सिस्टम को शायद ही शर्म आए, पहाड़ी की जान तो आज भी भगवान के भरोसे
–दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड के पहाड़ और पहाड़ी दोनों कराह रहे हैं लेकिन सिस्टम है कि बदलाव के लिए तैयार नहीं है। पृथक राज्य बनने के बाद यह बेशर्मी ज्यादा ही गंभीर हो चली है। उत्तर प्रदेश के जमाने में न जाने क्यों हुक्मरान पहाड़ियों के प्रति नरम दिखते तो थे, आज लगता है सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं। 1994 के काले अध्याय और नौकरियों में उपेक्षा को छोड़ दें तो बाकी मामलों में सिस्टम न्याय करता दिखता था। लेकिन बीते 22 वर्षों में जो आलम सामने है, वह सिर्फ और सिर्फ निराश ही करता है। आप खुद आकलन कीजिए 22 साल पहले पहाड़ में जो डॉक्टर होते थे, वे बेशक पोस्टिंग, प्रमोशन या पनिशमेंट के नाते पहाड़ आते हों वे बेशक गुड़ न दे सकते हों किंतु गुड़ जैसी बात करके पीड़ित का आधा दर्द जरूर दूर कर देते थे, आज ऐसा क्या हो गया कि पहाड़ी समाज गुड़ जैसी बात सुनने के लिए भी तरस गया।
राजनीतिक विरादरी के लोगों को अगर छींक भी आ जाय तो उनके लिए हर समय वायुयान तैयार रहता है और उन्हें तत्काल देश या विदेश के बड़े से बड़े अस्पताल पंहुचा दिया जाता है। उस विरादरी के लोगों के लिए दुनिया के अस्पताल विश्व गांव के अस्पताल की तरह होते है. लेकिन आम आदमी के लिए अस्पताल आज भी सरकार जितनी दूर बना हुआ है।
आज आपको एक घटना बता रहा हूं, गुप्तकाशी में विनीता नौटियाल पत्नी प्रमोद तीन दिन पूर्व बंदरों के हमले में घायल हो गई। विनीता अपने खेत में घास काटने गई थी लेकिन बंदरों के झुंड ने ऐसा हमला किया कि आज वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। बंदरों के हमले में बुरी तरह जख्मी विनीता को तत्काल गुप्तकाशी के सरकारी अस्पताल में ले जाया गया।वहां डाक्टरों ने सुविधा न होने की बात कह कर रुद्रप्रयाग रेफर कर दिया। याद रखिए रुद्रप्रयाग में जिला अस्पताल है और वहां भी डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर श्रीनगर बेस अस्पताल रेफर दिया। बेस अस्पताल स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में कितना सुदृढ़ है, यह इस बात से पता चल जाता है कि वहां से भी पीड़िता को ऋषिकेश एम्स रेफर कर दिया। विनीता करीब 30 घंटे तक विभिन्न अस्पतालों के धक्के खाने के बाद एम्स पहुचाई गई है। वहां उसे आईसीयू में भर्ती कर दिया गया है। यदि उसे रुद्रप्रयाग या श्रीनगर में इलाज मिल जाता तो शायद अब तक कुछ सुधार हो गया होता। विनीता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि ऋषिकेश एम्स का खर्च उठा सके। उसे तो परिजनों ने पैसे एकत्रित कर जैसे तैसे ऋषिकेश तक पहुंचाया है।
यह स्थिति तब है जब हम बहुत ऊंचे स्वर में लगातार सुनते आ रहे हैं कि 2025 तक उत्तराखंड देश के आदर्श राज्य में गिना जाएगा। निसंदेह सपना तो अच्छा है। सुनने में तो और भी अच्छा है लेकिन जमीनी हकीकत जो बयान कर रही है, उससे मुंह मोड़ने की महारत हमारे सिस्टम के पास जरूर है। आश्चर्य नहीं होगा, कल यह सुनने को मिल जाए कि इस मामले में आदर्श राज्य बनाने की बात नहीं कही थी। आदर्श राज्य तो अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के बारे में हुई थी।
