी कर लेते थे। उस समय कहा जाता था कि पहाड़ का नौकर और पहाड़ का भोटिया कुत्ता बहुत वफादार होता है। इसलिए मैदान में आजीविका कमा रहे लोग जब अपने गांव लौटते थे तो उनसे सम्पन्न लोग पहाड़ से नौकर या कुत्ता लाने की फरमाइश करते थे और फरमाइ पूरी हो जाती थी।

गढ़वाल का विख्यात रामी बौराणी गीत और नाटक उस जमाने के पलायन का आईना है।
गढ़वाल का विख्यात रामी बौराणी गीत और नाटक उस जमाने के पलायन का आईना है। – फोटो : जयसिंह रावत

रामी बौराणी की लोक कथा भी पलायन का संन्यास पक्ष  

पहाड़ से आने वाले बच्चों में से कुछ तो मैदानों में धक्के खाकर कुछ ही समय बाद लौट आते थे तो कुछ दशकों बाद अपने बाल बच्चों समेत या अकेले गांव लौटते थे। कुछ साधारण हालत में तो कुछ सम्पन्न व्यवसायी या नौकरी पेशा के तौर पर लौटते थे। कुछ बच्चे एक बार गये तो फिर कभी नहीं लौटे। कुछ ऐसे भी होते थे जो आदित्यनाथ की तरह जोगी बन कर कभी कभार लौटते थे जिन्हें माता पिता तक नहीं पहचान पाते थे।

गढ़वाल का विख्यात रामी बौराणी गीत और नाटक उस जमाने के पलायन का आईना है। इस नाटक में एक पति पूरे 12 साल बाद साधू वेश में अपने गांव आता है तो उसकी पत्नी रामी उसे नहीं पहचान पाती है। रामी बौराणी की यह लोक कथा पहाड़ी नारी के स्त्रित्व और पति के प्रति बफादारी की एक मिसाल भी है। जो कि 12 साल तक पति की प्रतीक्षा करने के बाद भी परपुरुष की छाया भी सहन नहीं करती।

यह विडम्बना ही है कि पहाड़ छोड़ कर मैदान आये कुछ लोगों ने अपनी नई गृहस्थी बसा दी और पहाड़ी गांव में रह रही पत्नी को जीतेजी विधवा की तरह जीने को मजबूर कर दिया। इस वर्ग में कई राजनेता गिनाये जा सकते हैं, जिनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर के नोता भी रहे।

पहाड़ के भागे हुए बच्चे विख्यात बन कर भी लौटे 
पहाड़ों से दूर नई दुनिया की कल्पना लेकर पहाड़ से भागे हुए कुछ बच्चों ने बहुत तरक्की कर मिसाल भी पेश की जिनमें बदरी प्रसाद बमोला भी एक थे।
डॉ. योगेश धस्माना के अनुसार-
बद्री प्रसाद एकमात्र शर्त बंद कुली थे जिन्होंने 1890 से लेकर 1894 तक स्वयं मजदूरी की। एक बंधुआ मजदूर के रुप में कार्य करने वाले बदरी प्रसाद बमोला रुद्रप्रयाग के ऐसे अज्ञात पहाड़ी व्यक्ति थे जिन्होंने फिजी में गन्ने की खेती में लगे भारतवर्षीय लोगों को न सिर्फ अंग्रेजों की बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया बल्कि फिजी में एक सशक्त राजनीतिक दल का गठन कर उसका नेतृत्व भी किया और स्वयं भी संसद में पहुंचकर प्रतिपक्ष के नेता के पद को सुशोभित किया। उस जमाने में फौज में भर्ती होने के शैक्षिक योग्यता के बजाय शरीर शोष्टव और युद्ध में जाने का हौसला देखा जाता था, इसलिए घर से भागे हुए पहाड़ी बच्चे किशोरावस्था पार करने के बाद लैंसडौन और रानीखेत पहुंच कर भर्ती हो जाते थे और फिर सैनिक के रूप में घर पहुंचते थे। कुछ बच्चे कोटद्वार, रामनगर और हल्द्वानी में बसों और ट्रकों में क्लनरी करने के बाद ड्राइवर बन कर घर लौटते थे।
सन्यासी बन कर लौटे बेटे को माता भी नहीं पहचान पाती थी 

जब बच्चा जवान होकर घर लौटे तो उसे पहचानना आसान नहीं होता। खास कर साधू वेश में लौटे सख्श को पहचानना तो लगभग नामुमकिन ही है, इसीलिए कई बार कुछ ठग साधू वेशधारी दशकों पहले घर से भागे हुए बच्चे के घर पहुंच कर उनकी भावनाओं का दोहन भी करते थे। कोई भी सामान्य व्यक्ति साधरणतः सन्यासी नहीं बनता। योगी आदित्यनाथ की तरह बाल बैरागी बहुत कम होते हैं। लेकिन ज्यादातर मजबूरी में सन्यास धारण करने को विवश हो जाते हैं।

महिला सन्यासिनों की कहानिया ंतो और भी अधिक दारुण होती है। इसलिये बारह बरसों बाद अजय मोहन की तरह कोई सन्यासी अपनी मां के पास पहुंच जाय तो वे अत्यंत मार्मिक क्षण होते हैं। काश हर पहाड़ी ब्वे (मां) और ईजा का लाडला अजय मोहन की तरह विख्यात आदित्यनाथ बन कर लौटता!

(अमर उजाला ( अभिमत )26  मई 2022   से साभार )

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