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टिहरी जन क्रान्ति के नायक  नागेन्द्र सकलानी , मोलू भरदारी की शहादत की 75 बर्षगांठ पर सादर नमन

– अनन्त आकाश

11 जनवरी 1948 को टिहरी गढ़वाल राजशाही के खिलाफ लड़ते हुए कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी कीर्तिनगर में शहीद हुए । उनकी शहादत ने लगभग 1200 साल की सामंती हकूमत से टिहरी की जनता को मुक्ति दिलाई थी । 20 नवम्बर 1920 को पुजारगांव सकलाना पट्टी में एक साधारण कृषक परिवार में उनका जन्म हुआ ।उनके परिवार के सदस्य अपनी एवं अन्य लोगों की जरूरत के मुताबिक वस्तुओं  की आपूर्ति देहरादून से किया करते थे ।

तिरेपन सिंह नेगी शहीद नागेंद्र सकलानी की पार्थिव देह के साथ टिहरी जाते समय। स्वर्गीय नेगी टिहरी के लोकप्रिय सांसद भी रहे।

सकलानी के बड़े भाई जयराम सकलानी चाहते थे कि उनका छोटा भाई नागेंद्र पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी करे किन्तु उनकी रूचि कुछ और ही थी वे देहरादून में उस जमाने में मीडिल ही पास कर सके । वह  देहरादून में ही साम्यवादी विचारों से ओतप्रोत हो चुके थे और अपने समाज के लिए बहुत कुछ नया करना चाहते थे । टिहरी राजशाही के अन्तर्गत वह गांव – गांव जाकर कम्युनिस्ट साहित्य बेचा करते थे तथा बैठकों के माध्यम से जनता को शोषण के खिलाफ शिक्षित कर उन्हें मुक्ति का रास्ता बताते थे । जनता उनकी बात को बडे़ ही आदर से सुनती थी ।

उन दिनों प्रजामण्डिलियों तथा गांधीवादी विचारों का काफी बोलबाला था ,किन्तु नागेंद्र ने अलग हटकर साम्यवादी विचार का रास्ता चुना । नागेंद्र ने अपनी पट्टी सकलाना से जनता को संगठित करना शुरू किया तत्पश्चात कड़ाकोट को संगठित करते हुऐ उनकी गिरफ्तारी हुई एवं जेल में यातनाओं के बावजूद उनके हौसले पस्त नहीं हुऐ । अपने हकहकूकों के आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुऐ 11जनवरी 1948 को आन्दोलकारियों का दल कीर्तिनगर पहुंच गया था ।उस दौर मेंं टिहरी राजशाही की जनता एक साथ राजा और ब्रिटिश राज दोनों का दमन झेल रही थी । नागेन्द्र सकलानी 16 वर्ष की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन चुके थे ।

टिहरी रियासत में अकाल पड़ा तो राजा ने जनता को राहत देने के बजाय अपने राजकोष को भरना ज्यादा मुनासिब मानते हुए भू-व्यवस्था एवं पुनरीक्षण की आड़ में जनता पर ढेरों कर लाद दिये । इस राजसी क्रूरता के खिलाफ़ नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगाकर आंदोलन को नयी धार दी। नतीजतन, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलाना पट्टी व अन्य आन्दोलनकारियों के नेतृत्व में सकलाना के बाद कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत शुरू कर दी और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला।

 

किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। नागेन्द्र सकलानी ने जेल में 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को नागेन्द्र सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा। क्योंकि इससे पूर्व श्री सुमन की शहादत पहले ही जेल में हो चुकी थी, राजा जानता था कि यदि सुमन के बाद सकलानी की जेल में ही शहादत का अंजाम क्या हो सकता है ?बर्ष 1930 का रंवाई विद्रोह भी राजा के जेहन में था । इसके साथ ही जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बरा बेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। जिसके खिलाफ सकलाना पट्टी सहित अनेक जगहों पर राजशाही के खिलाफ विद्रोही कार्यवाहिंयां हुई ।नौजवानों तथा जनता के बडे़ हिस्से ने इसमें हिस्सा लिया आन्दोलन पर कम्युनिस्टों का काफी असर था ।उसी दौर में टिहरी से बाहर रहकर देहरादून सहित देश अनेक हिस्सों में आजादी का आन्दोलन जोरों पर था , जिसमें यहाँ के युवा हिस्सेदारी ले रहे थे ,जो बाद को टिहरी राजशाही के खिलाफ निर्णायक आन्दोलन के नायक बने इन पर राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का स्पष्ट असर था ।क्रान्तिकारी आन्दोलन शहीदे आजम भगतसिंह ,पेशावर विद्रोह के महानायक कामरेड चन्द्रसिंह गढ़़वाली ,आजाद हिन्द फौज तथा गांधीजी को टिहरी राजशाही के खिलाफ संघर्षरत आन्दोलनकारी अपना आदर्श मानते थे ।
10 जनवरी 1948 को आन्दोलन चरम पर था लोग कीर्तिनगर के लिए कूच कर रहे थे ,11जनवरी को एसडीएम कोर्ट पर तिरंगा फहराकर कीर्तिनगर आजाद घोषित किया ।रियासत के कारिंदे घबड़ाऐ हुऐ थे तथा अफरा तफरी का माहौल था ।इस बीच किसी ने न्यायालय में पेट्रोल छिड़काव कर आग लगा दी तथा अफरातफरी में अधिकारी लोग जंगल की ओर भाग खड़े हुऐ आन्दोलकारियों ने उनका पीछा किया नागेंद्र ने एसडीओ को गिरा दिया आनन फानन में उसने नागेंद्र पर गोली चलायी ,मोलू भरदारी पर भी दूसरी गोली लगी 11जनवरी1948 नागेंद्र सकलानी तथा मोलू भरदारी मौके पर ही शहीद हो गये । शहादत के दूसरे दिन यानि 12 जनवरी के दिन कामरेड चन्दसिंह गढ़़वाली कीर्तिनगर पहुंच गये 11 जनवरी 1948 को ही राजा के अधिकारी,सैनिक इस शहादत के बाद भाग खड़े हुऐ इसके बाद राजा का कीर्तिनगर में शासन खत्म हो गया तथा 12 जनवरी को कामरेड चन्दसिंह गढ़़वाली ने शोकाकुल आन्दोलकारियों को सम्बोधित करते हुऐ शहीदों की शव यात्रा देवप्रयाग से होते हुऐ टिहरी ले जाने का ऐलान किया ताकि टिहरी की जनता अपने शहीदों की मुखजात्रा देख सके । जैसे – जैसे ऐ लोग आगे बढ़ते गये जनता का हजूम बढ़ता गया लोग शहीदों पर पुष्प बरसाते गये 14 जनवरी 1948 को दोनों शहीदों के पार्थिव शरीरों के साथ हजारों लोग टिहरी पहुंचने वाले थे ही कि टिहरी राजा को भनक लग गयी वह समझ गया कि उसके शासन का अन्त नजदीक है ,वह अपने लाव लस्कर के साथ नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ ।

14 जनवरी 1948को टिहरी राजशाही के खात्में के साथ ही 15 जनवरी को अन्तरिम सरकार के मन्त्रिमण्डल गठन ने सदियों से राजशाही के जुये तले पीस रही जनता को मुक्ति मिली दादा दौलतराम को अन्तरिम सरकार का प्रधानमन्त्री नियुक्त किया ।राजशाही खात्मे का प्रमुख श्रेय सर्वप्रथम टिहरी की मुक्तिकामी जनता ,कम्युनिस्टों, पेशावर विद्रोह कामरेड चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाली गढ़वाल राईफल तथा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को जिन्होंने अपनी कुर्बानी की मिसाल एक बार फिर पेशकर टिहरी की बागडोर प्रजामण्डलियों के हाथ में सौपकर 1200 साल के इतिहास को पलटकर रख दिया ! इस प्रकार कुछ समय तक अन्तरिम सरकार के बाद टिहरी का विलय भारत में हो गया ।
हमारी पीढियां सदैव उनके योगदान को याद करेगी ।

( लेखक उत्तराखंड  माकपा के वरिष्ठ नेता हैं) 

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