एक और घटना आपको बता दूं, करीब डेढ़ महीने पहले गुप्तकाशी के पास ही अंद्रवाडी गांव में भी श्रीमती इंदु सेमवाल को भी बंदरों ने हमला कर घायल कर दिया था। उन्हें भी अस्पताल की शरण लेनी पड़ी थी। यह शिकायत तो सीएम हेल्पलाइन तक दर्ज है। अब एक और घटना पर आपका ध्यान जाना जरूरी है। अभी हाल में उत्तरकाशी जिले के मोरी ब्लॉक के सरनौल गांव की एक प्रसूता की जिस लापरवाही से मौत हुई, उस घटना को सहज भुलाना आसान नहीं है। एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल रेफर करते करते आखिर प्रसूता और उसके बच्चे की मौत हो गई। यह अकेली घटना नहीं है। पिछले सवा साल के दौरान अकेले यमुना घाटी में इस तरह की करीब एक दर्जन घटनाएं सामने आ चुकी हैं। ज्यादा दूर क्यों जाएं मुख्यमंत्री के पुराने निर्वाचन क्षेत्र खटीमा की उस महिला का प्रकरण याद हैं न आपको, जिसे हल्द्वानी के अस्पताल ने भर्ती करने से इनकार कर दिया था, और अस्पताल के गेट पर ही महिला का प्रसव हो गया था। ऐसी घटनाएं पिछले 22 वर्षों में सैकड़ों में नहीं बल्कि हजारों में हुई है।
यहां गौर करने की बात यह है कि पहाड़ों से पलायन रोकने के नाम पर खूब गाल बजाए जा रहे हैं। इस नाम पर बजट में कुछ रकम भी रखी गई है लेकिन जब पहाड़ में जीवन ही सुरक्षित नहीं है तो साहब पलायन कैसे रोकोगे? इस पहेली को हमें भी समझा देते तो एहसान ही होगा।
लाख टके का सवाल यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर बेस हॉस्पिटल तक जब मरीजों को सिर्फ और सिर्फ रेफर ही किया जाना है तो महकमे में लम्बी चौड़ी फौज क्यों रखी है? आज जो मौजूदा स्थिति है उसे देख कर यही निष्कर्ष निकलता है कि पृथक राज्य गठन के बावजूद हालत पहले से ज्यादा खराब हैं। कम से कम स्वास्थ्य सेवा के मामले में इस बात को बिना किसी लाग लपेट के कहा जा सकता है। इन हालत में क्या आपको लगता है कि 2025 तक उत्तराखंड देश के आदर्श राज्य में शुमार हो सकेगा? यह बात 2024 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में अगर है तो लोग पहले भी भगवान भरोसे थे और आज भी। सुन रहे हो न सरकार! आपसे ही बात हो रही है। सपने तो स्वस्थ, सुंदर, शिक्षित उत्तराखंड के देखे थे, तभी अबाल वृद्ध आंदोलन में शरीक भी हुए थे, लेकिन जो आपने दिया, उसकी कल्पना तो किसी ने नहीं की थी और न ही इस स्थिति के लिए उत्तराखंड मांगा गया था।
वन्यजीवों के प्रति अगाध प्रेम दिखा रही व्यवस्था ने जिस तरह से पहाड़ के आम आदमी को हाशिए पर धकेला है, वह मर्माहत करने वाली नहीं तो क्या है? स्वास्थ्य मंत्री जी यही बता देते तो सब्र किया जा सकता था। आखिर आम लोगों से वसूले गए पैसे से ही तो सरकार चलती है न? अगर महकमे की फौज पालने के लिए लोग क्यों कीमत चुकाएं? यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए।
आप इस बारे में क्या राय रखते हैं, कृपया जरूर अपनी बात रखें, शायद सिस्टम को शर्म आ जाए, वैसे इस बात की उम्मीद कम ही है। भगवान भरोसे छोड़ दिए गए लोगों पर भगवान ही रहम कर सकते हैं, सरकार से तो उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए। आज पहाड़ की हालत यह है कि दिन में बंदर जीने नहीं दे रहे हैं, रात में सुअर फसलों को चौपट कर रहे हैं, कुछ इलाकों में बाघ के हमले हो रहे हैं तो कहीं भालू नोच रहा है। सरकार को अगर इस बात की चिंता होती तो शायद दफ्तरों में बैठ कर पलायन पर चिंता दिखाने के बजाय वास्तव में वन्यजीवों से लोगों की सुरक्षा का इंतजाम करती लेकिन यह तो तिमला के फूल हैं, जिन्हें देख पाना संभव नहीं है। और अंत में आपसे ही मुखातिब होना ठीक रहेगा, आप नागनाथ पालें या सांपनाथ, दंश आपको ही झेलना है और अपना जीवन भी आपको ही बचाना है। सरकार के भरोसे तो मत ही रहना। थोड़ा लिखा ज्यादा समझना, बाकी आप खुद अपनी जान और अपने माल की सुरक्षा के लिए खुद जिम्मेदार हैं। रोडवेज बस में भी यही लिखा होता है न?